Animal Husbandry (पशुपालन)

मछलियों की पालन योग्य कुछ प्रजातियां

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मछलियों की पालन योग्य कुछ प्रजातियां – प्राचीनकाल से ही जलजीवों (जंतु तथा पौधे) का जीवन उत्पादकता एवं बाहुल्यता की दृष्टि से महत्वपूर्ण योगदान रहा है। इसमें विभिन्न प्रकार के जलीय जंतु जैसे मछली, झींगा, सीप तथा जलीय पादप तथा सिंघाड़ा, मखाना आदि का हमारे जीवन में विशेष महत्व है। मछली पालन में मछली का तालाबों या बाड़ों में व्यावसायिक रूप से मछली पालन करना शामिल है। आमतौर पर भोजन के लिए मछली प्रोटीन की मांग बहुत बढ़ रही है। जिसके परिणामस्वरूप मत्स्य पालन में व्यापक रूप से वृद्धि हुई है। मछली स्वाभाविक रूप से नदियों एवं तालाबों के अंदर रहती है। मछली पालन करने हेतु मछली पालन की तकनीक, कौशल और मछली पालन के लिए उपयोग में आने वाले तालाबों की दिन-प्रतिदिन निगरानी का विशेष ज्ञान हो। मछली पालन वह साधन है जिसके द्वारा हम मछली पालते हैं। व्यावसायिक उद्देश्यों के लिए मत्स्य पालन हेतु कुछ महत्वपूर्ण बिंदु –

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कतला पालन

वैज्ञानिक नाम – कतला कतला
सामान्य नाम – कतला, भाखुर

कतला एक सबसे तेज बढऩे वाली मछली है यह गंगा नदीय तट की प्रमुख प्रजाति है। भारत में इसका फैलाव आंध्रप्रदेश की गोदावरी नदीं तथा कृष्णा व कावेरी नदियों तक है। भारत में मध्यप्रदेश में कतला के नाम से जानी जाती है।

पहचान के लक्षण : शरीर गहरा, उत्कृष्ट सिर, पेट की अपेक्षा पीठ पर अधिक उभार, सिर बड़ा, मुंह चौड़ा तथा ऊपर की ओर मुड़ा हुआ, पेट ओंठ, शरीर ऊपरी ओर से धूसर तथा पाश्र्व व पेट रूपहला तथा सुनहरा, पंख काले होते हैं।

भोजन : यह मुख्यत: जल के सतह से अपना भोजन प्राप्त करती है। जन्तु प्लवक इसका प्रमुख भोजन है। 10 मिली मीटर की कतला (फाई) केवल युनीसेलुलर, एलगी, प्रोटोजोअन, रोटीफर खाती है तथा 10 से 16.5 मिली मीटर की फ्राई मुख्य रूप से जन्तु प्लवक खाती है, लेकिन इसके भोजन में यदाकदा कीड़ों के लार्वे, सूक्ष्म शैवाल तथा जलीय धास पात एवं सड़ी गली वनस्पति के छाटे टुकड़ों का भी समावेश हाते हैं।

आकार : लंबाई .8 मीटर व वजन 60 किलो ग्राम।

परिपक्वता एवं प्रजनन : कतला मछली 3 वर्ष में लैगिकं परिपक्वता प्राप्त कर लेती है। मादा मछली में मार्च माह से तथा नर में अप्रैल माह से परिपक्वता प्रारंभ होकर जून माह तक पूर्ण परिपक्व हो जाते हैं।

अंडा जनन क्षमता : इसकी अण्ड जनन क्षमता 80,000 से 1,50,000 अण्डे प्रतिकिलो ग्राम होती है, सामान्यत: कतला मछली में 1.25 लाख प्रति किलो ग्राम अण्डे देने की क्षमता होती है। कतला के अण्डे गोलाकार, पारदर्शी हल्के लाल रंग के लगभग 2 से 2.5 मि.मी. व्यास के होते हैं।

आर्थिक महत्व : भारतीय प्रमुख शफर मछलियों में कतला मछली शीध्र बढऩे वाली मछली है, सघन मत्स्य पालन में इसका महत्वपूर्ण स्थान है, तथा प्रदेश के जलाशयों एवं छोटे तालाबों में पालने योग्य है। एक वर्ष के पालन में यह 1 से 1.5 किलोग्राम तक वजन की हो जाती है।

