Crop Cultivation (फसल की खेती)

लघुधान्य फसलों में अर्न्तवर्तीय फसलों का महत्व

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डाॅ. मनीषा श्याम’ एवं डाॅ. डी.एन. श्रीवास, अखिल भारतीय समन्वित अनुसंधान लघु धान्य परियोजना क्षेत्रीय कृषि अनुसंधान केन्द्र, डिण्डौरी (म.प्र.)

22 जुलाई 2023, डिण्डौरी: लघुधान्य फसलों में अर्न्तवर्तीय फसलों का महत्व – ज्वार तथा बाजरा जैसे मोटे अनाजों के अतिरिक्त अन्य लघुधान्य फसलें जैसे – कोदो, कुटकी, रागी, सांवा, चीना, कंगनी एवं बासारा फसलें हैं, जो भारत के अनेकों भागों में उगायी जाती है। ये खाद्यान्न फसलें विषेशकर उन भागों में उगाये जाते है, जहां भूमि दूसरे उत्तम धान्ये (ब्मतमंसे) उगाने योग्य नहीं रहती है। ये शीघ्र तैयार होने वाली फसलें है, और इन्हें प्रायः वर्षा ऋतु में उगाया जाता है। साधारणतः ये फसलें ‘‘गरीब आदिवासी कृषकों के वैकल्पिक खाद्यान्न‘‘ की श्रेणी में आती है, क्योंकि अगस्त के अंतिम सप्ताह या सितम्बर में जब कोई खाद्य फसल तैयार नहीं होती और इन दिनों अन्य खाद्यान्न फसल की बोनी मंहगी हो जाती है जिसे गरीब किसान नहीं खरीद सकते, उस समय 60 से 70 दिनों में पकने वाली कुटकी एवं चीना, कंगनी इसके बाद सांवा, कोदो व रागी पककर तैयार हो जाती है, फिर अन्य खाद्यान्न फसल जैसे- मक्का, धान आदि तो मिलता ही है। जिन कृषकों के पास मात्र हल्की जमीन ही हो, जिसमें अन्य किसी प्रकार की फसलें नहीं ली जा सकती हो उसमें वैकल्पिक रूप से लघुधान्य फसलों को लगाया जा सकता है। ऐसा देखा गया है कि लघुधान्य फसलों में पाये जाने वाले पौषक तत्वों एवं रोगों को मिटाने की असाधारण क्षमता के कारण इनका व्यापरिक स्तर पर विपरण शुरू हो गया है। व्यापरिक स्तर पर यह बहुत ही कम मूल्य की मानी जाने वाली फसलें है, पंरतु फिर भी ऐक्षिक या वैकल्पिक खाद्यान्न है, इन फसलों में गेहूं एवं चावल जैसे अनाज वाली फसलों की तुलना में सूखा सहने की विलक्षण क्षमता है।

चूकि ये मुख्य खाद्यान्न फसलों में न आने के कारण अन्य फसलों की तुलना में क्षेत्रफल की दृष्टि से काफी उपेक्षित रही है। ये केवल जगलों में या जंगल के किनारे व कंकरीली पत्थरीली एवं भर्रा क्षेत्रों रहने वाले आदिवासी कृषकों का एक मुख्य आहार के रूप में ही रहा है, पंरतु दिनोदिन क्षेत्रीय कृषि अनुसंधान केन्द्र के कृषि वैज्ञानिकों के अथक प्रयास एवं परिश्राम से कुछ नई उन्नत जातियां क्षेत्रीय एवं मध्यप्रदेष में लघुधान्य फसलों को उगाने वाले क्षेत्र हेतु विमोचित की गई है एवं आदिवासी कृषकों के बीच में व्यापक रूप से इसका प्रचार-प्रसार किया गया है एवं अधिक उपज होने कारण इन किस्मों को अपनाया जा रहा है।

