Editorial (संपादकीय)

ग्वार के हानिकारक कीट एवं प्रबंधन

Share

ग्वार का वैज्ञानिक नाम ‘सायामोटिसस टेट्रागोनोलोबा’ है। इसे मध्य प्रदेश में चतरफली के नाम से भी जाना जाता है। ग्वार का शाब्दिक अर्थ गऊ आहार होता है। अर्थात् प्राचीन काल में इस फसल की उपयोगिता चारा मात्र में ही थी, परन्तु वर्तमान में बदली परिस्थितियों में यह एक अति महत्वपूर्ण औद्योगिक फसल बन गई है।

ग्वार का अधिकतर उपयोग जानवरों के चारे के रूप में भी होता है। पशुओं को ग्वार खिलाने से उनमें ताकत आती है तथा दुधारू पशुओं की दूध देने की क्षमता में बढ़ोतरी होती है।

ग्वारफली स्वाद में मीठी एवं फीकी हो सकती है। यह पाचन में भारी होती है। यह शीतल प्रकृति की और ठंडक देने वाली है अत: इसके ज्यादा सेवन से कफ की शिकायत हो सकती है। परंतु ग्वार शुष्क क्षेत्रों के लिए एक पौष्टिक एवं स्वादिष्ट भोजन है। ग्वार से गोंद का निर्माण भी किया जाता है।

‘ग्वार गम’ का उपयोग अनेक उत्पादों में होता है। ग्वारफली से स्वादिष्ट तरकारी बनाई जाती है। ग्वारफली को आलू के साथ प्याज में छोंक लगाकर खाने पर यह बहुत स्वादिष्ट लगती है तथा अन्य सब्जियों के साथ मिलाकर भी बनाया जाता है जैसे दाल में, सूप बनाने में पुलाव इत्यादि में। इस पौधे के बीज में ग्लैक्टोमेनन नामक गोंद प्राप्त होता है। ग्वार से प्राप्त गम का उपयोग दूध से बने पदार्थों जैसे आईसक्रीम, पनीर आदि में किया जाता है।

इसके साथ ही अन्य कई व्यंजनों में भी इसका प्रयोग किया जाता है। ग्वार के बीजों से बनाया जाने वाला पेस्ट भोजन, औषधीय उपयोग के साथ ही अनेक उपयोगों में भी काम आता है। ग्वारफली मधुमेह के रोगी के लिए भी लाभदायक है। यह शुगर के स्तर को नियंत्रित करती है, पित्त को खत्म करने वाली है। ग्वारफली की सब्जी खाने से रतौंधी का रोग दूर हो जाता है ग्वारफली को पीसकर पानी के साथ मिलाकर मोच या चोट वाली जगह पर इस लेप को लगाने से आराम मिलता है।

ग्वार में अनेक प्रकार के कीटों का प्रकोप होता है। अत: किसान भाईयों को यह जानना आवश्यक है कि ग्वार में लगने वाले विभिन्न कीटों से हानि किस प्रकार होती है एवं उनका प्रंबधन कैसे किया जाए।

एफिड (चेपा या माहू) – पोषक पौधों की जड़ों को छोड़कर शेष सभी भागों का रस चूसकर हानि पहुंचाते हैं। ग्रसित पत्तियां मुड़ जाती है और पौधे कमजोर और रोगी दिखाई देते हैं। ग्रसित फलियों में कमजोर और सिकुड़े हुए बीज बनते हैं। ग्वार की शीघ्र पकने वाली तथा एफिड रोधी किस्मों का चयन करें। इमिडाक्लोप्रिड 17.8 एसएल 5 मिली/15 ली. या डायमेथ 30 ईसी 1.0 मिली प्रति लीटर में घोल बना कर छिड़काव करें।

लीफ हॉपर (जैसिड) – ग्रसित पत्तियां किनारों से पीली पडऩा प्रारंभ होती हंै तथा बाद में पूरी पत्ती पीली पड़कर सूख जाती है और सिकुड़ कर पीछे की ओर मुड़ जाती है। अधिक प्रकोप से ग्रसित पौंधों की बढ़वार रूक जाती है।