रोहू पालन

वैज्ञानिक नाम – लोबियो रोहिता
सामान्य नाम – रोहू

सर्वप्रथम सन् 1800 में हेमिल्टन ने इसकी खोज की। यह गंगा नदी की प्रमुख मछली होने के साथ ही सोन नदी में भी पायी जाती है। मीठे पानी की मछलियों में यह सबसे ज्यादा प्रसिद्ध है। व्यवसायिक दृष्टि में यह रोहू के नाम से जानी जाती है। इसकी प्रसिद्ध का कारण इसका स्वाद, पोषक मूल, आकार, देखने में सुन्दर तथा छोटे बड़े पोखरों में पालने हेतु इसकी आसान उपलब्धता है।

पहचान के लक्षण : शरीर सामान्य रूप से लंबा, पेट की अपेक्षा पीठ अधिक उभरी हुई, थूथन झुका हुआ जिसके ठीक नीचे मुंह स्थिति, आंखें बड़ी, मुंह छोटा, ओंठ झालरदार, अगल-बगल तथा नीचे का रंग नीला रूपहला, प्रजनन ऋतु में प्रत्येक शल्क पर लाल निशान, आंखें लालिमा लिए हुए, लाल-गुलाबी पंख, पृष्ठ पंख में 12 से 13 रेजं (काँटें) होते हैं।

भोजन : सतही क्षेत्र के नीचे जल के स्तंभ क्षेत्र में उपलब्ध जैविक पदार्थ तथा वनस्पतियों के टुकड़े आदि इसकी मुख्य भोजन सामग्री है। इसके जीवन की विभिन्न अवस्थाओं में योक समाप्त होने के बाद 5 से 13 मिलीमीटर लंबाई का लार्वा बहुत बारीक एक कोशिकीय, एल्गी खाता है तथा 10 से 15 मिली मीटर अवस्था पर क्रस्टेशियन, रोटिफर, प्रोटोजोन्स एवं 15 मिलीमीटर से ऊपर तन्तुदार शैवाल खाती है।

आकार : अधिकतम लम्बाई 1 मीटर तक तथा इसका वजन प्रथम वर्ष में लगभग 675 से 900 ग्राम, दूसरे वर्ष में 2 से 3 किलोग्राम, तृतीय वर्ष में 4 से 5 किलोग्राम तक होता है।

परिपक्वता एवं प्रजनन : यह दूसरे वर्ष के अंत तक लैंगिक परिपक्वता प्राप्त कर लेती है, वर्षा ऋतु इसका मुख्य प्रजनन काल है यह वर्ष में केवल एक बार जून से अगस्त माह में प्रजनन करती है।

अण्ड जनन क्षमता : इसकी अण्ड जनन की क्षमता प्रति किलो शरीर भार 2.25 लाख से 2.80 लाख तक होती है। इसके अण्डे गोल आकार के 1.5 मि.मी. व्यास के हल्के लाल रंग के न चिपकने वाले होते हैं।

आर्थिक महत्व : रोहू खाने में स्वादिष्ट होने के कारण खाने वालों को बहुत प्रिय है, भारतीय मेजर कार्प में रोहू सर्वाधिक बहुमूल्य मछलियों में से एक है, यह अन्य मछलियों के साथ रहने की आदी होने के कारण तालाबों एवं जलाशयों में पालने योग्य है, यह एक वर्ष की पालन अवधि में 500 ग्राम से 1 किलोग्राम तक वजन प्राप्त कर लेती है।

मृगल पालन

वैज्ञानिक नाम – सिरहिनस मृगाला
सामान्य नाम – मृगल, नैनी, नरेन आदि

यह भारतीय मेजर कार्प की तीसरी महत्वपूर्ण मीठे पानी में पाली जाने वाली मछली है। मध्यप्रदेश एवं छत्तीसगढ़ में इसे नरेन कहते हैं। मृगल गंगा नदी सिस्टम की नदियों एवं भारत की लगभग सभी नदियों, जलाशयों एवं तालाबों में पाली जाती है।