कोदो के साथ में अरहर अंर्तवर्तीय फसल पद्धति 4:2

मध्यप्रदेश में अधिकांषतः लघुधान्य फसल उगाने वाले जिले जैसे कि डिण्डौरी, मण्डला, अनूपपुर, उमरिया, शहडोल, छिदवाड़ा, बैतूल, झाबुआ एवं खण्डवा आते है। मध्यप्रदेष के इन जिलों में लघुधान्य फसलें मुख्यतः कंकरीली -पत्थरीली पहाडियों ढालानों एवं कम उर्वरा शक्ति वाली भूमि में की जाती है इनको उगाने वाले सभी क्षेत्रों के आदिवासी कृषकों की वर्तमान आर्थिक स्थिति बेहत कमजोर है। साथ ही उनके पास जोत का रकवा भी सीमित है, किंतु अपने स्वास्थ्य जीवनयापन करने के लिये दलहन, तिलहन व अन्य फसलों से होने वाले अनाजों की आवष्यकता पड़ती है। इसी को देखते हुए परम्मपरागत तरीके से कृषकों द्वारा मिश्रित खेती की जाती रही है, किंतु इन क्षेत्रों अन्य जिलों की तुलना में खासकर डिण्डौरी, उमरिया, अनूपपुर एवं मण्डला जिले में ठंड के दिनो में तापक्रम अत्यधिक कम हो जाने के कारण मुख्य दलहन फसलों में पाला लगने की संभावना बनी रहती है, इन क्षेत्रों रबी में बोवाई क्षेत्र काफी कम होता है, अतः रबी में लगने वाली दलहन फसलों की खेती बहुत कम रकवें में हो पाती है। अपनी आर्थिक स्थिति को सुधारने व दलहन एवं तिलहन फसलों के उपयोग हेतु उन्हें खरीफ में लगने वाली फसलों पर निर्भर रहना पडता है। इन्हीं कारणों से परम्मपरागत रूप से कोदो- कुटकी के साथ कुटकी के साथ में अरहर, लोबिया, ग्वार, उड़द जैसी दलहन फसलेा की मिश्रित खेती करते चले आ रहे है।

अ- एकल एवं मिश्रित खेती –

मुख्य फसल के साथ ही साथ जो अन्य उसी समय की फसल लगाई जाती है, उससे कृषकों को अतिरिक्त आय प्राप्त होती है, साथ ही जब मुख्य फसल खराब हो जाती है, तब साथ में लगी मिश्रित फसल या अतिरिक्त फसल बचाकर लाभ लिया जा सकता है। बहुधा यह देखा गया है कि आदिवासी क्षेत्रों के कृषक कोदो एवं कुटकी के बीज के साथ ज्वार, अरहर, तिल, पटषन, उडद, लोबिया, ग्वार एवं रागी के बीज मिलाकर छिटकवा विधि द्वारा बोनी करते है। समय की बचत के हिसाब से यह मिश्रित पद्धिति तो ठीक है लेकिन अर्न्ताषस्यन क्रियायें एवं कटाई के समय में कृषकों को परेषानियों का सामना करना पड़ता है साथ ही उपज में भी अन्तर आता है। अरहर व कोदो मिश्रित खेती करने से अरहर में लगे कीटों की रोगथाम के लिए पूरे क्षेत्र में दवा का प्रयोग करना पड़ता है, क्योंकि अरहर के पौधे एक निष्चित क्रमबद्ध तरीके से तो नहीं रहते है। अतः अनुसंधान प्रयोगों एवं शोध कार्याे द्वारा यह स्पष्ट हो चूका है कि कोदेा एवं कुटकी के साथ अर्न्तवर्तीय फसल के रूप में यदि तिल, लोबिया, उडद/मूगं, ग्वार एवं अरहर तथा रागी के साथ रामतिल, तिल, सोयाबीन व अरहर की खेती की जाये तो अधिक लाभ प्राप्त होता है।
लघुधान्य फसलों के साथ ली जाने वाली प्रचलित मिश्रित फसलें –

  1. कोदो + अरहर
  2. कोदो + अमटा (खटुआ)
  3. कोदो + तिल
  4. कोदो + लोबिया
  5. कोदो + मूंग/उड़द
कोदो एवं अमटा (खटुआ) की मिश्रित खेती-
रागी एकल फसल

