किसान आंदोलन : केन्द्र सरकार के लिए परीक्षा की घड़ी
मधुकर पवार
15 फरवरी 2024, नई दिल्ली: किसान आंदोलन : केन्द्र सरकार के लिए परीक्षा की घड़ी – सन 2020 में 5 जून को केंद्र सरकार ने तीन नए कृषि कानून की अधिसूचना जारी की थी जिसके खिलाफ किसानों ने आंदोलन शुरू किया था। दिल्ली की सीमा पर नवंबर में शुरू हुआ धरना 11 दिसंबर 2021 को समाप्त हुआ था। इसके पहले 19 नवंबर 2021 को प्रधानमंत्री श्री नरेंद्र मोदी ने राष्ट्र के नाम अपने संबोधन के दौरान तीनों कृषि कानून को वापस लेने की घोषणा की थी । दिल्ली की सीमा पर 378 दिन शांतिपूर्ण चले इस आंदोलन के पीछे किसानों को डर था कि सरकार कहीं न्यूनतम समर्थन मूल्य और सरकारी खरीद की व्यवस्था को ही बंद न कर दे।
इसके अलावा किसान संगठनों को यह भी डर सता रहा था कि सरकार कृषि को निजी क्षेत्र को सौंपना चाहती है। किसानों से सीधे कृषि उपज को खरीदे जाने के प्रावधान से किसानों को यह लगने लगा था कि इससे मंडिया बंद हो सकती हैं । कृषि कानून को वापस लेने के बावजूद किसान न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) का कानून बनाने की मांग यथावत रही । लम्बे समय से की जा रही मांगों पर सरकार द्वारा कोई सकारात्मक पहल नहीं किये जाने से किसानों ने लोकसभा चुनाव के पहले फिर से आंदोलन शुरू कर केंद्र सरकार पर दबाव बनाना शुरू कर दिया है। । किसानों की प्रमुख मांगों में न्यूनतम समर्थन मूल्य का कानून बनाना, किसानों का कर्ज माफ करना, 60 वर्ष से अधिक आयु के किसानों को ₹10000 मासिक पेंशन, स्वामीनाथन आयोग की रिपोर्ट को लागू करना आदि शामिल हैं।
इस आंदोलन में सभी किसान संगठनों का समर्थन नहीं है लेकिन विपक्षी दलों को चुनाव के पहले एक बड़ा मुद्दा मिल गया है। कांग्रेस के पूर्व अध्यक्ष राहुल गांधी ने तो घोषणा कर दी है कि कांग्रेस न्यूनतम समर्थन मूल्य का कानून बनाएगी। आने वाले दिनों में चुनावी घोषणा पत्रों और रेलियों में न्यूनतम समर्थन मूल्य और स्वामीनाथन आयोग की रिपोर्ट को लागू करने जैसे वादे सुर्खियों में रहेंगे । इससे किसानों पर कितना प्रभाव पड़ेगा यह तो चुनाव परिणाम से ही पता चलेगा लेकिन केंद्र सरकार के लिए यह एक कठिन परीक्षा की घड़ी है। क्योंकि इस बार किसानों ने जो मांगे रखी हैं, उन्हें पूरी तरह मान लेना शायद किसी भी सरकार के लिए संभव नहीं होगा। न्यूनतम समर्थन मूल्य का कानून बनाने में क्या दिक्कत आ रही हैं, इन पर व्यापक रूप से विचार विमर्श करने की जरूरत है । इसके लिए एक आयोग या समिति का गठन करना होगा जिसमें किसान संगठनों के प्रतिनिधि भी शामिल किए जाएं। फिलहाल 23 कृषि उपज न्यूनतम समर्थन मूल्य के दायरे में है और किसान मांग कर रहे हैं कि समर्थन मूल्य पर सभी फसलों को शामिल किया जाए। एक बात यह भी ध्यान देने योग्य है कि फसलों की किस्म, गुणवत्ता, पोषक तत्व, लागत आदि से फसल की कीमतें तय होती हैं। यदि खराब गुणवत्ता की उपज को भी समर्थन मूल्य पर खरीदने की बाध्यता होगी तो यह सरकार के लिए असहज स्थिति हो सकती है।
