Crop Cultivation (फसल की खेती)

सोयाबीन में कीट प्रबंधन

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17 अगस्त 2021, इंदौर सोयाबीन में कीट प्रबंधन Amarnath-sharma1

गत दिनों कृषक जगत द्वारा सोयाबीन में समेकित कीट प्रबंधन (खरीफ 2021) विषय पर वेबिनार आयोजित किया गया, जिसके प्रमुख वक्ता डॉ. अमरनाथ शर्मा, सेवानिवृत्त प्रधान वैज्ञानिक (कीट विज्ञान), भारतीय सोयाबीन अनुसंधान संस्थान इंदौर थे। डॉ. शर्मा ने किसानों को सोयाबीन में लगने वाले कीटों की जानकारी दी और उनसे बचने के उपाय भी बताए। इस वेबिनार में बड़ी संख्या में किसान शामिल हुए और उन्होंने अपनी सोयाबीन फसल से संबंधित समस्याओं पर सवाल पूछे जिनका डॉ. शर्मा द्वारा समाधान किया गया। कृषि ज्ञान प्रतियोगिता में खंडवा जिले के श्री प्रताप सिंह चौहान विजेता रहे, उन्हें ‘सोयाबीन अनुसन्धान तकनीक’ पुस्तक पुरस्कार स्वरूप भेजी गई। कार्यक्रम का संचालन कृषक जगत के संचालक श्री सचिन बोन्द्रिया ने किया।
कीट विज्ञानी डॉ. अमरनाथ शर्मा ने सोयाबीन में कीट प्रबंधन विषय पर पॉवर पॉइंट प्रजेंटेशन के माध्यम से समझाते हुए सोयाबीन में लगने वाले कीटों और इल्लियों की जानकारी देते हुए पत्ती खाने वाले सेमीलूपर (चित्र 1), तम्बाकू की इल्ली (चित्र 2), गर्डल बीटल (चित्र 3), तना मक्खी (चित्र 4), चने की फली छेदक (चित्र 5), सफ़ेद मक्खी (चित्र 6) और सफ़ेद सूंडी (चित्र 7) आदि कीटों की विस्तार से जानकारी दी। आपने कहा कि किसी भी फसल में कीट प्रबंधन की किसी एक विधि पर निर्भर नहीं रहा जा सकता है, इसलिए समेकित कीट प्रबंधन जरुरी है। किसी भी फसल के दो मूल मंत्र हैं कीटों की सही पहचान और सही समय पर सही उपचार। ऐसा करने से भरपूर उत्पादन लिया जा सकता है। इसके लिए आपने चित्रों के माध्यम से कीटों और चूहों द्वारा काटी गई फसल में अंतर और इल्लियों की पहचान का महत्व बताया ।

समेकित कीट प्रबंधन

समेकित कीट प्रबंधन (आईपीएम) को स्पष्ट करते हुए डॉ. शर्मा ने कहा कि इसके माध्यम से कीटों की संख्या को नियंत्रित किया जा सकता है, लेकिन पूरी तरह नष्ट नहीं किया जा सकता है। कीटों की संख्या को इस तरह कम करना है कि फसल को आर्थिक नुकसान न हो। आईपीएम सभी फसलों में किसानों द्वारा नहीं अपनाया जाता है, इसके प्रति किसानों में जागरूकता और जानकारी का भी अभाव है। इसका कारण रासायनिक कीटनाशकों की सुगमता से उपलब्धता होना है। जैव नियंत्रण उपायों की मांग कम होने से यह प्राय: बाजार में नहीं मिलते। यदि किसान मांग करेंगे तो दुकानदार इन्हें भी रखने लगेंगे।

विभिन्न किस्में लगाएं

कीट प्रकोप से बचने के लिए पहले से उपाय करना चाहिए। गर्मी में गहरी जुताई के साथ ही उचित और अनुशंसित किस्मों का चयन करें। अलग-अलग अवधि में पकने वाली किस्में लगाएं। फसलों का संतुलित पोषण करें।