पहचान के लक्षण : अन्य भारतीय कार्प मछलियों की अपेक्षा लंबा शरीर, सिर छोटा, मुंह गोल, अंतिम छोर पर ओंठ पतले झालरहीन रंग चमकदार चांदी सा तथा कुछ लाली लिए हुए, एक जोड़ा रोस्ट्रल बार्वेल छोटे बच्चों की पूंछ पर डायमण्ड आकार का गहरा धब्बा, पेक्ट्रोरल, वेन्ट्रल एवं एनल पखों का रंग नारंगी जिसमें काले रंग की झलक, आखें सुनहरी होती हैं।

भोजन : यह एक तलवासी मछली है, तालाब की तली पर उपलब्ध जीव-जन्तुओं एवं वनस्पतियों का मलवा, शैवाल तथा कीचड़ इसका प्रमुख भोजन है। यह मिश्रित भोजी है।

आकार : लंबाई लगभग 99 सेमी तथा वजन 12.7 कि.ग्राम, सामान्यत: एक वर्ष में 500-800 ग्राम तक वजन की हो जाती हैं।

परिपक्वता एवं प्रजनन : मृगल एक वर्ष में लैंगिक परिपक्वता प्राप्त कर लेती है। इसका प्रजनन काल जुलाई से अगस्त तक रहता है। मादा की अपेक्षा नर अधिक समय तक परिपक्व बना रहता है यह प्राकृतिक नदी वातावरण में वर्षा ऋतु में प्रजनन करती है।

अण्ड जनन क्षमता : यह मछली प्रति किलो शरीर भार के अनुपात में लगभग 1.25 से 1.50 लाख अण्डे देती है। मृगल के अण्डे 1.5 मिली मीटर व्यास के पारदर्शी भूरे रंग के होते हैं।

आर्थिक महत्व : मृगल मछली भोजन की आदतों में कामन कार्प से कुछ मात्रा में प्रतियोगिता करती है, किन्तु साथ रहने का गुण होने से सघन पालन में अपना एक अलग स्थान रखती है। प्रमुख कार्प मछलियों की तरह यह भी बाजारों में अच्छे मूल्य पर विक्रय की जाती है।

कॉमन कार्प पालन

वैज्ञानिक नाम – साइप्रिनस कार्पियो
सामान्य नाम – कामन कार्प, सामान्य सफर, अमेरिकन रोहू

कॉमन कार्प मछली मूलत : चीन देश की है। भारत वर्ष में कॉमन कार्प का प्रथम पदार्पण मिरर कार्प उपजाति के रूप में सन् 1930 में हुआ था इस मछली को भारत में लाने का उद्देश्य ऐसे क्षेत्र जहां तापक्रम बहुत निम्न होता है, वहां भोजन के लिए खाने योग्य मछली की वृद्धि के लिए लाया गया था। कॉमन कार्प की दूसरी उपजाति स्केल कार्प भारत वर्ष में पहली बार सन् 1957 में लाई गई।

पहचान के लक्षण : शरीर सामान्य रूप से गठित, मुंह बाहर तक आने वाला सफर के समान, सूंघों (टेंटेकल) की एक जोड़ी विभिन्न क्षेत्रों में वहां की भौगोलिक परिस्थितियों के आधार पर इसकी शारीरिक बनावट में थोड़ा अंतर आ गया है, अत: विश्व के विभिन्न क्षेत्रों में यह एशियन कार्प, जर्मन कार्प, यूरोपियन कार्प आदि के नाम से विख्यात है।

कॉमनकार्प की 3 उपजातियाँ उपलब्ध हैं –

  • स्केल कार्प (साइप्रिनस कारपियोबार कम्युनिस) इसके शरीर पर शल्कों की सजावट नियमित होती है।
  • मिरर कार्प (साइप्रिनस कारपियोबार स्पेक्युलेरिस) इसके शरीर पर शल्कों की सजावट थोड़ी अनियमित होती है तथा शल्कों का आकार कहीं बड़ा व कहीं छोटा तथा चमकीला होता है।
  • लेदर कार्प (साइप्रिनस कारपियोबार न्युडुस) इसके शरीर पर शल्क नहीं होते हैं अर्थात् इसका शरीर एकदम चिकना होता है।

भोजन : यह एक सर्वभक्षी मछली है। यह मछली पानी की निचली सतह से भोजन लेती है और बचे-खुचे जैविक पदार्थ एवं मलबों का भक्षण करती हैं। फ्राय अवस्था में यह मुख्य रूप से प्लैंक्टान खाती है।

