Editorial (संपादकीय)

क्या जैविक खेती की होड़ श्रीलंका जैसा संकट ला सकती है

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04 अप्रैल 2024, भोपाल(शशिकांत त्रिवेदी): क्या जैविक खेती की होड़ श्रीलंका जैसा संकट ला सकती है – भारतीय कृषि अनुसंधान और नाबार्ड के एक अध्ययन ने फिर से जैविक खेती की ओर दौड़ से पहले सोच विचार करने को कहा है। सन् 2019 में भी संस्थान ने सरकार से आग्रह किया था कि किसान अगर एकदम जैविक खेती अपनाने लगे तो आशंका है कि खाद्यान्नों का संकट पैदा हो जाये। हाल ही में राष्ट्रीय कृषि और ग्रामीण विकास बैंक (नाबार्ड) और भारतीय अंतर्राष्ट्रीय आर्थिक संबंध अनुसंधान परिषद (आईसीआर /आईईआर) द्वारा प्रकाशित एक शोध पत्र ने केंद्र सरकार को ‘पूरी तरह’ प्राकृतिक खेती अपनाने पर ज़ोर देने के खिलाफ एक बार फिर आगाह किया है। संस्थानों ने चेताया है कि भारत में भी कहीं श्रीलंका जैसा खाद और उर्वरकों का संकट न पैदा हो जाये। श्रीलंका में किसानों ने वहां की सरकार द्वारा रासायनिक उर्वरकों के उपयोग पर पूरी तरह रोक लगाए जाने के बाद जैविक खेती को अपना लिया था।

जब जैविक खेती से ज़रूरी पैदावार नहीं हुई तब आज पूरा देश अनुदान और आयात पर निर्भर है। सन् 2022 तक देश पर अरबों डॉलर का कर्ज सिर्फ इसलिए बढ़ गया क्योंकि जैविक खेती जररूत पूरा नहीं कर सकी। बाद में रूस-यूक्रेन युद्ध ने इस संकट को और भयावह कर दिया। सन् 2019 में ही नीति आयोग के सदस्य रमेश चंद ने  कहा था कि भोजन में रसायनों के बढ़ते हानिकारक प्रभावों के बारे में जनता की धारणा को केवल जैविक खेती या शून्य बजट खेती से हल नहीं किया जा सकता है।

हाल ही में ‘शून्य बजट प्राकृतिक खेती : स्थिरता, लाभप्रदता और खाद्य सुरक्षा के प्रभाव’ शीर्षक से प्रकाशित इस शोध (अकादमिक) पत्र में आर्थिक और सामाजिक अध्ययन केंद्र (सीईएसएस) और विकास अध्ययन संस्थान आंध्र प्रदेश (आईडीएसएपी) के साथ-साथ भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद (आईसीएआर) द्वारा ‘शून्य बजट प्राकृतिक खेती पर किए गए दो अध्ययनों में ‘सरासर असमानता’ पाई गई। इसलिए  भारतीय कृषि प्रणाली अनुसंधान संस्थान ने शून्य बजट प्राकृतिक खेती को राष्ट्रव्यापी खेती के रूप में अमल में लाये जाने से पहले लम्बे समय तक  प्रयोग करने की सिफारिश की है।

अध्ययन से पता चला कि खेती में लागत के बावजूद, शून्य बजट खेती करने पर भी किसानों को फसल से मिलने वाले लाभ में सुधार नहीं हो सका। एकीकृत फसल प्रबंधन (आईपीएम) की तुलना में शून्य बजट खेती में चावल की खेती की लागत 22.6 प्रतिशत और गेहूं की खेती की लागत 18.2 प्रतिशत कम थी; लेकिन शून्य बजट खेती में फसल पर मिलने वाला लाभ 58 प्रतिशत कम था। शून्य बजट खेती के दूसरे साल  बासमती चावल की फसल एकीकृत फसल प्रबंधन की तुलना में 37 प्रतिशत और गेहूं की फसल 53.9 प्रतिशत कम रही। अध्ययन में यह भी अनुमान लगाया गया है कि यदि शून्य बजट खेती को बड़े पैमाने पर अपनाया जाता है तो मौजूदा स्तर से बासमती चावल की पैदावार में 32 प्रतिशत की गिरावट और गेहूं की पैदावार में 59 प्रतिशत की गिरावट आएगी।