बीज दर

प्राय: देखा गया है कि किसान जरूरत से ज्यादा बीज का इस्तेमाल करते हैं। जितना ज्यादा बीज लगाएंगे फसल उतनी घनी होगी इससे कीट और बीमारियां ज्यादा लगेंगी। अत: उचित बीज दर रखें। छोटे आकार का बीज 50-55 किलो/हेक्टेयर और बड़े आकार का बीज 80-85 किलो/हेक्टेयर पर्याप्त है। ज्यादा बीज में लागत भी ज्यादा होती है।

लाइट ट्रेप का प्रयोग

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डॉ. शर्मा ने कहा कि सोयाबीन में हानिकारक कीटों की अपेक्षा मित्र कीटों की संख्या ज्यादा होती है। जिनसे शत्रु कीटों को बड़ी संख्या में कम किया जा सकता है। कीटनाशकों का छिडक़ाव अंतिम विकल्प है। कीटों को नियंत्रित करने के लिए आपने संशोधित नए लाइट ट्रेप लगाने का सुझाव दिया (चित्र 12), जिसकी बॉडी पीवीसी की होने के साथ ही इसका बल्ब कठोर कांच का होने से वर्षा के पानी में भी नहीं फूटता। इसमें 5 मिमी वाले छोटे छेदों से ट्राईकोग्रामा जैसे मित्र कीट निकल कर शत्रु कीटों को खाकर फसल की रक्षा करते हैं।

 

फेरोमेन ट्रेप

तम्बाकू की इल्ली और चने की इल्ली के ट्रेप अलग-अलग होते हैं (चित्र 13)। इनके प्रयोग से पहले कुछ सावधानियां भी रखना चाहिए। जैसे पैकिंग से खोलने के बाद फेरोमेन कैप्सूल को खुले हाथों से न छुएं, क्योंकि हाथ के पसीने की गंध से इसकी गंध कम हो जाती है और कीट आकर्षित नहीं होते। प्लास्टिक की थैली में जहां कीट एकत्रित होते हैं उसके नीचे वाले हिस्से में छेद कर दें, ताकि उसमें पानी भरने के कारण वह बार-बार न गिरे। एक हेक्टेयर में 20-30 फेरोमेन ट्रैप्स पर्याप्त हैं।

 

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प्राकृतिक नियंत्रण

दूसरा उपाय बर्ड-पर्च लगाएं। इस पर चिडिय़ाँ बैठकर इन कीटों को खाएगी। चिडिय़ा एक घंटे में 40-50 कीट खाती है। बर्ड-पर्च लगने से कीटों के खाने के मामले में 20 प्रतिशत तक की वृद्धि हो जाती है। एक हेक्टेयर में 15-20 बर्ड पर्च पर्याप्त है। बर्ड-पर्च न हो तो चिडिय़ाँ के बैठने के लिए फसल से दो फीट ऊंचाई पर थोड़ी-थोड़ी दूरी पर ‘ञ्ज’ के आकार में आड़ी लकडिय़ां लगा दें। इससे भी कीटों का प्राकृतिक नियंत्रण हो जाएगा।

प्रारम्भिक सावधानियां

खेतों की निगरानी करते रहें। यदि शुरुआत में कीट ग्रस्त पौधे दिखें तो ऐसे पौधों को तुरंत खेत से बाहर कर दें। तम्बाकू की इल्ली और बिहार की रोयेंदार इल्ली की मादा 200-300 के झुण्ड में अंडे देती है जिसमें से निकली इल्लियाँ पत्तियों का क्लोरोफिल खुरच-खुरच कर खा जाती हैं (चित्र 14)। बाद में यही इल्लियाँ पूरे खेत में फैल कर फसल को नुकसान पहुंचती हैं। गर्डल बीटल का वयस्क चक्र बनाता है। पानी एवं पोषक तत्व नहीं पहुँचने से पत्तियां लटक जाती हंै और फिर सूख जाती हैं। इसकी इल्ली तने को खोखला करते हुए जमीन से थोड़ा ऊपर से काट कर उसे नीचे गिरा देती है (चित्र 15, 16)। समय रहते उपाय करें। कुछ खरपतवारनाशक के साथ कीटनाशक का भी प्रयोग करने से खरपतवार और इल्लियों का अच्छा नियंत्रण हो जाता है। फूल आने की अवस्था में सेमीलूपर और तम्बाकू की इल्ली फूलों को खा जाती है, इसी कारण सोयाबीन में अफलन की समस्या हो जाती है। कीटों को प्रारंभिक अवस्था में ही नियंत्रित करने के लिए सूक्ष्म जीव आधारित जैविक कीटनाशक बहुत उपयोगी होते हैं, जो तीन तरह के होते हैं – बैक्टेरिया, वायरस और फफूंद आधारित। वायरस आधारित (एनपीवी) तम्बाकू की इल्ली और चने की फली छेदक इल्ली के लिए अलग-अलग होते हैं। इनको प्रारम्भिक अवस्था में नियंत्रित कर लिया जाए तो रासायनिक कीटनाशकों पर निर्भरता कम हो जाती है।