यदि एक पत्ती पर एक से अधिक निम्फ हों तो इमिडाक्लोप्रिड 17.8 एसएल 5 मिली/ 15 ली. पानी की दर से छिड़काव करें।

सफेद मक्खी – यह रस चूसक कीट है एवं मधु उत्सर्जित करता है जिस पर काली फफूंद विकसित हो जाती है। इस फफूंद के काले धब्बे पत्तियों के निम्न तल पर दिखाई पड़ते हैं। ग्रसित पोधों कि पत्तियां कमजोर और पीली पड़ जाती हैं। पौधे छोटे रह जाते हंै। फसल पर ट्राइजोफॉस 40 ईसी 2.0 मिली/ली. या डायमेथ 30 ईसी 1.0 मिली/ली. पानी में घोल बना कर छिड़काव करेें।

फली छेदक – ग्रसित फलियों के दाने खराब हो जाते है। यह फलियों को अधिक नुकसान करता है।

क्विनालफॉस 25 ईसी 1.5 मिली प्रति लीटर या प्रोफेनोफॉस 50 ईसी 1.5 मिली प्रति लीटर या इंडक्साकार्ब 1 मिली प्रति लीटर पानी में घोल  बना कर पौधों पर छिड़काव कर इस कीटों पर नियंत्रण पाया जा सकता है।

पत्ती छेदक- क्विनालफॉस 25 ईसी 1.5 मिली प्रति लीटर या प्रोफेनोफॉस 50 ईसी 1.5 मिली प्रति लीटर या डायमिथिएट 30 ईसी 1.0 मिली/ लीटर पानी में घोल का छिड़काव कर कीट पर नियंत्रण पाया जा सकता है।

सुझाव 

कीटनाशकों को हमें अंतिम विकल्प के रुप में ही चुनना चाहिये।

  • यदि कीटनाशकों का उपयोग करना ही पड़े तो एक बार में एक ही कीटनाशी का प्रयोग करें।
  • हमेशा बदल-बदल कर कीटनाशी का उपयोग फायदेमन्द होता है। क्योंकि किसी एक कीटनाशी के प्रति कीटों में प्रतिरोध क्षमता विकसित नहीं हो पाती है।
  • भुरकाव नंगे हाथों से न करें।
  • कृषि अधिकरियों व वैज्ञानिक से परामर्श करके अपनी समस्याओं का समाधन करें।
  • राष्ट्रीय स्तर पर किसान कॉल सेंटर की मुफ्त सेवा का फायदा अवश्य लें।

फली बीटल (पिस्सू भृंग)- इसकी इल्लियां साधारणतया भूमि में रहकर जड़ को खाती हैं। बीजपत्रों और छोटे पौधे की पत्तियों को छेदकर खाता है। फसल की बढ़वार घट जाती है। फसल पर 5 प्रतिशत फॉलीडाल चूर्ण 28 किग्रा प्रति हेक्टेयर की दर से भुरकाव करना चाहिए। 10 प्रतिशत सेविन चूर्ण का भुरकाव करने पर इस कीट की हानि को रोका जा सकता है।

खरीफ का टिड्डा – शिशु प्रारंभ में कोमल छोटी पत्तियों तथा तनों को काट कर खाते हैं। अत्यधिक प्रकोप की स्थिति में पौधों की वृद्धि रूक जाती है तथा ग्रसित पौधों में छोटी फलियां  लगती हैं। क्विनॉलफॉस 1.5 प्रतिशत चूर्ण या मिथाईल पैराथियान 2 प्रतिशत चूर्ण 25 किग्रा/हेक्टेयर की दर से भुरकाव करें।

  • पुष्पलता डावर
  • योगिता डावर 
  • भरतलाल 

(कीटशास्त्र विभाग)
रा.वि.सि.कृ.वि.वि. कृषि महाविद्यालय, ग्वालियर (म.प्र.)
chhotidawar97@gmail.com

Share
Advertisements

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *