State News (राज्य कृषि समाचार)

तिलहनी फसलों में सिंचाई

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राई सरसों : सरसों वर्गीय सभी फसलें मुख्यतया वर्षा निर्भर क्षेत्रों में बोयी जाती हैं। ये फसलें मिट्टी से काफी गहराई से पानी प्राप्त कर सकती हैं। अत: इनकी उपज भूमि में संरक्षित नमी पर निर्भर करती हैं। परीक्षणों के परिणाम के आधार पर राई की फसल की जलावश्यकता लगभग 30 से.मी. है और प्रति से.मी. जलपूर्ति से लगभग 90 किलोग्राम उपज प्राप्त होती है। (डॉ. सूरज भान 1974)
राई की अधिकतम उपज के लिए भूमि में प्रर्याप्त मात्रा में नमी का होना महत्वपूर्ण है। यदि अक्टूबर के पहले सप्ताह में वर्षा से आवश्यक नमी भूमि में उपलब्ध न हो तो पलेवा देकर सिंचाई करना चाहिए। पहली सिंचाई जितना हो सके देर से करनी चाहिए। जिससे पौधों की जड़ें नमी की तलाश में भूमि में गहराई तक चली जायें और पौधे कुछ बड़े होने पर अधिक नमी सहने की क्षमता प्राप्त कर लें। अत: पहली सिंचाई बुआई के 35 से 40 दिन के  बीच करना उपयुक्त रहता है। इस सिंचाई मेें जरूरत से ज्यादा पानी बिलकुल नहीं देना चाहिए। दूसरी सिंचाई वर्षा न होने पर बुआई के 80-90 दिन बाद फलियों के भरने की अवस्था में करनी चाहिए। राई की फसल में फूल आने की अवस्था के साथ ही शाखाएं और फलियां छटती हैं। फलियां भरने की अवस्था में यदि पानी की कमी रहती है तो दोनों का आकार छोटा हो जाता है और फलियां खाली रह जाती हैं। यदि भूमि बहुत हल्की हो तो उसमें पलेवा के अलावा तीन सिंचाईयां बुआई के 30-35 दिन, 60 से 65 दिन और 90 से 100 बाद देना जरूरी होता है। दूसरी और तीसरी सिंचाई के एक दिन पहले माहू और बीमारियों के नियंत्रण हेतु कीटनाशक और फफूंदनाशक दवाईयों का एक छिड़काव अवश्य किया जाना चाहिए। अन्यथा सिंचाई के तुरन्त बाद माहू के प्रकोप से खेत में नहीं घुस पाने के कारण उनसे फसल को काफी हानि हो सकती है। राई की फसल में सिंचाई के पानी के दक्षतापूर्ण उपयोग के लिए यह जरूरी है कि फसल को प्रर्याप्त मात्रा में उर्वरक दिया जाए। परीक्षणों में पाया गया है कि राई की बोआई के 30 दिन एवं 55-60 दिन बाद दो सिंचाईयां करने पर सर्वाधिक उपज प्राप्त हुई है (कुमार1989) पहली अवस्था में पौधों की तीव्र बढ़वार होती है। एक सिंचाई उपलब्ध होने पर पुष्पावस्था पर करनी चाहिये। गोभी सरसों में 3 सिंचाईयों की आवश्यकता होती है
अलसी: उतेरा दशा में खेती करने पर फसल प्राय: खेत की नमी पर आश्रित रहती है। जाड़े की वर्षा से ही नमी की कमी पूरी हो जाती है। इस फसल के लिए पानी की मात्रा रबी की शस्य फसलों और अन्य तिलहनों की अपेक्षा कम है। मटीयार और भारी मिट्टियों में अलसी की फसल में सिंचाईयां नहीं की जाती हैं, क्योंकि भारी मिट्टियों में पानी शोषण करने और नमी संरक्षित करने की क्षमता अधिक होती है। हल्की मिट्टियों में बोई गई अलसी की फसल को सिंचाईयों की आवश्यकता होती है। इन मिट्टीयों में सिंचाईयों की संख्या जाड़ों की वर्षा पर निर्भर रहती है। अगर जाड़ों में वर्षा नहीं होती है तो अलसी की फसल में दो सिंचाईयों की आवश्यकता होती है। परन्तु जाड़ों में वर्षा हो जाने पर साधारणतया एक सिंचाई पर्याप्त होती है। अलसी की जड़े 175 से.मी. गहराई तक पाई गई हैं। इस तथ्य से यह बात सिद्ध होती है कि यदि समुचित वर्षा हो जाए (औसत वार्षिक वर्षा 75 से 175 से.मी.) तो अलसी की फसल को सिंचाई की जरूरत नहीं होती। किन्तु अलसी से कम पानी में भी अधिक पैदावार मिल जाती है। यदि सिंचाई की थोड़ी सी भी व्यवस्था हो तो सिंचाई सुविधा उपलब्ध होने पर अन्य फसलों की तुलना में अलसी से अधिक लाभ प्राप्त किया जा सकता है। दो या तीन सिंचाई के उपयोग से दो गुनी पैदावार असिंचित फसल की तुलना में ली जा सकती है। बीज अंकुरण के लिए उचित नमी न होने की दशा में बुआई के पहले हल्का पलेवा देना जरूरी है। सिंचाई सुविधा उपलब्ध होने पर पहली सिंचाई बुआई के 30-40 दिन बाद (शाखायें निकलते समय) और दूसरी सिंचाई पौधों पर फूल आने पर (बुआई के 75-80 दिन बाद) करना लाभकर है। जिन किसानों के पास एक ही सिंचाई का साधन है वे अलसी की बुआई के 55वेें दिन बाद सिंचाई करें। शोध परिणामों से यह भी सिद्ध हुआ कि अधिक सिंचाई की अवस्था में उपलब्ध जल के प्रभावकारी उपयोग के लिए संतुलित/पर्याप्त मात्रा में उर्वरकों का प्रयोग करना चाहिए। वैज्ञानिकों ने सिद्ध कर दिया है कि जब उर्वरक कम मात्रा में डाला जाए तो एक सिंचाई बुआई के 30 या 70 दिन बाद करनी चाहिए पर अधिक उर्वरक की मात्रा प्रयोग करने पर सिंचाईयां 30 व 70 दिन की अवस्था (बुआई के बाद शाखाएं और फूल निकलते समय) पर करनी जरूरी है। सिंचाई का लाभदायक प्रभाव न केवल उपज और शुद्ध लाभ पर पड़ता है, बल्कि हजार दानों के भार और तेल की मात्रा में भी बढ़ोत्तरी पयी गयी है।
तोरिया: इस तिलहनी फसल को अधिकांश रूप से सिंचित दशा में उगाया जाता है। मैदानी क्षेत्रों में भी इसे मध्य सितम्बर से अक्टूबर के प्रथम सप्ताह तक बो देते हैं और इस प्रकार इसकी खेती मानसून से संरक्षित नमी के सहारे की जाती है। भूमि में नमी नहीं रहने और शीतकाल की वर्षा न होने की स्थिति में फूल आते समय फसल में एक सिंचाई से उपज में काफी वृद्धि हो जाती है। परीक्षणों में पाया गया है कि तोरिया में एक सिंचाई बुआई के 25 दिन बाद करने  पर उपज में काफी लाभ होता है। सिंचाई के जल के दक्षतापूर्ण उपयोग के लिए आवश्यक है कि फसल में संतुलित मात्रा में उर्वरक का प्रयोग किया जावे।