सरकार द्वारा खरीदे जाने वाले खाद्यान्न राशन कार्ड धारी गरीबों को रियायती दरों पर दिया जाता है। इसके अलावा देश के करीब 80 करोड लोगों को भी 5 किलोग्राम प्रति माह खाद्यान्न दिया जा रहा है। न्यूनतम समर्थन मूल्य का कानून बनाए जाने से हो सकता है अधिकांश किसान वही फसल लगाएंगे जिनका उत्पादन अधिक होता है । इससे देश में खाद्यान्न की उपलब्धता में असमानता होने से जमाखोरी को बढ़ावा मिलेगा । आम उपभोक्ताओं को भी अधिक कीमत चुकानी पड़ सकती हैं। इसके अलावा गरीबों को रियायती और मुफ्त में दिये जाने वाले खाद्यान्नों की कमी का भी सामना करना पड़ सकता है। । जहां तक किसानों के कर्ज को माफ करने की बात है, इस पर भी व्यापक चिंतन करने की जरूरत है। यह देखा गया है कि देश के लघु और सीमांत किसानों की तुलना में बड़े किसानों पर अधिक कर्ज होता है। कर्ज का ब्याज माफ करना तो समझ में आता है लेकिन पूरा कर्ज माफ करने से ब्याज और मूल नहीं चुकाने की प्रवृत्ति को बढ़ावा मिल रहा है । इससे संपन्न और सक्षम किसान भी कर्ज नहीं चुकाते हैं, यह सोचकर कि सरकार तो कर्ज माफ कर ही देगी । कर्ज माफी के बजाय सरकार को बिजली, दवाई, बीज, कृषि यंत्र, खाद आदि पर और रियायत दें तो लागत में कमी आ सकती है। वर्तमान में लागत में अत्यधिक वृद्धि होने से किसानों को मुनाफा बहुत कम हो रहा है जिसके कारण कर्ज लगातार बढ़ रहा है ।
किसान 60 वर्ष से अधिक आयु होने पर ₹10000 प्रति माह पेंशन की भी मांग कर रहे हैं। देश में प्रधानमंत्री किसान सम्मान निधि योजना से हर साल 10 करोड़ से अधिक किसानों को ₹6000 तीन किस्तों में दिए जा रहे हैं। ₹10000 महीने पेंशन की मांग तो शायद किसी भी सरकार के लिए संभव नहीं होगा। हां पात्र किसानों को पेंशन दी जा सकती है लेकिन किसानों की मांग यहीं थम जाएगी, इस पर अभी कुछ नहीं कहा जा सकता। इस किसान आंदोलन से ऐसे अनेक सवाल सामने आ गए हैं जिनका त्वरित निराकरण करना जरूरी है। 2020 में किसान आंदोलन शांतिपूर्ण ढंग से संपर्क हो गया था लेकिन इस बार जैसे-जैसे समय बढ़ेगा, देश के अन्य किसान संगठन के इस आंदोलन से जुड़ने की आसार बढ़ेंगे । विपक्षी राजनीतिक दल भी आंदोलन को हवा देंगे जिससे देश में अराजकता का माहौल पैदा होने की आशंका है। केंद्र सरकार को बहुत ही संयम से काम लेना होगा और किसान संगठनों से निरंतर संवाद बनाये रखकर इसका जितने जल्दी हो सके स्थायी समाधान करने के प्रयास करने होंगे। क्योंकि संवाद और आपसी सहमति से ही कोई रास्ता निकलेगा। किसानों को भी उचित – अनुचित मांगों पर पुनर्विचार करना होगा । किसान और सरकार दोनों, एक दूसरे के स्थान पर अपने आप को रखकर देखें कि यदि हम उनके स्थान पर रहते तो क्या व्यावहारिक हल होता । संभव है कोई ना कोई बीच का रास्ता जरूर निकलेगा और अन्नदाता आंदोलन छोड़कर फिर से अपने खेतों की ओर रुख करेंगे।
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