गेहूं की गौ आधारित जैविक खेती
गेहूं की गौ आधारित जैविक खेती – जैविक खेती वह सदाबहार कृषि पद्धति है, जो पर्यावरण की शुद्धता, जल व वायु की शुद्धता, भूमि का प्राकृतिक स्वरूप बनाने वाली, जल धारण क्षमता बढ़ाने वाली, धैर्यशील कृत संकल्पित होते हुए रसायनों का उपयोग आवश्यकतानुसार कम से कम करते हुए कृषक को कम लागत से दीर्घकालीन स्थिर व अच्छी गुणवत्ता वाली पारम्परिक पद्धति है। गेहूं भारत की एक प्रमुख धान्य फसल है, जिसकी खेती भारत के करीब सभी राज्यों में की जाती है। जिसमें मुख्यत: अधिक उत्पादन राज्य के मैदानी क्षेत्रों में है। इसका मुख्य कारण यह है, कि मैदानी क्षेत्रों में गेहूं अधिकांशत: सिंचित और उपजाऊ भूमि में पैदा किया जाता है। वर्तमान में गेहूं की खेती भारत के कुछ क्षेत्रों में प्रचलित है जिसमें मध्य प्रदेश तथा पंजाब, हरियाणा प्रमुख हैं। मध्यप्रदेश क्षेत्र की प्राकृतिक जलवायु (गर्म व शुष्क) गेहूं के चमकदार, धब्बे रहित व मोटे दानों के उत्पादन के लिये उपयुक्त है। मध्य प्रदेश में गौ आधारित जैविक पद्धति से उगाये गये गेहूं में सेमोलिना की मात्रा अधिक होती है जिसका अधिक मूल्य मिलता है साथ ही इसके निर्यात की अधिक संभावनाएं हैं। जो वास्तव में इसके अंतरराष्ट्रीय बाजार में मूल्य निर्धारण में सहायक है।
भूमिका प्रकार एवं तैयारी : गेहूं की खेती हेतु पर्याप्त जलधारण क्षमता वाली दोमट, काली एवं बलुई दोमट भूमि उत्तम रहती है। अधिक रेतीली, क्षारीय एंव अम्लीय उपयुक्त नहीं रहती है। मध्य भारत में सोयाबीन-गेहूं व धान- गेहूं सर्वाधिक प्रचलित फसल चक्र है। सोयाबीन की कटाई एवं गेहूं की बुवाई में लम्बा अंतराल होता है। सोयाबीन की कटाई के बाद हल से जुताई करें। जहां ट्रैक्टर की सुविधा उपलब्ध है वहां पर 1या 2 बार हैरो या कल्टीवेटर से जुताई करके पाटा चलायें।
किस्मों का चयन : पौधे का वह भाग जिसमें भ्रूण अवस्थित है, जिसकी अंकुरण क्षमता, आनुवंशिक एवं भौतिक शुद्धता तथा नमी आदि मानकों के अनुरूप होने के साथ ही बीज जनित रोगों से मुक्त है। बीज फसल का वह अवयव है जिसमें जीवन सुसुप्तावस्था में सुरक्षित रहता है। बीज में अनुवांशिकी गुण क्षमता आगामी वर्ष में स्वस्थ पौधों को जन्म देने की प्रक्रिया में निहित होती है जिससे फसल का अच्छा विकास होता है। जिस प्रकार किसी भवन का भविष्य उसकी नींव पर होता है, ठीक इसी प्रकार अच्छा फसल उत्पादन बोये गये अच्छे बीज पर निर्भर करता है।