कीटनाशक प्रयोग में सावधानियां

कीटनाशकों के प्रयोग से पहले कुछ सावधानियां रखनी जरूरी है, क्योंकि इस सम्बन्ध में एफएओ की ओर से विस्तृत अनुशंसाएं की गईं हैं। हमारे देश में भी पौध संरक्षण दवाओं का निर्माण, विक्रय एवं उपयोग ‘कीटनाशक अधिनियम 1968’ किया जाता है। अनुमोदित कीटनाशक ही खरीदें, अवसान की तिथि और बैच नंबर देखें, दुकानदार से पक्का बिल अवश्य लें। कीटनाशक और पानी की अनुशंसित मात्रा का ही प्रयोग करें। स्प्रे तभी करें जब 3-4 घंटे वर्षा की सम्भावना नहीं हो। छिडक़ाव के बाद खाली डिब्बों को नष्ट कर दें। हाथ, पैर और मुंह को खेत में ही अच्छी तरह धो लें। किसी भी प्रकार का दुष्प्रभाव महसूस करने पर तुरंत डॉक्टर से सम्पर्क करें।

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यलो स्टिकी

सफ़ेद मक्खी और माहू के प्रबंधन के लिए यलो स्टिकी ट्रैप लगाएं। इसकी ओर आकर्षित होकर कीट इस पर चिपक जाते हैं। एक बीघा में 6-7 यलो स्टिकी पर्याप्त है, लेकिन ध्यान रखें कि जिस दिशा में हवा का रुख हो उधर पीला वाला हिस्सा रखें।

किसानों की समस्याएं

श्री जितेन्द्र शर्मा (उज्जैन)- जैविक कीटनाशकों की जानकारी, जिससे फसल की कीट प्रतिरोधी क्षमता बढ़ जाए। समाधान- कई ऐसी वनस्पतियां हैं, जिनका अर्क बनाया जाता है। बबूल के बीज/धतूरे की पत्ती को रात भर भिगोकर रखें। फिर पानी मिलाकर छानकर फसल पर डालें। इल्लियों की प्रारम्भिक अवस्था में इनका प्रभाव बहुत अच्छा होता है। श्री प्रताप सिंह चौहान (खंडवा)- सिंथेटिक पायरेथ्राइड ग्रुप के कीटनाशक नहीं डालना चाहिए। ये कौन कौन से हैं ? डॉ. शर्मा ने कहा सायपरमेथ्रिन, डेल्टामेथ्रिन और फेनवेलरेट यह पुरानी पीढ़ी के थे जो खत्म हो गए। लेम्बडा सायहेलोथ्रिन और बीटा सायफ्लूथ्रिन नयी पीढ़ी के सिंथेटिक पायरेथ्रोइड हैं, जिनसे ये समस्या नहीं आती है। इस क्षेत्र में बहुत अनुसन्धान हुए हैं। प्रोफेनोफॉस और सायफ्लोथ्रिन के बढ़ते उपयोग पर डॉ. शर्मा ने कहा कि हमारे पास अन्य अनुशंसित और प्रभावी विकल्प हैं उनका प्रयोग करें।