सूरजमुखी : यह अन्य तिलहनी फसलों की भांति काफी हद तक सूखा सहन करती है इस फसल की जलाावश्यकता 30 से 35से.मी. होती है। इस फसल के जीवन में तीन अवस्थाएं जल की कमी से विशेष संवेदनशील है। पौधे में 4 से 5 पत्तियां आना, फूल छंटना और दाना भरने की अवस्थाएं क्रमश: बुआई के लगभग 30-35 दिन, 70-75 दिन और 105 दिन बाद आती है। 4 से 5 पत्ती की अवस्था में सिंचाई करने से पौधा तेजी से ऊंचाई और मोटाई में बढ़ता है। दाना भरने की अवस्था में सिंचाई से फूल में दानों का भराव अच्छा होता है और दानों का भार बढ़ता है। प्रत्येक सिंचाई पर 5 से.मी. जल पर्याप्त पाया गया है। कलिका बनते समय, मुंडक बनने पर फूल आने पर तथा बीजों के भरते समय नमी की कमी होने पर सिंचाई करना नितांत आवश्यक है।

कुसुम: यह सूखा सहन करने वाली फसल है। इसकी जड़ें काफी गहराई तक घनी बढ़ती हैं और पत्तियां चमकीली, कांटेदार और मोमदार होती हैं, जिससे सूखे की स्थिति में वाष्पोत्सर्जन से पानी की हानि कम होती है। इस फसल में बुआई के लगभग 50 दिन बाद एक सिंचाई करने से 1350 किलो ग्राम दानों की उपज प्रति हेक्टेयर तक मिल जाती है,जो कि बिना सिंचाई वाली फसल की तुलना में 37.8 प्रतिशत अधिक है। यह फसल रोजेट बनने की अवस्था में जल की कमी को काफी हद तक सहन कर सकती है। पर इसके बाद फूल आने और बीज भरने की अवस्था में काफी पानी की अवश्यकता होती है। यदि सिंचाई न की जाए तो फूलों में ठीक से दाने नहीं बनते। परीक्षणों के आधार पर यह परिणाम निकाले गये हैं कि कुसुम की फसल को पहला पानी बुआई के लगभग 50 दिन बाद दिया जाए और दुसरा पानी पहले पानी के लगभग 45 दिन बाद। इस फसल में दो से अधिक बार सिंचाई करना लाभप्रद नहीं पाया गया है। भारी काली मिट्टियों में पानी का निकासी का प्रबन्ध न होने पर उकठा और जड़ सडऩ/गलन जैसी समस्याएं फसल को चौपट कर देती हैं। इन समस्याओं से निपटने के लिए निम्नलिखित बातों पर ध्यान रखें:-
(क) दरकने वाली काली मिट्टियों मेें दरारें पडऩे से पहले सिंचाई कर दें। फसल पर नमी की कमी का होने का इंतजार न करें।
(ख) सिंचित क्षेत्रों में या तो खरीफ में सिंचित फसल लेने के बाद कुसुम की बुआई करें या फिर बुआई से पहले सिर्फ इतनी सिंचाई करें की बीज के आस-पास की मिट्टी नम हो जाए।
(ग) सिंचित क्षेत्रों में कुसुम की खेती करते समय वहां पर 1.35 से 1.8 मीटर से बनायी गयी चौड़ी क्यारियों में 2 या 3 कतारों के बाद सपाट क्यारियों के पास सिंचाई की कूंड बना लेने के बाद बुआई करें। बुआई के लिए 2:1 या 3:1 का एक कतार छोड़कर बोने का तरीका अपनाएं। इससे पौधे पानी के सीधे संपर्क में नहीं आएंगे और जल प्लावन से होने वाली समस्याओं से बचे रहेंगे।

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