किसान संगठित कब होंगे ?
भारतीय किसान कर्ज में पैदा होता है, कर्ज में ही जीता है और कर्ज में ही मर जाता है, यह स्थिति आजादी के 70 वर्ष बाद भी नहीं बदल पायी है। अंतर इतना आ पाया है कि तब किसान कर्ज को अगली पीढ़ी के लिये छोड़कर प्राकृतिक मृत्यु मरता था। आज वह कर्ज के कारण आत्महत्या के लिये विवश हो रहा है। इन 70 वर्षों में किसान को संगठित करने के ईमानदारी से कोई प्रयास नहीं किये गये जो किये भी गये वे निरंर्थक साबित हुए इफको, कृभको, अमूल जैसे सफल सहकारी संगठनों में भी किसान की भूमिका एक उपभोक्ता या आपूर्तिकर्ता से अधिक नहीं रही। यदि किसान संगठित होता तो वर्तमान में कर्ज माफी की समस्या के नियमों के सभी व्यवधान कोई बाधा नहीं डालते। उद्योग घरानों की तरह ही उनके ऋण भी माफ करने का दबाव सरकारों पर रहता। जनता दल सरकार ने वर्ष 1989 में किसान की ऋण माफी की योजना चलाई थी जिसमें तब किसानों के मात्र 10 हजार रुपये के ऋण माफ किये गये थे। इसके विपरीत भारत सरकार ने वर्ष 2000 से 2012 के बीच एक लाख करोड़ रुपये से अधिक के ऋण औद्योगिक घरानों के माफ किये हैं। इनमें से 95 प्रतिशत ऋण बड़ी मुद्रा के थे। यह किसानों के प्रति पक्षपात नहीं तो और क्या है। इसका कारण किसानों का संगठित न होना ही है।
औद्योगिकी क्षेत्र में उत्पादक को अपने उत्पाद की कीमत तय करने की स्वतंत्रता है। वह ब्रान्डेड उत्पाद के नाम पर किसानों से, खासतौर पर पौध संरक्षण रसायनों की उनकी उत्पादन लागत से कई गुना कीमत वसूल करता है। किसानों की आत्महत्या का सिलसिला भी ऐसे ही उत्पादों के कारण आंध्रप्रदेश से आरंभ हुआ था। किसान के उत्पादों की कीमत किसान स्वयं तय नहीं कर पाता। किसान को उसकी फसल की उत्पादन लागत निकालने के बाद उसकी मेहनत की मजदूरी ही मिल पाती है। भारत सरकार द्वारा प्रतिवर्ष खरीफ व रबी फसलों के न्यूनतम समर्थन मूल्य फसल की उत्पादन लागत के अनुरूप घोषित किये जाते हैं। परंतु फसल आने पर घोषित मूल्य से उसकी फसल कम कीमत पर ही जाती है क्योंकि सरकारें विभिन्न कारणों से उसकी फसल के उत्पात को पूरा नहीं खरीद पाती है। इससे किसान को कभी-कभी फसल की लागत भी नहीं मिल पाती है।
भारत सरकार की अगले पांच वर्ष में किसानों की आमदनी दुगनी करने की योजना है। यह उसकी फसल के उत्पाद की सही कीमत दिये बिना संभव नहीं हो पायेगा। इसके लिए किसानों को भी अपने छोटे-छोटे निजी हितों को छोड़कर संगठित होना होगा। इससे वे अपने क्षेत्र में होने वाले प्रमुख फसलों के उत्पाद की मूल्य वृद्धि के लिये संगठित होकर छोटे-छोटे उद्योग डालें। तभी उनकी आय में वृद्धि हो सकती है और तभी उनके जीवन स्तर में बदलाव आ सकता है।