जैसे कि विदित है, कोदो अनाज की खपत कुटकी फसल की तुलना में कहीं अधिक कम है एवं यही कारण है कि देष में कोदो फसल का रकवा या क्षेत्रफल धीरे-धीरे अन्य लघुधान्य फसलों (कुटकी) की तुलना में कम होता जा रहा है, जो कि एक चिंता का विषय है चूंकि कोदो फसल एवं इसके अनाज में पाये जाने वाली सभी पौषक तत्व स्वास्थ्य की दृष्टि से सभी वर्ग के लिए लोगों के लिए सर्वोत्तम है फिर भी यह अनाज उपेक्षित है। जिनका सबसे बढ ा करण इस अनाज में मतौना बिष का पाया जाना हो सकता है, एवं यही सबसे कारण भी है कि भारत की बडी से बडी लघु धान्य मंडियों जैसे कि नासिक (महाराष्ट्र ) की मंडी में इसकी मांग घटती चली जा रही है। अतः इन्हीं सभी कारणों मंडी व्यापरी इस अनाज का पूरा मूल्य छोटे किसानों को नहीं देते है। जिसके कारण कोदेा उगाने वाले कृषकों की संख्या में कमी आंकी गई है जो कि एक चिंता का विषय बनता जा रहा है । क्षेत्रीय अनुसंधान केन्द्र, डिण्डौरी में किये गये विभिन्न कोदो फसल अनुसंधानों एवं शोध कार्यो से ज्ञात हुआ है कि कोदो उगाने वाले कृषक प्रायः कोदो की कटाई के समय सावधानियां नहीं बरतते है एवं भण्डारण के समय विभिन्न प्रकार की ऋुटियां भी करते है जिसकी वजह से ही मतौना बिष का उदभाव कोदो में हो जाता है। कटाई उपरांत कोदो की फसल एवं भूमि में अर्द्रता की अधिकता होने के कारण विभिन्न फफूदं उत्पन्न होने लगते है कोदो में शोध कार्यो से ज्ञात हुआ है कि अमटा या खाटुआ फसल कोदो के साथ मिश्रित या अर्न्तवर्तीय फसल के रूप लेने से मतौना बिष का प्रभाव कोदो अनाज से कम या नष्ट किया जा सकता है। अमटा या खटुआ के जडों से निकले वाले फायटो केमिकल्स एवं एलिलो केमिकल्स कोदो फसल गली भूमि में विभिन्न बिषाक्त प्रभाव उत्पन्न फंफूदों एवं बैक्टेरियों की वृद्धि रोक देते है । जिसके कारण से ही मतौना दोष कोदो अनाज पर हावी नहीं हो पाते है एवं कोदो मतौना बिष से लगभग अछूति रह जाती है। कोदो उगाने वाले गांव एवं कृषकों का सर्वे किये जाने पर मतौना के अन्तर्गत यह तथ्य सामने आया है कि, यदि किसी मनुष्य जनवार पर मतौना बिष पर प्रभाव हुआ है, ऐसे मनुष्य या जनवार को अमटा या खटुआ का सेवन कराना चाहिए। अमटा के फूल एवं पत्तियांे से बनायी गई सब्जी या पेय पदार्थ के सेवन से मतौना बिष के प्रभाव को जल्द से जल्द नगण्य किया जा सकता है । अतः इहीं औषिधीय उपयोगो कारण ही आदिवासी क्षेत्रों में अमटा एवं कोदो मिश्रित खेती करने का चलन आदिकाल से ही बहुत लोकप्रिय है एवं आने वाले वर्षो में इस फसल के अर्न्तवर्तीय फसल के रूप में और अधिक शोध कार्याे को करने की संभावनाऐं ज्ञापित है।

ब- अर्न्तवर्तीय खेती-
रागी एवं लोबिया अन्तवर्तीय फसल पद्धति

कृषि शोध कार्यो एवं अनुसंधान परिणामों से यह प्रदर्षित हुआ है कि मिश्रित खेती एवं एकल फसल की तुलना में अर्न्तवर्तिय फसलों द्वारा अधिक लाभ प्राप्त होता है। अर्न्तवर्तीय फसलों के चयन व अनुपात ज्ञात करने हेतु अनुसंधान शोध कार्य, क्षेत्रीय कृषि अनुसंधान केन्द्र, डिण्डौरी में विगत कई वर्षेा से किये जा रहे है, जिनके परिणामों से ज्ञात हुआ है कि यदि कोदो व कुटकी के साथ 4ः2 में अरहर की फसल लगाई जाये तो उपज में सर्वाधिक लाभ प्राप्त होता है, जो कि शुद्ध फसल की तुलना में लगभग 23 प्रतिषत अधिक लाभ प्रदान करता है। अतः आदिवासी अंचलों के कृषकों को सलाह दी जाती है कि कोदो , कुटकी एवं अन्य लघुधान्य फसलों को शुद्ध फसल के रूप में न लेकर इनकी स्थान पर उपरोक्त अनुपात (4ः2) में अरहर की फसल अर्न्तवर्तीय खेती के रूप में की जानी चाहिए। कृषकों के खेतों में प्रदर्षन के माध्यम से इस अनुसंधान तकनीकी का प्रचार-प्रसार किया जा रहा है और कृषकों द्वारा इस पद्धिति को रूचिपूर्वक अपना जा रहा है।

