जैविक खेती और रसायन मुक्त खेती का द्वंद्व
- (सुनील गंगराड़े)
28 फरवरी 2022, भोपाल । जैविक खेती और रसायन मुक्त खेती का द्वंद्व – गत अनेक वर्षों से केन्द्र सरकार और विभिन्न राज्यों की सरकारें भी केन्द्र के सुर में सुर मिलाती हुई जैविक खेती को बढ़ावा देने के लिए जुटी हुई हैं। केन्द्र में कृषि मंत्रालय की अलग-अलग योजनाओं और इनके लिए गठित विभिन्न मिशनों के माध्यम से रसायन मुक्त खेती के रूप में शंखनाद हो गया है। प्रधानमंत्री श्री नरेन्द्र मोदी अनेक अवसरों पर मंचों पर, मन की बात के जरिए जैविक खेती की वकालत करते हैं। जाहिर है कि राज्य सरकारें भी उनका अनुसरण करेंगी। परन्तु जैविक खेती के माध्यम से फसल उत्पादकता और किसान की आमदनी कितनी बढ़ेगी, इस बिन्दु पर सबको संशय है और इस पर तर्क-वितर्क इन योजनाओं के लागू होने से पूर्व से ही जारी है।
कृषि क्षेत्र में देश की शीर्ष अनुसंधान संस्था भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद के वैज्ञानिकों की विशेषज्ञ कमेटी का भी मानना है कि अगर भारत के किसानों ने बड़े पैमाने पर जैविक खेती की ओर रुख किया तो भारत की खाद्य सुरक्षा डावांडोल हो जाएगी। देश में लगभग 80 करोड़ लोग सरकार की अनाज सब्सिडी पर अवलंबित हैं।
वहीं कृषि मंत्रालय का भी ये मानना है कि जैविक खेती पर शोध अध्ययनों से संकेत मिलता है कि पारंपरिक याने रसायनिक आदानों के साथ की गई खेती की तुलना में जैविक खेती की थोड़ी अधिक ही उपज खरीफ फसलों में 2 से 3 वर्षों में मिल सकती है। और यदि रबी फसलों में जैविक खेती के प्रयोग करें तो नीचे जाती उपज 5 वर्ष बाद स्थिर हो सकती है या यूं कहें कम होने के बाद एक लेवल पर स्थिर हो सकती है। केन्द्र और राज्य की इन सारी कोशिशों का परिणाम फिलहाल नहीं दिख रहा है। दूसरी ओर खेती की लागत दिनों-दिन बढ़ती जा रही है।
अनाज सब्सिडी के बाद भारत सरकार द्वारा सबसे अधिक सब्सिडी फर्टिलाईजर पर दी जाती है। यूरिया, फास्फेटिक एवं पोटेशिक फर्टिलाईजर पर 1 लाख करोड़ रुपये से अधिक की सब्सिडी भारत सरकार द्वारा दी जाती है। इसके साथ ही यूरिया आयात भी गत 3 वर्षों में 25 प्रतिशत तक बढ़ गया है। वर्ष 2018-19 में 75 लाख टन यूरिया आयात होता था, अब भारतीय किसानों की अतिरिक्त मांग पूरा करने के लिए 1 करोड़ टन तक पहुंच गया है।
कृषि मंत्रालय भारत सरकार की एक रिपोर्ट के मुताबिक देश में एनपीके खपत वर्ष 2020 में 133.44 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर रहा जो 20 वर्ष पूर्व सन् 2001 में केवल 86.71 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर था। कृषि वैज्ञानिकों के अनुसार विपुल उत्पादन देने वाली खाद खाऊ, पानी पियूं संकर किस्मों के प्रचलन में होने से रसायनिक आदान के प्रयोग में भी वृद्धि हुई है। मर्ज बढ़ता गया, ज्यों-ज्यों दवा की, पंक्तियां खेती को रसायन मुक्त करने की कवायद पर सटीक बैठती हंै।
पुन: हम जैविक खेती के प्रयासों की बात करें तो कृषि मंत्रालय की परम्परागत कृषि विकास योजना की उपयोजना के रूप में भारतीय प्राकृतिक कृषि पद्धति (बीपीकेपी) को पारंपरिक स्वदेशी प्रणालियों को बढ़ावा देने के लिए शुरू किया गया है। कृषि मंत्रालय की प्राकृतिक कृषि पद्धति योजना मुख्य रूप से सभी कृत्रिम एवं रसायनिक आदानों का उपयोग नहीं करने पर जोर देती है। साथ ही बायोमास मल्चिंग, गाय के गोबर-मूत्र सूत्रीकरण और ऑनफार्म बायोमास रीसायक्लिंग को बढ़ावा देती है। योजना में 8 राज्यों को कवर किया जाएगा परन्तु केवल 50 करोड़ रुपए से कुछ कम राशि इस काम के लिए जारी की गई है। प्रधानमंत्री के महत्वाकांक्षी कार्यक्रम के लिए ऊंट के मुंह में जीरा वाली इतनी अल्प राशि के आवंटन से अब आप स्वयं अंदाजा लगा सकते हैं कि रसायन मुक्त खेती का मुकाबला किन सशक्त खिलाडिय़ों से है।
महत्वपूर्ण खबर: जीरो बजट प्राकृतिक खेती- जानिए क्या हैं खास बातें