भूख और खाद्यान्न के बीच का संकट
आज भी अनेकानेक कारणों से हमारे देश में कृषि को उद्योग के दर्जे से दूर ही रखा गया है। जाहिर है कि जो सरकारी सुविधाएँ उद्योग धंधों को दी जाती हैं कृषि उस सबसे वंचित है। हमारी सरकारें वर्षों से इस पक्ष की अनदेखी ही करती आ रही हैं और कृषि घाटे का सौदा बना है। सरकारी एजेंडे में क्यों नहीं कृषि का मुद्दा प्राथमिक मुद्दा होना चाहिए। संयुक्त राष्ट्र की भूख-संदर्भित सालाना रिपोर्ट में कहा गया है कि दुनियाभर में सबसे ज्यादा भुखमरी के शिकार भारतीय हैं। संयुक्त राष्ट्र्र के फूड एंड एग्रीकल्चर आर्गेनाइजेशन की सर्वेक्षण रिपोर्ट भारत को ‘दुनिया की कैपिटल ऑफ हंगरÓ अर्थात ‘भूख की राजधानीÓ घोषित कर चुकी है। यहीं हमारे लिये विस्मय का विषय हो सकता है कि खाद्यान्न उत्पादन में रिकॉर्ड स्तर पर आत्मनिर्भर होने के बावजूद भूख से जूझ रहे भारतीयों की संख्या चीन से ज्यादा है। जाहिर है कि हमारे देश में खाद्यान्न-भंडारण और उसके रख-रखाव की पर्याप्त व्यवस्था नहीं होने के कारण हजारों-लाखों टन खाद्यान्न यूँ ही बरबाद हो जाता है और खाद्यान्न की कमी बनी रहती है।
देश में खाद्यान्न की कमी को दूर करने के लिये जहाँ एक ओर भारत सरकार को आयात पर निर्भरता बढ़ाना पड़ रही है। वहीं दूसरी ओर भारतीय खाद्य निगम (एफसीआई) के गोदामों में खाद्यान्न खराब होने की मात्रा भी रिकॉर्ड-स्तर पर निरंतर बढ़ रही है। पिछले छ: बरस का आंकड़ा देखने पर ज्ञात होता है कि वर्ष 2011-12 से 2016-17 के दौरान तकरीबन बासठ हजार मीट्रिक टन खाद्यान्न गोदामों में ही खराब हो गया।
मगर सिर्फ वर्ष 2016-17 के आंकड़े पर गौर करें तो पता चलता है कि इस एक बरस में 25 राज्यों के गोदामों में कुल 8680 मीट्रिक टन खाद्यान्न, जो अकेले महाराष्ट्र के गोदामों में ही सड़ गया।
पिछले बरसों में खाद्यान्न-खराबी मात्रा में तेजी से आए उतार-चढ़ाव के लिये मौसम को ही जिम्मेदार माना गया है। कहा गया है कि वर्ष 2013-14 तथा 2014-15 में सूखा व बाढ़ जैसी प्राकृतिक आपदाओं से अधिकांश राज्य मुसीबत से घिरे रहे, जिस कारण एफसीआई के गोदामों में रखे खाद्यान्न को खराबी आंकड़े का अनापेक्षित उछाल का सामना करना पड़ा, फिर वर्ष 2015-16 में खाद्यान खराबी का आंकड़ा 18847 मीट्रिक टन से सुधरकर 3116 मीट्रिक टन रह गया किंतु वर्ष 2016-17 में फिर से स्थिति बिगड़ गई और एफसीआई के 25 राज्यों में मौजूद गोदामों में रखा 8680 मीट्रिन टन खाद्यान्न खराब हो गया। कृषि मंत्री के मुताबिक अनुमान लगाया गया है कि वर्ष 2025 तक हमें तीस करोड़ टन अधिक अनाज पैदा करना होगा।
अनेकानेक कारणों से कृषि कार्य निरंतर अलाभकारी-पराक्रम में तब्दील होते जा रही है। किसानों को उनकी उपज का वाजिब मूल्य नहीं मिलता रहा है यहाँ तक कि लागत निकाल पाने तक के लाले पड़ रहे हैं। ऊपर से कर्ज का बोझ सिर के ऊपर अलग से, जिस कारण किसान आत्महत्या करने तक पर विवश हो रहे हैं। मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र, आंध्र और गुजरात सहित कई राज्य किसान-आंदोलन और किसान- आत्महत्या का दंश झेल रहे हैं। राज्य सरकारें कृषि उपज खरीदने का नाटक करते हुए भी बेहद लाचार नजर आ रही हैं।
एक तरफ किसानों की समस्याएँ बढ़ती जा रही हैं तो वहीं दूसरी तरफ खेती किसानी का काम अलाभकारी होता जा रहा है। आंदोलनकारी किसानों को गोलियाँ खाने के बावजूद कुछ नहीं मिल पाता है। डॉ. स्वामीनाथन कमेटी ने सरकार से सिफारिश की है कि किसानों को उनकी फसल लागत का डेढ़ गुना दाम दिया जाना चाहिए।
देश का अन्नदाता अपने खेतों में अपना खून पसीना एक करते हुए अन्न पैदा करता है। लेकिन उसे उसकी न तो बाजार कीमत ही मिल पाती है और न ही उचित भंडारण की सुविधा। ऐसा हालात तब है जबकि देश की लगभग सभी राजनीतिक पार्टियाँ किसान हितैषी होने का दावा अथवा वादा करते हुए सत्ता हथिया लेने को लालायित रहती हैं। आज भी अनेकानेक कारणों से हमारे देश में कृषि को उद्योग के दर्जे से दूर ही रखा गया है। जाहिर है कि जो सरकारी सुविधाएँ उद्योग धंधों को दी जाती हैं कृषि उस सबसे वंचित है। हमारी सरकारें वर्षों से इस पक्ष की अनदेखी ही करती आ रही है और कृषि घाटे का सौदा बना है। सरकारी एजेंडे में क्यों नहीं कृषि का मुद्दा प्राथमिक मुद्दा होना चाहिए। (सप्रेस)
- राजकुमार कुम्भराज