Crop Cultivation (फसल की खेती)

मूंग फसल में रोग प्रबंधन

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29 मार्च 2024, भोपाल: मूंग फसल में रोग प्रबंधन – मूंग की फसल पर विभिन्न अवस्थाओं में अनेक रोगों का प्रकोप होता है यदि इन रोगों की सही पहचान करके उचित समय पर नियंत्रण कर लिया जाए तो उपज का काफी भाग नष्ट होने से बचाया जा सकता है मूंग के प्रमुख रोगों के लक्षण और उनकी नियंत्रण विधियां इस प्रकार है-

पीत चितेरी रोग- यह एक विषाणु जनित रोग है जो देश के अधिकतर प्रदेशों जैसे उत्तर प्रदेश, उत्तरांचल, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ, बिहार-झारखंड हरियाणा पंजाब हिमाचल प्रदेश राजस्थान दिल्ली उड़ीसा आंध्र प्रदेश एवं तमिलनाडु में व्यापक रूप से मूंग और उड़द की फसलों को क्षति पहुंचाता है। यह रोग सामान्य अवस्था में फसल बोने के लगभग 2 से 3 सप्ताह के अंदर प्रकट होने लगता है । पीत चितेरी रोग के कारण उपज में गिरावट,  पौधों में रोग की अवस्था पर निर्भर करता है। रोग संवेदनशील प्रजातियों के चयन के कारण यह रोग फसल की प्रारंभिक अवस्था से ही आ जाता है,जिससे उपज  शून्य  भी हो सकती है। यह रोग  पीत चितेरी विषाणु द्वारा होता है। यह विषाणु मृदा बीज तथा संस्पर्श द्वारा संचालित नहीं होता है। पीत  चितेरी रोग सफेद मक्खी के द्वारा फसलों पर फैलता है। यह मक्खी काफी छोटी 0.5 से 0.1 मिली मीटर लंबी होती है और पौधों का रस चूसती  है। इसका शरीर हल्का पीला तथा आंखों का रंग सफेद होता है। मक्खी स्वस्थ पौधे पर चूसती है तो साथ में विषाणु का भी स्वस्थ पौधे में संचालन करती है यह प्रक्रिया पूरे खेत में रोग फैलाती है।

प्रबंधन – रोग अवरोधी प्रजातियों का चयन इस रोग के प्रबंधन का सरलतम उपाय है। यह रोग सफेद मक्खी द्वारा फैलता है इसलिए सफेद मक्खी का नियंत्रण करके इस रोग को नियंत्रित किया जा सकता है। खेत में रोग के लक्षण दिखते ही या बुवाई के 15 दिनों के पश्चात इमिडाक्लोप्रिड 0.1 प्रतिशत 10 मिलीलीटर प्रति 10 लीटर पानी का या डाईमेथोएट  0.3 प्रतिशत 30 मिलीलीटर प्रति 10 लीटर पानी का फसल पर छिड़काव करें इन कीटनाशियों का दूसरा छिड़काव बुवाई के 45 दिनों के पश्चात करने से इस रोग के प्रकोप को कम किया जा सकता है। रोग ग्रसित पौधों को शुरु में ही नष्ट कर दें।

