State News (राज्य कृषि समाचार)

जल बोओ, भरपूर फसल लो

Share

05 जनवरी 2023, छिंदवाड़ा(मधुकर पवार): जल बोओ, भरपूर फसल लो – छिंदवाड़ा से कोई 25 किलोमीटर दूर बैतूल – मुलताई मार्ग पर ग्राम बदनूर की आबादी करीब दो हजार है। गांव में लघु और सीमांत किसानों की संख्या ज्यादा है। वैसे कुल मिलाकर करीब 250 किसान होंगे जिनमें से अधिकांश किसान खरीफ के मौसम में सोयाबीन, मक्का, ज्वार, मूंग, मूंगफली आदि की फसल लगाते है। गेहूं रबी की मुख्य फसल है। इसके अलावा प्राय: सभी किसान फूलगोभी, टमाटर, बींस, भिंडी, गाजर, चुकुंदर आदि सब्जियों की खेती बड़े पैमाने पर करते हैं। सब्जियों में अन्य फसलों की तुलना में सिंचाई के लिये अधिक पानी की जरूरत होती है। साथ ही सब्जियों में रासायनिक खाद और कीटनाशक दवाईयों का भी अत्यधिक इस्तेमाल होता है।

गांव में सत्तर – अस्सी के दशक में सिंचाई के लिये कुओं का ही उपयोग किया जाता रहा है। सन 1981 में बदनूर में पहला नलकूप का खनन हुआ। उस समय करीब सवा सौ फुट का गहराई पर पर्याप्त पानी निकल आया था और समर्सिबल मोटर 70 फुट गहराई पर लगाई गई थी। इस नलकूप की सफलता के बाद किसानों ने नलकूप खनन में रूचि लेना प्रारम्भ कर दिया। सन 1981 से लेकर अभी तक गांव में तीन सौ से अधिक नलकूपों का खनन हो चुका है जिनमें से इस समय केवल 50-60 नलकूप ही चालू हालत में है। सिंचाई के लिये प्राय: सभी मध्यम और बड़े किसानों ने अपने खेतों में दो से अधिक नलकूपों का खनन किया है। नलकूपों की संख्या बढ़ने के साथ ही भूजल स्तर में गिरावट आती रही। पहले नलकूप के खनन के समय जहां मात्र सौ – सवा सौ फुट पर पर्याप्त मात्रा में पानी निकल आता था। वर्तमान में 1000 से 1200 फुट की गहराई में पानी निकल रहा है। समर्सिबल मोटर को करीब 800 से 900 फुट गहराई में लगाया जा रहा है। हालाकि अभी भी अनेक किसान सिंचाई के लिये कुओं पर ही निर्भर हैं लेकिन वे रबी की फसल ही किसी तरह ले पाते हैं जबकि गरमी की फसल नहीं ले पाते हैं।

पिछले वर्ष 2022 में बारिस भी अच्छी हुई है। इससे गेहूं की बोवनी होने तक किसानों के चेहरे खिले हुये थे। उन्हें उम्मीद थी कि इस बार कुओं में पर्याप्त पानी उपलब्ध रहेगा जिससे वे रबी की फसल के साथ सब्जियों की भी अच्छी पैदावार कर सकेंगे। लेकिन जैसे ही गेहूं की फसल में सिंचाई की बारी आई… कुओं में पानी काफी कम हो गया है। गांव के एक प्रगतिशील किसान गोवर्धन ने बताया कि केवल दो- तीन घंटे ही सिंचाई कर पाते हैं जबकि कुछ बरस पहले सिंचाई के लिये भरपूर पानी उपलब्ध था और कुओं का पानी खत्म नहीं होता था। गरमी के दिनों में जब पानी कम हो जाता था, तब कुआं की थोड़ी खुदाई कर देते थे। इससे सिंचाई के लिये पर्याप्त मात्रा में पानी मिल जाता था। किसान ने बताया कि अभी बरसात को समाप्त हुये करीब तीन महीने ही हुये हैं और अभी से सिंचाई के लिये कुओं में पानी पर्याप्त नहीं है। फरवरी मार्च में क्या स्थिति होगी, इसकी कल्पना की जा सकती है। गरमी के दिनों में फसल के लिये तो छोड़ो, पीने के लिये ही मिल जाये तो गनीमत समझिये। कुयें तो एक- दो महीने में ही साथ छोड़ देंगे, तब नलकूप ही एकमात्र सहारा रहेगा। लेकिन नलकूपों से सिंचाई के लिये पर्याप्त पानी मिल सकेगा, इसमें भी संदेह है।