उन्नत एवं शुद्ध बीज द्वारा उत्पादित फसल में खरपतवार, कीटों एवं व्याधियों का प्रयोग न्यूनतम होता है। साथ ही उन्नत बीज में कीट व्याधियों के प्रतिनिरोधकता य सहनशीलता होती है। उन्नत बीज सेअधिक उपज प्राप्त होती है और अंतत: अधिक आर्थिक लाभ की प्राप्ति होती है। इसके विपरीत सस्ते और खराब गुण वाले बीजों को बोने से न तो अच्छा अंकुरण मिलता है और न ही अच्छी पैदावार। साथ ही किसानों द्वारा दिए जाने वाले खाद, पानी व खेत की तैयारी में की गई मेहनत भी बेकार चली जाती है। अत: अधिकतम कृषि उत्पादन प्राप्त करने हेतु केवल अच्छे बीजों का प्रयोग ही करें। जैविक कृषि में ऐसी किस्मों का चयन करें जो कि भूमि एवं जलवायु के अनुकूल हो। किस्मों के चयन में अनुवांशिक विविधता को ध्यान में रखें। जैविक कृषि में जैविक प्रमाणित बीजों का ही उपयोग करें।
बुवाई का समय : मध्य भारत में गेहूं की बुवाई का सर्वाधिक उचित समय 15 अक्टूबर से 15 नवंबर होता है।
बीज मात्रा : गेहूं की जैविक खेती के लिए बीज की मात्रा समय, मिट्टी में नमी, बुवाई की विधि एवं किस्मों के दानों पर निर्भर करती है। जल्दी और समय से बुवाई के लिए 100 से 125 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर बीज पर्याप्त होता है। देर से बुवाई में 125 से 130 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर बीज मात्रा ठीक रहती है।
जैविक बीजोपचार : वातावरण की नत्रजन के प्रभावशाली जैव यौगिकीकरण के लिये गेहूं के बीज को एजोटोबेक्टर कल्चर से उपचारित करते हैं। फास्फोरस विलयकारी जीवाणु (पीएसबी) कल्चर से बीज को उपचारित करके भूमि में फास्फोरस की उपलब्धता को बढ़ाया जा सकता है। प्रत्येक किलोग्राम बीज के लिए दोनों कल्चर का 10-10 ग्राम उपयोग किया जाये।
बुवाई की विधि : जैविक गेहूं की बुवाई छिटककर तथा पंक्ति में दोनों विधि से की जाती है। पंक्ति में बोने हेतु बैल चालित सीड ड्रिल अथवा ट्रैक्टर चालित सीड ड्रिल का प्रयोग करें। गेहूं की जैविक फसल के लिए बुवाई के समय खेत में नमी का होना आवश्यक है। बुवाई हल द्वारा कूड़ों में 4 से 5 सेंटीमीटर गहराई में करें। पंक्तियों की दूरी 19 से 23 सेंटीमीटर रखें। यदि बुवाई में देरी हो तो पंक्तियों की दूरी 15 से 20 सेंटीमीटर रखें, जिससे इकाई क्षेत्र में पौध संख्या बढ़ जाती है और देर से बुवाई द्वारा उपज में काफी हद तक कम हो जाता है।
निराई-गुड़ाई व खरपतवार रोकथाम : गेहूं की जैविक खेती के लिए खरपतवारों से फसल को मुक्त रखें, खरपतवार नियंत्रित करने हेतु गेहूं की फसल में दो बार निराई-गुड़ाई करना लाभप्रद होता है। प्रथम निराई-गुड़ाई बुवाई के 30 से 40 दिन बाद एवं दूसरी गुड़ाई फरवरी माह में आवश्यक हो जाती है, क्योंकि तापमान बढऩे पर फसल के साथ खरपतवारों की वृद्धि भी होती है।
फसल चक्र बदलने से वार्षिक खरपतवारों का नियंत्रण स्वत: ही हो जाता है। गुड़ाई हेतु परम्परागत यंत्रों की तुलना में उन्नत कृषि यंत्रों जैसे व्हील-हो, हैण्ड-हो इत्यादि से खरपतवारों का नियंत्रण प्रभावी रूप से होता है और परिश्रम भी कम करना पड़ता है। (क्रमश:)