पर्ण संकुचन (लीफ कर्ल) –  मूंग में पर्ण कुंचन रोग आर्थिक दृष्टि से महत्वपूर्ण रोग है। इस रोग का प्रकोप दक्षिण भारत में अधिक होता है परंतु उत्तर भारत में भी पिछले कुछ वर्षों में इस रोग का प्रकोप बढ़ा है। यह रोग पीनट बड नेक्रेसिस वायरस एवं टूबेको स्ट्रीक वायरस के द्वारा होता है जो थ्रिप्स कीट द्वारा फैलता है इस कीट का आकार बहुत छोटा होता है और यह पौधे के शीर्षस्थ भाग या पुष्प कणिकाओं या उसके अंदर रहता है। इस रोग के लक्षण पौधे पर प्रारंभिक अवस्था से लेकर अंतिम अवस्था तक किसी भी समय प्रकट हो सकते हैं। इस रोग से प्रभावित पौधों की नई पत्तियां के किनारे पर  पाश्र्व शिराओं और उसकी शाखाओं के चारों तरफ हल्का पीलापन आ जाता है। संक्रमित पत्तियों के सिरे नीचे की ओर कुंचित हो जाते हैं तथा यह भंगूर हो जाती है। ऐसी पत्तियों को यदि उंगलियों द्वारा थोड़ा सा झटका दिया जाए तो यह डंठल सहित नीचे गिर जाती है। संक्रमित पत्तियों की निचली सतह पर शिराओं में भूरे रंग का विवरण प्रकट हो जाता है, जो कि डंठल तक फैल जाता है इसके फलस्वरूप संक्रमित पौधे की वृद्धि रुक जाती है। ऐसे पौधे खेत में अन्य पौधों की तुलना में बौने से दिखते हैं और खेत में दूर से ही पहुंचाने जा सकते हैं । यदि पौधे प्रारंभिक अवस्था में संक्रमित हो जाते हैं तो शिखर उत्तक क्षय के कारण मर जाते हैं।

प्रबंधन  – इस रोग के नियंत्रण के लिए बीजों को कीटनाशक इमिडाक्लोप्रिड 5 ग्राम/किलोग्राम बीज की दर से बीज उपचार तथा बुवाई के 15 दिन बाद इसी कीटनाशी से  छिड़काव (0. 5 मिलीलीटर प्रति लीटर पानी) का करें।

पर्ण व्याकुंचन रोग (लीफ क्रिंकल) – यह मूंग का महत्वपूर्ण विषाणु जनित रोग है। इस विषाणु द्वारा संक्रमित पौधों में नाम मात्र की फलियां आती हैं। यह रोग मूंग में होता है। पर्ण व्याकुंचन रोग एक विषाणु द्वारा होता है। जिसका संचरण रोगी पौधे के बीजों द्वारा मुख्य रूप से होता है। कुछ क्षेत्रों में इस रोग का संचरण कीटों जैसे माहू और सफेद मक्खी द्वारा होता है। सामान्यत: फसल बोने के टीम 4 सप्ताह बाद दूसरी पत्ती सामान्य से बड़ी होना इस रोग के लक्षण हैं। बाद में इन पत्तियों में झुर्रियां या मरोड़पन एवं पत्तियों की सामान्यता से अधिक वृद्धि होना इस रोग के विशिष्ट लक्षण हैं। ऐसी पत्तियां छूने पर सामान्यत: पत्ती से अधिक मोटी तथा खुरदरी होती है। इस लक्षण द्वारा रोगी पौधों को खेत में दूर से ही पहचाना जा सकता है। जब रोगी पौधों में फूल की पुष्प कलिकाएं छोटी ही रहती हंै तथा इसके बाह्य दल सामान्य से मोटे तथा अधिक हरे हो जाते हैं। अधिकतर पुष्पक्रम गुच्छे की तरह दिखाई देता है और अधिकतर पुष्प कलियां परिपक्व होने से पहले ही गिर जाती है। कभी-कभी सभी पुष्प कलिकाओं के गिर जाने पुष्पक्रम एक डंडी जैसा दिखता है। इस विषाणु के संक्रमण से पुष्प कणिकाओं में परागकण बाधित हो जाते हैं जिससे रोगी पौधों में फलियां कम लगती है। फसल पकने के समय तक भी पर्ण व्याकूंचन संक्रमित पौधे हरे ही रहते हैं और इनके साथ -साथ पौधे पीली चितेरी रोग से भी संक्रमित हो सकते हैं।