बॉयो पेस्टीसाइड

मानव के लिए हानिकारक है? इस पर कहा कि यह हानिकारक नहीं है। किसान इसके लिए मांग नहीं करते। यदि करेंगे तो दुकानदार इसे भी रखने लगेंगे। महाराष्ट्र में रेज्डबेड पद्धति से सोयाबीन बोने के विवरण संबंधी जानकारी का भी समाधानकारक जवाब दिया गया। गुलाम खान (खरगोन) – गर्डल बीटल के लिए किस जैविक का उपयोग किया जाए? डॉ. शर्मा ने स्पष्ट किया कि चूँकि इसकी इल्लियां तने के अन्दर होती हैं, जैविक कीटनाशक प्रभावी नहीं होते हैं। जैविक कीटनाशक पत्ती खाने वाले, रस चूसक कीटों के सम्पर्क में आने पर ही प्रभावी हैं। श्री आकाश- सोयाबीन फूल वाली अवस्था में है। इस पर कीटनाशक डालें तो कोई नुकसान तो नहीं होगा? डॉ. शर्मा ने बताया कि जो कीटनाशक अनुशंसित हैं उन्हें सही तरीके से सही मात्रा में डालें इससे कोई नुकसान नहीं होता चाहे पौधा किसी भी अवस्था में हो। सोयाबीन की फसल स्व-परागित है। उन्होंने यह भी बताया कि इमिडाक्लोप्रिड सिर्फ बीजोपचार के लिए अनुमोदित है स्प्रे के लिए नहीं है। श्री डीके द्विवेदी (केवीके भोपाल) ने जैविक उत्पाद बनाने वालों की बात रखते हुए कहा कि इन्हें बेचने में कृषि विभाग सहमत नहीं होता। इसे व्यवसाय के रूप में ले जाना चाहते हैं। डॉ. शर्मा ने स्पष्ट किया किया कि प्रदर्शन तक ठीक है, लेकिन व्यवसाय के लिए पंजीयन कराना पड़ेगा। इसके लिए सीआइबी-आरसी में आवेदन देकर लेबल लेना पड़ेगा। श्री रामकुमार पटेल (रहली जिला सागर)- दवाई डालने के बाद भी सोयाबीन के पत्ते क्या छलनी हो जाते हैं? दवाई डालने के बाद इल्लियों का सक्रिय रहना, दवाई की गुणवत्ता पर संदेह पैदा करता है। उन्हें फसल के फोटो और वीडियो भेजने को कहा ताकि सही परामर्श दिया जा सके। श्री होशियार सिंह ने इस आयोजन की प्रशंसा करते हुए कहा कि सोयाबीन से किसानों का मोहभंग होने का कारण कम उत्पादकता, कीटनाशकों का अधिक प्रयोग होना है। किसान बोतलबंद दवाई में उत्पादन खोजता है। इसके लिए समेकित कीट प्रबंधन में किसान, सरकार, कृषि विभाग और डीलर को मिलकर प्रयास करना होंगे। खेत की मेड़ की घास में कीट रहते हैं। आपने सामुदायिक कीटनाशक छिडक़ाव के प्रयोग का सुझाव देते हुए कहा कि सभी खेत पड़ोसी एक साथ कीटनाशक का छिडक़ाव करें तभी इसे नियंत्रित किया जा सकता है। श्री अजय मिटकारी (जालना महाराष्ट्र) ने भी डॉ. शर्मा के प्रेजेंटेशन की प्रशंसा कर पूछा कि तना मक्खी और गर्डल बीटल में क्या फर्क है ? डॉ. शर्मा ने बताया कि तना मक्खी की इल्ली छोटी रहती है। चावल के दाने बराबर। यह अपने शरीर के आकार की टेढ़ी-मेढ़ी टनल बनाती इससे बड़ी फसल को ज्यादा नुकसान नहीं होता। इसकी 3-4 पीढिय़ां एक ही सीजन में सक्रिय रहती हैं। गर्डल बीटल की इल्ली बड़ी होती है जो तने को पूरी तरह खोखला कर देती है। गर्डल बीटल के प्रबंधन के लिए ट्रेप क्रॉप के रूप में खेत की मेड़ पर ढेंचा लगा सकते हैं। श्री पिंटू पटेल (धार) ने सोयाबीन फली को चूहों द्वारा कुतरने की समस्या बताई, जिसके लिए चूहे मारने वाले बिस्किट खेत में बिलों के पास या जिंक फास्फाइड की गोलियां डालने की सलाह दी गई। श्री गजेन्द्र सिंह पंवार (बदनावर) ने सोयाबीन की बीज दर ज्यादा होने से उसकी ऊंचाई बढ़ जाने की समस्या का उपाय बताए। कीट विज्ञानी डॉ. शर्मा ने बताया कि फसल की ऊंचाई जेनेटिक होती है। अधिक बीज दर के अलावा, लम्बे समय तक बादल रहना और धूप नहीं निकलना भी इसके कारण हैं। कुदरती वृद्धि को नहीं रोका जा सकता है। कुछ लोग सायकोसिल का प्रयोग करते हैं।

