Crop Cultivation (फसल की खेती)

जीएम फसलों की अनुमति: भारत में पर्यावरण एवं इंसानी जिंदगी को खतरा

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  • विनोद के. शाह,
    मो.: 9425640778
  • Shahvinod69@gmail.com

03 जनवरी 2023,  भोपाल । जीएम फसलों की अनुमति: भारत में पर्यावरण एवं इंसानी जिंदगी को खतरा – पहले अब सुप्रीम कोर्ट को जीएम जेनेटिकली मॉडिफाइड सरसों के पौधे से फूल आने से पहले नष्ट करने की याचिका पर निर्णय करना है। देश में जीएम सरसों डीएमएच-11 की व्यावसायिक खेती पर रोक लगाने का मामला पूर्व से ही विचाराधीन है। याचिकाकर्ता ने इसके फूलों एवं बीज से पर्यावरण को खतरा बताया हैै। देश में अनुवांशिक खाद्य फसलों की व्यावसायिक खेती की अनुमति को लेकर पिछले दो दशक से विभिन्न मंचों पर बहस जारी है। देश के अधिकांश पर्यावरणविद् एवं कृषि जानकार अनुवांशिक परिवर्तित खाद्य खेती में फायदा कम नुकसान अधिक मानते आये हंै। लेकिन भारत सरकार जीएम सरसों की फसल उत्पादन के लिये इतने अधिक उतावले हैं कि जेनेटिक इंजीनियरिंग मूल्यांकन समिति जीईएसी की व्यावसायिक खेती के लिये अनुवांशिक संशोधित जीएम सरसों की मंजूरी मिलते ही, हाल की रबी बोवनी से पूर्व देश में इसके बीज के उत्पादन की मौन स्वीकृति दे दी थी। इस फसल को विकसित करने वाले संस्थान ने फसल बीज भी प्रयोग के लिये उपलब्ध करा दिया था। विवादित होने के बाद भी इस पर यह ख्याल नहीं रखा गया कि उत्पादकता लेने संबंधी प्रयोग खुले में करने बजाय चारदिवारी, पॉली या ग्रीन हाउस में किया जाये।

जीएम सरसों का विरोध

देश में जीएम सरसों पर विगत 20 वर्षों से इसके पर्यावरण पर होने वाले कुप्रभाव की आशंकाओं को लेकर विरोध हो रहा है। सन् 2002 में भारत में इसके बीज को भारतीय किस्म वरुणा को पूर्वी यूरोप की किस्म अर्ली हीरा-2 से क्रासिंग एवं अनुवांशिक संरचना में परिवर्तन के द्धारा तैयार कर लिया गया था। सन् 2017 में भारत की जेनेटिक इंजीनियरिंग अप्रूवल कमेटी ने देश में इस जीएम सरसों की व्यावसायिक खेती करने की इजाजत दी थी। लेकिन सुप्रीम कोर्ट में इसके पर्यावरण खतरों की आशंका को लेकर पर्यावरणविदों द्वारा दायर याचिका के बाद मामला अदालत की तारीखों पर चलता चला गया, देश के कृषि अनुसंधान केंद्रों एवं सरकार ने भी तब से लेकर अब तक इससे पर्यावरण चिंता को लेकर न तो बहुत अधिक प्रयोग कराये और न ही इसके संबंध में देश के किसानों एवं जानकारों से राय लेने की कोशिश भी नहीं की गई है। बल्कि एक बार पुन: इसके पक्ष में यह कहकर व्यावसायिक अनुमति दे दी गई कि इस किस्म की खेती से देश में तिलहन का उत्पादन पहले के मुकाबले 30 फीसदी की बढ़ोतरी हो जायेगी।

सरकार का उतावलापन

यदि भारत में सरकार के इस मुद्दे पर उतावलेपन पर बात करें तो सन् 2020-21 में देश के खाद्य तेल की खपत में सरसों तेल की हिस्सेदारी 14.1 फीसदी की रही है। वर्ष 2021 में भारत सरकार ने अकेले पाम एवं सूरजमुखी के तेल आयात पर 19 अरब डालर की राशि खर्च की है। भारत दुनिया का सबसे बड़ा खाद्य तेल का आयातक है। भारत अर्जेंटीना, ब्राजील, इंडोनेशिया, रुस एवं यूक्रेन से अपनी आवश्यकता की आपूर्ति करता है। रुस-यूक्रेन युद्ध से भारत की चिंताएं बड़ी हंै। खाद्य महंगाई निरंतर बड़ रही है। यही कारण है कि केन्द्र सरकार पर्दे के पीछे रहकर इस विवादित मुद्दे पर बहुत अधिक परिणामों के जाने बगैर ही इसकी व्यावसायिक खेती को बढ़ावा देने में जल्दबाजी कर रही है।

सरसों का रकबा बढ़ा

देश के पंजाब, हरियाणा, राजस्थान, उप्र एवं मध्यप्रदेश के लगभग 7.5 मिलियन हेक्टेयर कृषि क्षेत्र में सरसों की खेती हो रही है। साथ ही इस फसल के फूलों के माध्यम से देश कुल शहद उत्पादन का 60 फीसदी सरसों फूलों से मधुमक्खियों के माध्यम से तैयार हो रहा है। जो कि उत्पादक किसानों को अतिरिक्त आय उपलब्ध कराता है। जलवायु परिवर्तन की वजह से विगत दो वर्षों से उत्तर भारत में समय पूर्व तेज गर्मी से गेहूं एवं दलहन का औसत उत्पादन घट रहा है। जिसके कारण इस क्षेत्र का किसान कम समय में आने वाली सरसों की फसल में रुचि लेने लगा है। चालू रबी सीजन में मप्र, राजस्थान एवं यूपी में सरसों के फसल रकबे में रिकॉर्ड वृद्धि दर्ज हुई है। भारत में प्रचलित बीजों के माध्यम से सरसों का उत्पादन प्रति हेक्टेयर 1000 से 1200 किलो माना गया है। जबकि वैश्विक उत्पादन जो कि अनुवांशिक बीजों से होता है, प्रति हेक्टेयर 2000 से 2200 किलोग्राम माना जाता है। भारत में मौसमी प्रतिकूलता के साथ सरसों फसल क्षेत्र में सिंचाई हेतु पानी की कम उपलब्धता भी है। देश का किसान पर्याप्त सिंचाई उपलब्धता एवं नई बीज किस्मों से अब प्रति हेक्टेयर 1800 किलो तक उत्पादन लेने लगा है। जिसमें उसकी उत्पादन लागत न्यूनतम है। क्योंकि इसमें खरपतवारनाशी का प्रयोग भारतीय किसान नहीं करता है। जबकि कीटनाशक का भी देश के किसान को फसल अवधि में एक दफा ही प्रयोग करना होता है। भारत में सरसों के बीज का न केवल खाद्य तेल में उपयोग होता है,बल्कि इसकी पत्तियों का सब्जी के साथ पशुचारे में बहुत अधिक प्रयोग होता है।  खरपतवारनाशियों का अत्यधिक प्रयोग खेतों में काम करने वाले मजदूरों एवं हरी फसलों का प्रयोग करने वाले इंसानों एवं जानवरों में स्वास्थ्य की समस्याएं खड़ी करेगा। विगत वर्षों में अकेले अमेरिका में बढ़ते खरपतवारनाशी के प्रयोग से अस्सी हजार किसान एवं मजदूर कैंसर रोग के शिकार हुये हंै। इसके लिये दोषी ग्लायफोसेट खरपतवारनाशी बनाने वाली कम्पनी राउंडअप के खिलाफ अमेरिकी अदालत में करोड़ों रुपये मुआवजे देने के फैसले सुनाए गये हैं।

उपजाऊ भूमि हो रही बंजर

मृदा जलसंरक्षण एवं अनुसंधान संस्थान देहरादून की पूर्व प्रकाशित एक अध्ययन रिपोर्ट में बताया गया है कि अत्याधिक कीटनाशकों, उर्वरकों एवं खरपतवारनाशी के प्रयोग से प्रतिवर्ष देश की 5334 लाख उपजाऊ मिट्टी नष्ट होकर बंजर भूमि में तब्दील हो रही है। जहरीले रसायनों के कुप्रभाव से देश की औसतन प्रति हेक्टेयर 16.4 टन मिट्टी जैविकता खो देती है। भारत सरकार एक तरफ शून्य बजट जैविक खेती की बात करती, मृदा स्वास्थ्य योजना की बात करती है तो दूसरी तरफ जीएम सरसों को पिछले दरवाजे से खेती की अनुमति देती है, जिसमें खरपतवारनाशियों का अंधाधुंध प्रयोग की भरपूर संभावना है।

किसानों की लागत बढ़ी

बीटी कॉटन के परिणाम देश के सामने है। सरकारी आकड़ों पर गौर करें तो बीटी कॉटन के प्रयोग से देश में कपास उत्पादन दस गुना बढ़ा है। लेकिन इसके विपरीत फसलों में उपयोगी कीटनाशकों, उर्वरकों एवं खरपतवारनाशकों के अत्यधिक प्रयोग से किसानों की उत्पादन लागत कई गुना बड़  गई है।

मधुमक्खियों की प्रजनन क्षमता पर असर

पर्यावरणविदों की यह चिंता गलत नहीं है कि खरपतवारनाशी का अत्यधिक प्रयोग का असर मधुमक्खियों की प्रजनन क्षमता पर पड़ेगा, अन्य फसल मित्र कीट-पंतगे जो अन्य फसलों के फूलों में परागण की मदद करते हंै, खरपतवारनाशी के प्रयोग इनके जीवन पर खतरा साबित होंगे। जिससे अन्य फसलों की उत्पादन क्षमता भी प्रभावित होगी। वर्ष 2002 में भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद आईसीएआर ने जीएम सरसों के बीज पैटर्न अर्जी यह कहकर खारिज की थी कि मैदानी परीक्षणों में फसल उत्पादन परिणाम बेहतर उत्पादन नहीं देते हंै। विकसित जीएम सरसों डीएमएच- 11 के उत्पादन आंकड़ों के मुकाबले भारतीय फसल बीज वरुणा के उत्पादन आंकड़े बेहतर रहे हंै। आज यदि डीएमएच-11 की बात करें तो यह अनुसंधान बीस साल पुराना हो चुका है। जबकि विकासशील देश डीएमएच- 4 का प्रयोग कर रहे हंै। भारत में उपयोग के चर्चारत अनुशंसित जीएम सरसों डीएमएच- 11 वैश्विक स्तर की आउट डेट्स हैं। जबकि पूर्णता स्वदेशी कृषि अनुसंधान केन्द्र में विकसित पूसा डबल जीरो 31 का उत्पादन 2200 किलो प्रति हेक्टेयर आ रहा है। ऐसे में सरकार को देश में जीएम सरसों की अनुमति के बजाय भारतीय विश्वविद्यालयों एवं अनुसंधान केन्द्र में विकसित पूर्णता स्वदेशी किस्मों को बढ़ावा देना चहिए।

  • (लेखक स्वतंत्र पत्रकार एंव कृषि मामलों के जानकार हैं)

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