पच्चीस – तीस साल पहले नलकूपों की संख्या कम ही थी और सिंचाई कुओं से ही की जाती थी। लेकिन नलकूप के सूख जाने के बाद नये नलकूप का खनन होता रहा है। भूजल स्तर में लगातार गिरावट का एक प्रमुख कारण यह भी हो सकता है कि नलकूप से भूजल का बेतहाशा दोहन किया जाता रहा लेकिन जल पुनर्भरण अर्थात रिचार्ज पर बिलकुल भी ध्यान नहीं दिया गया। जब लगातार नलकूप खनन होते रहे और जल पुनर्भरण नहीं हुआ तो ऐसे हालात उत्पन्न हो गये हैं कि आने वाले समय में पेयजल के लिये तरसना न पड़ जाये। यह स्थिति केवल ग्राम बदनूर की ही नहीं बल्कि ऐसे सैकड़ों गांव हैं जहाँ भूजल स्तर काफी नीचे जा चुका है। कुओं में केवल बरसात में ही पानी रहता है और जैसे ही बरसात का मौसम समाप्त होता है, पानी काफी कम हो जाता है। केंद्रीय जल संसाधन मंत्रालय ऐसे क्षेत्रों को डार्क एरिया या अति दोहन क्षेत्र घोषित कर देता है जहां 85 प्रतिशत से अधिक भूजल का दोहन कर लिया जाता है। देश के 16 प्रतिशत तालुका, मंडल, ब्लॉक स्तरीय इकाइयों में भूमिगत जल का अत्यधिक दोहन हुआ है। जबकि देश के चार फीसदी इलाकों में भूमिगत जल का स्तर इतना गिर चुका है कि इसे ‘विकट स्थिति’ बताया जा रहा है। केंद्रीय भूजल बोर्ड के आंकड़ों के अनुसार देश के 6,584 ब्लाक, मंडलों, तहसीलों के भूजल के स्तर के लिये किये गये सर्वेक्षण में केवल 4,520 इकाइयां ही सुरक्षित हैं। जबकि 1,034 इकाइयों को अत्यधिक दोहन की जाने वाली श्रेणी में डाला गया है। इसमें करीब 681 ब्लाक, मंडल, तालुका के भूजल स्तर में अति विकट श्रेणी में रखा गया है। जबकि 253 को विकट श्रेणी में रखा गया है।

देश में पर्याप्त और औसत बारिस होने के बाद भी भूजल स्तर में निरंतर हो रही गिरावट के मद्देनजर प्रभावी और कारगर कदम उठाने की जरूरत है। इसके लिये वर्षा के जल को रोकने के साथ भूजल स्तर को बढ़ाने के कार्य को प्राथमिकता से करने की जरूरत है। दूसरे सरल शब्दों में इसे जल की खेती करना भी कहते हैं। जल की बोवनी करो यानी जल को धरा में उतारो और भरपूर फसल लो। इसके तहत निम्नलिखित उपायों पर कार्य करने की आवश्यकता है। जीवित और सूखे नलकूपों का रिचार्ज, स्टाप डेमों का निर्माण, बंजर भूमि पर छोटे – छोटे तालाबों का निर्माण, फसल चक्र में परिवर्तन, वृहद वृक्षारोपण आदि उपाय किये जा सकते हैं.

जीवित और सूखे नलकूपों का रिचार्ज :-

खेतों में जितने भी नलकूप सूख गये हैं, उन्हें बरसात के समय रिचार्ज करने की जरूरत है। सूखे नलकूप के पास दो पिट बनाकर उनमें ईंट, बोल्डर, रेत आदि भर दें. पाईप के जरिये दूसरे पिट में पानी साफ होकर ले जाया जाता है. यहां पानी फिर से साफ होता है जिसे नलकूप में डाला जा सकता है। यदि गांवों के सूखे हुये सभी नलकूपों में बरसात के मौसम में पानी डाला जायेगा तो काफी मात्रा में पानी जमीन के अंदर पहुँचेगा जिससे भूजल स्तर में निश्चित ही वृद्धि होगी। शहरों में अनेक नगर निकायों ने नलकूप वाले घरों और परिसरों में बरसात के दिनों में नलकूपों के रिचार्ज करना अनिवार्य कर दिया है। इसके सार्थक परिणाम दिखाई दे रहे हैं।