पीलेपन का कारण

श्री योगेश पाटीदार ने सोयाबीन के पीलेपन और फली नहीं भरने और मकड़ी की समस्या बताई। डॉ. शर्मा ने कहा कि पीलेपन के कई कारण हो सकते हैं। गर्डल बीटल, तना मक्खी के प्रकोप से भी पीलापन आता है। पीला मोजाइक बीमारी या फिर लौह तत्व की कमी के कारण भी फसल में पीलापन आ जाता है। लाल मकड़ी का प्रकोप लम्बे समय तक वर्षा नहीं होने से होता है। वर्षा हो जाने पर यह समस्या खत्म हो जाएगी। श्री बबलू कुमार (बडऩगर) ने बताया कि जेएस 9560 किस्म के 15 दिन पानी नहीं गिरने से पौधे सूख गए। तनाव के कारण वृद्धि रुक गई। खरपतवारनाशक भी दिया। डॉ. शर्मा ने कहा कि पौधे की सारी ऊर्जा फली और दाने बनाने में लग जाती है। जड़ों में सडऩ फफूंद से हुई है। तना मक्खी का प्रकोप सम्भव है। बीजोपचार फंजीसाइड और इंसेक्टिसाइड से करना चाहिए। श्री कृष्णगोपाल पाटीदार (आगर मालवा) ने जेएस 9560 किस्म 90 के बजाय 75-80 दिन में पकने की समस्या बताई। डॉ. शर्मा ने कहा कि बीच में तनाव आ गया तो उसकी प्रक्रिया जल्दी होने लगती है। तना मक्खी के प्रकोप से भी ऐसा हो सकता है।

कृषि ज्ञान प्रतियोगिता का सवाल

इस प्रतियोगिता का सवाल था कि हर फसल के कीटनाशकों का अनुमोदन करने के लिए भारत सरकार की कौन सी अधिकृत एजेंसी है? श्री प्रताप सिंह चौहान खंडवा ने सबसे सही जवाब ‘सेन्ट्रल इंसेक्टिसाइड बोर्ड’ देकर विजेता बने। इन्हें कृषक जगत की ओर से ‘सोयाबीन अनुसन्धान तकनीक’ नामक पुस्तक पुरस्कार स्वरूप भेजी गई।