प्रबंधन- यह विषाणु रोगी पौधे के बीजों द्वारा संचारित होता है इसलिए रोगी पौधों को शुरू में ही उखाड़ कर जला दें। ऐसे क्षेत्र में जहां इस रोग का प्रकोप अधिक हो पर्ण व्याकुंचन अवधि प्रजातियों का चयन करें। इस रोग का संचरण कीटों जैसे माहू और सफेद मक्खी के द्वारा होता है इसलिए इन कीटों का नियंत्रण करके इस रोग को नियंत्रित किया जा सकता है। खेत में रोग के लक्षण दिखते ही या बुवाई के 15 दिनों के बाद इमिडाक्लोप्रिड 0.1 प्रतिशत (10 मिलीलीटर प्रति 10 लीटर पानी) या डायमेथोएट 0.3 प्रतिशत (30 मिलीलीटर प्रति 10 लीटर) पानी का फसल पर छिड़काव करें। इन कीटनाशकों का दूसरा छिड़काव बुवाई के 15 दिनों के पश्चात करने से इस रोग का प्रकोप कम किया जा सकता है।

पत्र बुंदकी रोग (सर्कोस्पोरा) – मूंग का यह एक प्रमुख रोग है जिससे प्रतिवर्ष उपज में भारी क्षति होती है यह रोग भारत के लगभग सभी मूंग उगाने वाले क्षेत्रों में व्यापकता से पाया जाता है वातावरण में अधिक नमी होने की दशा में इस रोग का संचरण होता है। अनुकूल वातावरण में यह रोग एक महामारी का रूप ले सकता है। यह रोग सर्कोस्पोरा क्रूएंटा या सर्कोस्पोरा केनेसेंस नामक कवक द्वारा होता है यह कवक बीज के साथ मिल जाता है और ऐसे बीज का बिना उपचार के होने से फसल में अधिक रोग हो सकता है। यह कवक रोग ग्रसित पौधे के अवशेषों व मृदा में पड़ा रहता है। ऐसे खेतों में अगले वर्ष मूंग की फसल लेने से इस रोग के प्रकोप की संभावनाएं अधिक रहती हैं पत्र बुंदकी रोग (सर्कोस्पोरा) के कारण पत्तियों पर भूरे गहरे रंग के धब्बे पड़ जाते हैं जिनका बाहरी किनारा गहरे से भूरे लाल रंग का होता है। यह धब्बे  पत्ती के ऊपरी सतह पर अधिक स्पष्ट दिखाई पड़ते हैं। रोग का संक्रमण पुरानी पत्तियों से प्रारंभ होता है। अनुकूल परिस्थितियों में यह धब्बे बड़े आकार के हो जाते हैं और अंतत: रोग ग्रसित पत्तियां गिर जाती हैं ।

प्रबंधन – रोग से बचाव के लिए रोगमुक्त बीज का प्रयोग करें। रोक के उत्पन्न होने से रोकने के लिए खेत की सफाई व पानी निकास की व्यवस्था करने के साथ-साथ फसल चक्र अपनायें। रोगग्रस्त फसल के अवशेषों को भली प्रकार से नष्ट कर दें तथा खेत के आसपास वायरस पोशी फसलों को लगाने से बचें। बुवाई से पहले बीज को कैप्टान या थीरम नामक कवकनाशी से 2.5 ग्राम प्रति किलोग्राम की दर से शोधित करें। फसल पर रोग के प्रारंभिक लक्षण दिखते ही कवकनाशी कार्बेंडाजिम 0.05 प्रतिशत का 5 ग्राम प्रति 10 लीटर या  मेंकोज़ेब 0.25 प्रतिशत 25 ग्राम प्रति 10 लीटर की दर से एक से दो बार छिड़काव 10 से 15 दिन के अंतराल पर करें। अगर रोग फलियां आने के बाद प्रकट होता है तो इस अवस्था में कवकनाशी रसायन के प्रयोग से कोई लाभ नहीं मिलता है। सामान्यत: पुरानी फलियों में ही संक्रमण होता है ,जो अधिक धब्बे बनने की स्थिति में काली पड़ जाती है तथा ऐसी फलियों में जाने भी बदरंग तथा सिकुड़ जाते हैं। कभी-कभी यह धब्बे बड़े अर्थात 5 से 7 मिलीमीटर व्यास तथा इनका केंद्र राख के रंग का तथा किनारी लाल बैंगनी रंग की होती है जबकि कभी छोटे अर्थात् 1 से 3 मिलीमीटर व्यास लगभग गोलाकार तथा केंद्र में पीलापन लिए हुए हल्के भूरे रंग तथा किनारी लाल भूरे रंग की होती है।