कोदो के साथ ली जाने वाली प्रचलित अर्न्तवर्तीय फसलें –
  • कोदो + अरहर (4:2)
  • कोदो + तिल (4:2)
  • कोदो + मूंग/उड़द (4:1/4:2)
  • कोदो + लोबिया (4:2)
  • कोदो + ग्वार (4:2)
तालिका- 1 लघु धान्य फसलों के साथ मिश्रित अन्तर्वर्तीय फसलों के उपज में लाभ
क्रमांकउपचारऔसत उपज क्विंटल/हेक्टेयरअंतवर्तीय फसल
01कोदो ( जे.के – 137) + तिल (टी.के.जी-306 )14.54.9
02कोदो ( जे.के – 137) + सोयाबीन (जे.एस -335 )13.95.1
03कोदो ( जे.के – 137) + अरहर (टी.जे. टी -501 )12.75.2
04कोदो ( जे.के – 137) + रामतिल (जे.एन.एस. -9 )14.34.7
05कुटकी ( जे.के – 4) + सोयाबीन (जे. एस -335 )12.44.2
06कुटकी ( जे.के – 4) + मूंग (आर.यू-2 )13.84.6
07रागी ( व्ही.एल. -376) + सोयाबीन (जे.एस -335 )15.74.9
08रागी ( व्ही.एल. -376) + अरहर (टी.जे. टी -501 )15.34.1
09रागी ( व्ही.एल. -376) + तिल (टी.के.जी-306 )14.24.4
10रागी ( व्ही.एल. -376) शुद्ध24.8
11रागी ( व्ही.एल. -376) शुद्ध13.9
12कोदो ( जे.के – 41) शुद्ध15.6
13कुटकी ( जे.के – 4) शुद्ध12.3
Source : Annual Progress Report of Small Millets RARS, Dindori (M.P.) Kharif 2015-16 & 2016-17

इस प्रकार कोदो कुटकी एवं रागी के साथ अन्य अर्न्तवर्तीय फसलें बोकर अतिरिक्त आय प्राप्त की जा सकती है।

कुटकी के साथ ली जाने वाली प्रचलित अर्न्तवर्तीय फसलें –
  1. कुटकी़ + अरहर (4:1)
  2. कुटकी + तिल (4:2)
  3. कुटकी + मूंग/उड़द (4:1/4:2)
  4. कुटकी + लोबिया (4:2)
  5. कुटकी + ग्वार (4:2)
तालिका- 2 लघु धान्य फसलों के साथ अन्तर्वर्तीय फसलों सेे उपज में लाभ
उपचारकोदो समकक्ष उपज लाभ (रू./हे.)कुल आय (रू./हे.)खेती की कुल लागत (रू./हे.)शुद्ध आय (रू./हे.)बी.:सी.अनुपात
कोदो + अरहर 4:141688336027000563603.08
कोदो + अरहर 6:141578314026050570903.19
कुटकी + अरहर 4:140517291826000469182.8
कोदो + अरहर 4:440287250025050474502.89
कंगनी + अरहर 4:544668039428000523942.87
कंगनी + अरहर 6:144429076426050647143.48
एकल कोदो21904307823000200781.88
एकल कुटकी22884117622000191761.87
एकल कंगनी24564417622000221762.01
एकल अरहर185710920038500707002.84
SEM +-110.90
CDCP=  0.0533.36
Source : Annual Progress Report of Small Millets RARS, Dindori (M.P.) Kharif 2017-18 & 2018-19

इस प्रकार कोदो कुटकी एवं रागी के साथ अन्य अन्र्तवर्तीय फसलें बोकर अतिरिक्त आय प्राप्त की जा सकती है।