कीटों पर रासायनिक वार

रासायनिक कीटनाशकों का प्रयोग हमेशा कीट एवं फसल की स्थिति को देख कर निश्चित करें। 15-20 दिन की सोयाबीन फसल में यदि इल्लियों का प्रकोप हो तो रासायनिक कीटनाशक, क्लोरइंट्रानिलीप्रोल (150 मिली) या इंडोक्साकार्ब (333 मिली) या क्विनालफॉस (1500 मिली) को खरपतवारनाशक इमाजेथापिर (1 लीटर) या क्विजालाफॉप इथाइल (1 लीटर) के साथ मिला कर प्रयोग करें। क्लोरइंट्रानिलीप्रोल को मिलाने पर 30-35 दिन तक इल्लियों का प्रकोप नहीं होता है। यदि फसल 30 दिन से अधिक की हो गई, फूल लगने वाले हों या लग चुके हों तो क्लोरइंट्रानिलीप्रोल (150 मिली) या फ्लूबेन्डियामाईड 39.35 एस.सी. (150 मिली) या फ्लूबेन्डियामाईड 20 डब्ल्यू.जी. (250 मिली) या स्पिनेटोरम 11.7 एस.सी (450 मिली) के उपयोग से इल्लियों का अच्छा नियंत्रण होता है। अगर इल्लियों के साथ तना मक्खी या सफ़ेद मक्खी का भी प्रकोप हो रहा हो तो ऐसी दशा में पूर्व मिश्रित कीटनाशक जैसे नोवाल्यूरोन + इंडोक्साकार्ब (850 मिली) या बीटासाइफ्लूथ्रिन+इमिडाक्लोप्रिड (350 मिली) या थायमिथोक्सम+लेम्बडा सायहेलोथ्रिन (125 मिली) का छिडक़ाव करें। गर्डल बीटल के लिए थायक्लोप्रिड (650 मिली) या प्रोफेनोफोस (1250 मिली) या इमामेक्टिन बेंजोएट (450 मिली) का भी प्रयोग किया जा सकता है। तम्बाकू की इल्ली और चने की इल्ली की छोटी अवस्था के लिए नोवाल्यूरोन+ इंडोक्साकार्ब और बड़ी अवस्था के लिए इमामेक्टिन बेंजोएटया लेम्बड़ा सायहेलोथ्रिन या इंडोक्साकार्ब का प्रयोग करें। सफ़ेद मक्खी के 10 -15 शिशु पौधे पर चिपके रहते हैं। पीले धब्बे दिखाई दें तो ऐसे पीले रोग ग्रस्त पौधों को खेत से बाहर कर दें। 8-10 दिन में यह प्रक्रिया दोहराएं तो पीला मोजाइक वायरस को नियंत्रित किया जा सकता है। जब बीमारी का स्रोत बाहर हो जाएगा तो पीला मोजाइक रोग का बढऩा बंद हो जाएगा। सोयाबीन किस्म जेएस 2069 और जेएस 9752 में पीला मोजाइक रोग कम लगता है। ध्यान रखें कि सिंथेटिक पायरेथ्राइड का प्रयोग सोयाबीन के लिए अनुशंसित नहीं है। इससे सफ़ेद मक्खी की प्रतिरोध क्षमता बढ़ जाती है। अन्य विकल्प मौजूद हैं उनका प्रयोग करें।

चंदेल की डोरा तकनीक

श्री मनोहर चंदेल टकरावदा (धार) ने सोयाबीन की फसल में पौधों की संख्या बढऩे पर उसे कम करने के उपाय के बारे में बताया कि इसके लिए उन्होंने विशेष डोरा बनवाया है। यह 9 इंच की गेप कर देता है लाइन के बीच में। 15-20 दिन की फसल होने पर खेत अच्छा सूखा होने पर आड़ा डोरा चला दें और अधिक पौधों को काट दें तो इससे पौधों की संख्या कम हो जाएगी। जैसे टोकन विधि से लगाते हैं। जिसे चोपना (डिब्लिंग) कहते हैं। इस पद्धति से सोयाबीन का उत्पादन डबल हो जाता है। श्री चंदेल ने किसानों की तरफ से पूछा कि गर्डल बीटल की जो दवाइयां बताई हैं उससे सफेद मक्खी को मारना है या तने के अंदर के अंडे को भी समाप्त कर देती है? इस पर डॉ. शर्मा ने कहा कि स्प्रे से गर्डल बीटल के वयस्क मारना उद्देश्य नहीं है। हमारा उद्देश्य दवाई को अंदर पहुँचाना है। तने के अंदर के अंडे और इल्ली को भी समाप्त कर सकती है, इसका प्रभाव तभी तक है जब तक इल्ली पत्ती के डंठल में रहती है। एक बार इल्ली तने में चली गई तो कीटनाशक कम काम कर पाते हैं, क्योंकि तने के टिश्यू कडक़ होते हैं। इसलिए इसका पत्ती के लटकने और झुकने के लक्षण को देखते ही उपचार कर देना चाहिए।

टॉनिक डालने से फसल नहीं बढ़ती

श्री अंकित जोशी गौतमपुरा (इंदौर)- 40 दिन की सोयाबीन फसल पर क्या टॉनिक देना चाहिए। जब फसल स्वस्थ है उर्वरक, खाद आदि सही डाला है तो उसे टॉनिक की जरूरत नहीं है। इस मामले में भारतीय सोयाबीन अनुसन्धान संस्थान में 17-18 तरह के टॉनिक पर अनुसन्धान किया गया था जिसमें पाया कि फसल में सिर्फ हरापन आता है लेकिन पैदावार में विशेष असर नहीं पड़ता। यदि फसल छोटी रह गई है तो टॉनिक डालने से बढ़ जाएगी तो इस भ्रम में न रहें। क्योंकि एक बार फूल आ जाए तो फिर कोई प्रभाव नहीं पड़ता।

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