चूर्णिल आसिता रोग – गर्म और शुष्क वातावरण इस रोग के जल्दी फैलाने में सहायक होते हैं। यह रोग इरी साइफी पोलीगोनी नामक कवक द्वारा होता है। यह रोग फसल में वायु द्वारा परपोषी पौधों से फैलता है। यह कवक एक मौसम से दूसरे मौसम में संक्रमित पौध अवशेषों पर जीवित रहता है, जो प्राथमिक द्रव्य रोग कारक कवक के रूप में रोग फैलाते हैं। रोग के प्रसार की उग्र अवस्था में यह लगभग 21 प्रतिशत तक फसल को हानि पहुंचाता है। इस रोग के मुख्य लक्षण पौधे के सभी वायवीय भागों  में देखा जा सकता है। रोग का संक्रमण सर्वप्रथम निचली पत्तियों पर कुछ गहरे बदरंग धब्बों के रूप में प्रकट होता है। धब्बों पर छोटे-छोटे सफेद बिंदु पड़ जाते हैं जो बाद में बढ़कर एक बड़ा सफेद धब्बा बनाते हैं जैसे जैसे रोग की उग्रता बढ़ती है, यह सफेद धब्बे न केवल आकार में बढ़ते हैं, बल्कि ऊपर की पत्ती नई पत्तियों पर भी विकसित हो जाते हैं। अंतत: ऐसे सफेद धब्बे पत्तियों की दोनों सतह पर तना, शाखाओं एवं फली पर फैल जाते हैं। इससे पौधे की प्रकाश संश्लेषण की क्षमता नगण्य हो जाती है और अंत में संक्रमित भाग झुलस/  सूख जाते हैं।

प्रबंधन- रोग  विरोधी प्रजातियों का चुनाव करें फसल पर घुलनशील गंधक का 0.2 प्रतिशत घोल का छिड़काव रोग का पूर्णता प्रबंधन कर देता है। कवकनाशी जैसे कार्बेंडाजिम 0.5 ग्राम प्रति लीटर पानी या केराथेन का 1 मिलीलीटर प्रति लीटर पानी की दर से  घोल बनाकर छिड़काव से इस रोग का नियंत्रण हो जाता है। प्रथम छिड़काव रोग के लक्षण दिखते ही करें आवश्यकतानुसार दूसरा छिड़काव 10-15 दिन के अंतराल पर करें।

रुक्ष रोग ( एंथ्रेक्जोन) – इस रोग के कारण फसल की उत्पादकता व गुणवत्ता दोनों प्रभावित होती है। उत्पादन में लगभग 24 से 64 प्रतिशत तक की कमी आती है। बादल युक्त मौसम के साथ-साथ उच्च आर्द्रता वह 26 से 30 डिग्री सेल्सियस तापमान इस रोग का प्रमुख कारक है। फसल में रोग उत्पन्न करने वाले स्रोत युक्त बीज तथा और रोग युक्त फसल अवशेष होते हैं।

प्रबंधन –  प्रमाणित बीज का प्रयोग करें बीजों का थीरम अथवा कैप्टान द्वारा 2 से 3 ग्राम प्रति किलोग्राम बीज अथवा कार्बेंडाजिम 0.5 से 1 ग्राम प्रति किलोग्राम बीज की दर से उपचारित करें रोग के लक्षण दिखते ही 0.2 प्रतिशत जिनेब अथवा थीरम का छिड़काव करें आवश्यकतानुसार 15 दिन के अंतराल पर अतिरिक्त छिड़काव करें कार्बेंडाजिम या मैनकोज़ेब 0.2 प्रतिशत का छिड़काव भी इस रोग के नियंत्रण हेतु प्रभावी है।

 (स्रोत – दलहन ज्ञान मंच, भारतीय दलहन अनुसन्धान संस्थान, कानपुर)

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