शोध पत्र में कहा गया है कि जहां जैविक खेती और प्राकृतिक खेती जैसी संबंधित प्रथाएं कुछ ख़ास बाजारों में ही सफल हैं, जहां अपेक्षाकृत अधिक कीमत मिलने से भी कम पैदावार से भी मुनाफा मिल सकता है या भरपाई हो सकती है, वहीं जैविक खेती को पूरी तरह अपनाने से राष्ट्रीय खाद्य उत्पादन में बाधा आ सकती है।  संदीप दास, महिमा खुराना और अशोक गुलाटी द्वारा लिखित इस शोध पात्र  कहा गया है,  खेती में लागत के लिए सतत बनी रहने वाली लचीली आपूर्ति वाली व्यवस्था का एक नेटवर्क होना प्राकृतिक खेती की ओर बढऩे की ज़रूरी शर्त है।
गाय के गोबर, गोमूत्र और पत्तियों का उपयोग करके शून्य बजट खेती की जाती है जिसकी हिमायत प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी, वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण और उनके मंत्रिमंडल के कई सदस्यों ने अक्सर की है।

शून्य बजट खेती पर आर्थिक और सामाजिक अध्ययन केंद्र (सीईएसएस) और विकास अध्ययन संस्थान आंध्र प्रदेश (आईडीएसएपी) ने निष्कर्ष निकाला था उसके मुताबिक शून्य बजट खेती में लागत पर खर्च  गैर-शून्य बजट खेती की तुलना में 3.54 प्रतिशत से 74.63 प्रतिशत कम थी, और अधिकांश शून्य बजट खेती की फसलों के लिए भुगतान लागत गैर-शून्य बजट खेती की तुलना में 9.08 प्रतिशत से 35.97 प्रतिशत कम थी, जिससे यह पता चलता है कि शून्य बजट खेती में काफी बचत होती है। इस शोध पत्र के मुताबिक शून्य बजट आधारित खेती की अधिकांश फसलों में गैर-शून्य बजट खेती की  फसलों की तुलना में उपज 0.94 प्रतिशत और 23.4 प्रतिशत के बीच ज़्यादा पाई गई। यह अध्ययन आंध्रपदेश में किया गया था।

दूसरी ओर, भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद और आईसीएआर-अंतर्राष्ट्रीय आर्थिक संबंधों पर अनुसंधान के लिए भारतीय परिषद के संयुक्त निष्कर्ष आर्थिक और सामाजिक अध्ययन केंद्र (सीईएसएस) और विकास अध्ययन संस्थान द्वारा किये गए परिणामों के बिल्कुल विपरीत थे, जिनमे  तीन वर्षों तक पंतनगर (उत्तराखंड), लुधियाना (पंजाब), कुरुक्षेत्र (हरियाणा) और मोदीपुरम (उत्तर प्रदेश) में बासमती चावल-गेहूं फसल प्रणाली पर शून्य बजट खेती पर परीक्षण किया।

इस शोध पत्र में यह भी कहा गया है कि शून्य बजट आधारित खेती  को सभी राज्यों में बढ़ावा देने से पहले आंध्र प्रदेश में अपनाई गई पद्धति पर दीर्घकालिक शोध और किसी तीसरे पक्ष की निगरानी में इसके परिणामों की जांच की आवश्यकता है।  श्रीलंका में आये खाद्य संकट को पूरी दुनिया के लिए एक सबक के रूप में ले रही है क्योंकि खाद, उर्वरकों आदि पर रोक लगाने से पहले खेती में ज़रूरी लागत की सामग्री की आपूर्ति और उस खेती के संभावित लाभों के बारे में जनता के बीच जागरूकता लाना नितांत ज़रूरी है।

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