आकार : भारत वर्ष में इसकी अधिकतम साईज 10 किलोग्राम तक देखी गई है।

परिपक्वता एवं प्रजनन : गर्म प्रदेशों में 3 से 6 माह में ही लैगिंक परिपक्वता प्राप्त कर लेती है। यह मछली बंधे हुए पानी जैसे- तालाबों, कुंडों आदि में सुगमता से प्रजनन करती है। हालांकि यह मुख्य रूप से वर्ष में दो बार क्रमश: जनवरी से मार्च में एवं जुलाई से अगस्त में प्रजनन करती है, कॉमन कार्प मछली अपने अण्डे मुख्यत: जलीय पौधों आदि पर देती हैं, इसके अण्डे चिपकने वाले होने के कारण जल में पौधों की पत्तियों, जड़ों आदि से चिपक जाते हैं, अण्डों का रंग मटमैला पीला सा होता है।

अण्ड जनन क्षमता : कॉमन कार्प मछलियों की अण्डजनन क्षमता प्रति किलो भार अनुसार 1 से 1.5 लाख तक होती है, प्रजनन काल के लगभग एक माह पूर्व नर मादा को अलग-अलग रखने से वे प्रजनन के लिए ज्यादा प्रेरित होते हैं, सीमित क्षेत्र में हापा में प्रजनन कराने हेतु लंबे समय तक पृथक रखने के बाद एक साथ रखना प्रजनन के लिए काफी प्रेरित करता है, अण्डे संग्रहण के लिए ऐसे हापों तथा तालाबों में हाइड्रीला जलीय पौधों अथवा नारियल की जटाओं का उपयोग किया जाता है। कॉमन कार्प मछलियों में निषेचन, बाहरी होता है, अण्डों के हेचिंग की अवधि पानी के तापक्रम पर निर्भर करती है, लगभग 2-6 दिन हेचिंग में लग जाते हैं। तापक्रम अधिक हो तो 36 घंटों में ही हेचिंग हो जाती है। 5 से 10 मिलीमीटर फ्राय प्राय: जंतु प्लवक को अपना भोजन बनाती है तथा 10-20 मिलीमीटर फ्राय साइक्लोप्स, रोटीफर आदि खाती हैं।

आर्थिक महत्व : कॉमन कार्प मछली जल में घुलित ऑक्सीजन का निम्न तथा कार्बन डाईऑक्साईड की उच्च सान्द्रता अन्य कार्प मछलियों की अपेक्षा बेहतर झेल सकती है, और इसलिए मत्स्य पालन के लिए यह एक अत्यन्त ही लोकप्रिय प्रजाति है। यह आसानी से प्रजनन करती है इसलिए मत्स्य बीज की पूर्ति में विशेष महत्व है। कॉमन कार्प मछलियाँ पिजंरा पालन के लिए भी उपयुक्त हैं। मौसमी तालाबों हेतु यह उपयुक्त मछली है। परन्तु गहरे बारहमासी तालाबों में कठिनाई तथा नित प्रजनन के कारण अन्य मछलियों की भी बाढ़ प्रभावित होने के कारण इसका संचय करना उपयुक्त नहीं माना जाता है

मछली पालन व्यवसाय के लाभ:

  • मछली पालन व्यवसाय में, कम समय में ज्यादा लाभ प्राप्त कर सकते हैं क्योंकि मछली सबसे तेजी से बढ़ते हुए खाद्य पदार्थों में से है।
  • मछली पालन व्यवसाय आर्थिक क्षेत्र में एक अच्छा रोजगार प्रदान करने में मुख्य भूमिका निभाता है।
  • तेजी से बढऩे वाली मछली की विभिन्न प्रकार की प्रजातियाँ, जो आसानी से उपलब्ध हो जाती हैं, के लिए निवेश करने पर अच्छा लाभ मिल सकता है।
  • मछली पालन व्यवसाय के लिए कोई डिग्री या शिक्षा योग्यता की आवश्यकता नहीं है।
  • भारत में मौसम की स्थिति मछली पालन व्यवसाय के लिए काफी उपयुक्त है।
  • एकीकृत मछली पालन व्यवसाय से भी अधिक से अधिक लाभ प्राप्त कर सकते हैं।
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