दलहन फसलों के अतिरिक्त अन्य फसलों के साथ अन्तरसस्यन पद्धति –

अलिख भारतीय समन्वित अनुसंधान लघु धान्य परियोजना के अन्तरर्गत क्षेत्रीय कृषि अनुसंधान केन्द्र, डिण्डौरी में लघुधान्य फसलें जैसे- रागी, कोदो-कुटकी, चीना,सांवा एवं कंगनी की एकल फसल बुवाई के साथ दलहन, तिलहन एवं सब्जियों की अन्तरवर्तीय फसलों के शोध एवं अनुसंधान कार्य विगत कई वर्षो से होता आ रहा है। रागी फसल के साथ में उड़द, अरहर, लोबिया, भिन्डी, ग्वार फसलों के साथ एकल एवं अन्तरवर्तीय फसल पद्धति अनुसंधान एवं शोध कार्यो के दौरान ली गई। जिसमें सभी अन्र्तवर्तीय फसलों का उपज, एकल रागी की उपज की अपेक्षा ज्यादा पाया गया साथ ही साथ भूमि की उर्वरा शक्ति जैसे- नत्रजन, फास्फोरस एवं पोटाश के अतिरिक्त अन्य सूक्ष्म तत्वों की मात्रा भी ज्यादा पाई गई।
रागी के साथ ली गई अन्र्तवर्तीय फसलें –

  1. रागी + मूंग (8:2)
  2. रागी + ग्वार (8:2)
  3. रागी + लोबिया (8:2)
  4. रागी + उड़द (8:2)
  5. रागी + भिन्डी (8:2)
  6. रागी + अरहर (8:2)
  7. रागी + मक्का (8:2)
तालिका- 3 विभिन्न अन्र्तवर्तीय फसलों का रागी समक्षम उपज लाभ पर प्रभाव-
  क्रमांकउपचाररागी समक्षम उपज लाभबी:सी.अनुपात
1रागी (एकल फसल)24492.85
2    रागी + मूंग (8:2)30482.8
3  रागी + ग्वार (8:2)37342.67
4 रागी + लोबिया (8:2)36842.89
5 रागी + उड़द (8:2)28702.89
6रागी + भिन्डी (8:2)41102.85
7रागी + अरहर (8:2)35792.94
8रागी + मक्का (8:2)29282.43
Source : Good Agronomic Practices for higher yield in Small Millets (T.S. Sukaniya et. all.,  2022)
अन्र्तवर्तीय फसलों के लाभ-

अन्र्तवर्तीय फसल पद्धिति से मुख्य फसल की पूर्ण पैदावार एवं अन्र्तवर्तीय फसल अतिरिक्त पैदावार प्राप्त होती है। इन अतिरिक्त फसल लाभ के अलावा ऐसे और भी लाभ है जो कि इस पद्धिति को अपनाकर लिया जा सकता है। ये लाभ निम्नांकित है-

लघुधान्य फसलों में दलहनी फसलों को अन्र्तवर्तीय फसल के रूप में लिये जाने के कारण उर्वता क्षमता बढती है, जिसके कारण उत्पादन में वृद्धि होती है।

दलहनी फसलों के उपयोग से भूमि की जल अवषोषण क्षमता में इजाफा देखा गया है।

अन्र्तवर्तीय फसलों के कारण नींदा या खरपतवारों की संख्या में कमी आंकी गई है। जिससे कारण खेत में संतुलित पौध संख्या रहती है। जो कि अधिक उत्पादन में एक वृद्धि कारक है।

लघु धान्य फसलों में दलहनी फसलों के उपयोग से मृदा की वायु धारण क्षमता में बढोत्तरी होती है जिसके कारण लघुधान्य फसलों के जडे मजबूती से पौधोें को सहारा देती है। एवं इन्हीं कारणों से लौडिजिंग प्रतिषत में कमी आंकी गई है।

अन्य अर्तवर्तीय फसलें जैसे दलहनी एवं तिलहनी के उपयोग के कारण लघुधान्य फसलों के अनाजों में पाई जाने वाले पौषक तत्वों में बढोत्तरी होती है। साथ ही साथ स्वाद मे ंभी वृद्धि होती है।

अन्र्तवर्तीय फसलें के उपयोग से लघुधान्य फसलों में कीट एवं व्याधियों में भी गिरावट आती है।

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