स्टाप डेमों का निर्माण –

गांव में छोटे – छोटे नाले होते हैं जिनपर पांच – पांच सौ मीटर की दूरी पर स्टाप डेम बनाकर पानी रोका जा सकता है। पानी जमा होने से आसपास के भूजल में वृद्धि होगी। साथ ही जब तक पानी स्टाप डेम में जमा रहेगा तब तक खेतों में स्टाप डेमों से सिंचाई की जा सकती है

छोटे तालाबों का निर्माण –

देवास जिला के टोंकखुर्द विकासखंड में भूजल स्तर काफी नीचे है। सन 2006-07 के दौरान तत्कालीन कलेक्टर ने ग्रामीणों को अपने खेतों में बहुत छोटे – छोटे तालाब बनाने के लिये प्रेरित किया था। किसानों ने अपने – अपने खेतों में छोटे – छोटे तालाब बनाये। इन तालाबों में बरसात के दिनों में पानी भर जाता है। इससे भूजल स्तर में सुधार तो हुआ ही है, साथ ही मछली पालन भी करते हैं जिससे उन्हें अतिरिक्त आय भी हो जाती है। इसी तर्ज पर जिन गांवों में भूजल स्तर कम हो गया है, वहां यह प्रयोग किया जा सकता है।

फसल चक्र में परिवर्तन :-

कुछ दशक पहले मक्का, ज्वार, धान, अरहर आदि फसलें खरीफ के मौसम में लगाई जाती थी। इन फसलों के खेतों में पानी जमा रहता था, तो भी ज्यादा नुकसान नहीं होता था। खेतों में पानी जमा रहने से भूजल स्तर में कमी नहीं होती थी। लेकिन जब से सोयाबीन की फसल लगाने लगे हैं, उपर्युक्त फसलों का रकबा काफी कम हो गया है। सोयाबीन के खेतों में पानी जमा रहने से फसल को नुकसान होता है. इसलिये सोयाबीन के खेतों में पानी जमा नहीं होने देते। यदि फसल चक्र का ध्यान दिया जाये तो इस स्थिति में सुधार हो सकता है।

बंजर भूमि पर वृक्षारोपण :-

ग्रामीण क्षेत्रों में पेड़ों की संख्या पहले की तुलना में काफी कम हो गई है. अब तो जलाऊ लकड़ी की भी कमी पड़ने लगी है। भूजल स्तर बढ़ाने में वृक्षों की महत्वपूर्ण भूमिका होती है। ऐसा देखा गया है कि जिन क्षेत्रों में पेड़ – पौधों की संख्या अधिक है, वहां भूजल स्तर अन्य क्षेत्रों की तुलना में अधिक रहता है। इसलिये अनुपयोगी और बंजर भूमि पर वृहद वृक्षारोपण करने के लिये प्रेरित करना चाहिये।

कम पानी और अधिक उत्पादन वाली किस्में :-

कृषि वैज्ञानिकों ने कम पानी में अधिक उत्पादन वाली किस्में विकसित की हैं। किसानों को ऐसी फसलें बोने के लिये प्रेरित करने की जरूरत है जिनसे कम पानी और कम लागत में अधिक उत्पादन मिल सके। साथ ही किसानों को जागरूक करने के लिये जल संरक्षण अभियान चलाये जाने की आवश्यकता है। इससे फसलों को जितने पानी की जरूरत है, उतनी ही सिंचाई की जानी चाहिये। ऐसा कर किसान पानी के साथ बिजली की भी बचत कर सकते हैं |

महत्वपूर्ण खबर: कपास मंडी रेट (04 जनवरी 2023 के अनुसार)

(नवीनतम कृषि समाचार और अपडेट के लिए आप अपने मनपसंद प्लेटफॉर्म पे कृषक जगत से जुड़े – गूगल न्यूज़टेलीग्राम )

Share
Advertisements

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *