संपादकीय (Editorial)

ग्रामीण बेरोजगारी का जिन्न और अंधा मशीनीकरण

अपनी तरह के अकेले पत्रकार श्री पी. साईंनाथ ने तीन-चार दिन पहले ही भोपाल में कहा था कि- ‘अपने देश में कृषि का संकट,अब कृषि से काफी आगे जाकर,पूरे समाज का संकट बन गया है। यह इंसानियत का संकट भी बन गया है। अब ये मत देखो कि कृषि में उत्पादन और उत्पादकता कितनी बढ़ या गिर गई है, यह देखो कि इंसानियत कितनी गिर गई है’ ।

यह कहकर उन्होंने हमें चौंकाया ही नहीं है, बल्कि बहुत साफ और कड़वे शब्दों में चेताया भी है। वैसे तो उन्होंने कोई नई बात नहीं की है। हम सब, यह देखते, समझते और जानते हैं। लेकिन, कोई अदृश्य शक्ति हमें विकास के नाम पर विपरीत और कष्टकारी दिशा में बहाती ले जा रही है। विकास की यह सनक हमें अमानवीय और असंवेदनशील मशीनीकरण की तरफ ले गई और हम ग्रामीण बेरोजगारी के हत्यारे ‘दैत्य’ के जबड़े में पहुंच गए हैं।

सरकारों और विकास संस्थाओं के सारे रंग-बिरंगे और लुभावने दावे, वादे और विज्ञापन जमीन पर आकर झूठे निकलते हैं। आप कुछ मत कीजिये, गांवों से शहर की ओर हो रहे पलायन को देख लें। शहरों में रोज बढ़ रही झुग्गी-बस्तियों को देख लें, क्योंकि, इन्हीं में अपनी जड़ों से उखड़कर आये लोग बसते हैं, तो आप खुद निर्णय कर लेंगे।

हमें यह मान लेना चाहिए कि जब तक कोई बहुत बड़ी मजबूरी न हो या जड़ों से उखडऩे के सिवाय कोई विकल्प ही न हो, तब तक, कोई यूं ही अपना घर-बार या समाज नहीं छोड़ देता।

वर्ष 2015 में बनी ‘दक्षता विकास नीति’ के क्रियान्वयन में दिक्कत ही यही आई है कि किसका सशक्तिकरण करें? अंग्रेजी में कहें तो ‘एम्प्लॉयमेंट’ हैं, ‘एम्प्लॉ’ भी हैं,पर ‘एम्प्लॉयबिलिटी’ नहीं है।

यह सब कृषि पर आये संकट के कारण ही हो रहा है। श्री पी. साईंनाथ ने कहा, वह तो अपनी जगह ठीक ही है, अब तो भारत की सरकार भी मानने लगी है कि बड़ी संख्या में किसान खेती छोडऩा चाहते हैं। सम्मान और सुरक्षा तो छोड़ ही दीजिये। मात्र पेट भरने के लिए काम की तलाश में, बहुत बड़ी संख्या में लोगों का गाँवों से शहरों की ओर पलायन जारी है।

इसी के तहत उत्पादकता और उत्पादन बढ़ाने के नाम पर खेतों में पहुंची हर मशीन ने कृषि से जुड़ी आजीविका से इंसान को बहुत बड़ी संख्या में बाहर किया है। उदाहरण के तौर पर देखें तो पाएंगे कि अकेला एक ट्रैक्टर ही बीस बैलों को खेती से बाहर करता है। अब आप ही गाँवों में ट्रैक्टर गिन लीजिये, और गौ-वंश की रक्षा के हमारे सारे दावों और वादों का सच निकाल लीजिये। यह सिर्फ एक उदाहरण है। शेष मशीनों ने कितने इंसानों की ‘रोजी’ छीनी होगी, यह भी ऊपरवाला ही जानता है।

पूर्व प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहनसिंह ने एक बार प्रधानमंत्री रहते हुए ही कहा था कि ज्यादा से ज्यादा ग्रामीण जनसंख्या को शहरों में लाकर बसाया जाय, तभी ‘राज्य’ उन्हें बेहतर स्वास्थ्य, शिक्षा, आवास और रोजगार की सुरक्षा देने में सफल होगा। डॉ. मनमोहनसिंह जी ऐसे अकेले विद्वान नहीं थे, जो इस तरह का सोचते थे। उनके पहले, और बाद में भी, कई लोगों ने ऐसा सोचा व कहा है।यह मॉडल उन्होंने उत्तर कोरिया की राजधानी सियोल में देखा होगा। वहां उत्पादन कर सकने वाली पूरी आबादी को राजधानी में ही लाकर बसा दिया गया है, ताकि सड़क, अस्पताल, स्कूल, कालेज, बाजार, झूलाघर आदि सब एक ही जगह बनाकर, धन बचाने की बात सोची गई। लेकिन, यह भारत में भी संभव होगा या नहीं, भगवान ही जाने।

ग्रामीण संकट का दुष्चक्र कहां से शुरू होता है और कहां खतम, यह विवाद का विषय हो सकता है, लेकिन कृषि के संकट की शुरुआत मशीनों से आई ‘बेरोजगारीÓ से ही मानी जानी चाहिए। इस बेरोजगारी में जाति प्रथा की भूमिका भी उतनी ही है। तथाकथित रूप से ऊंची जाति के लोग अपनी ‘बेकारी’ की कीमत पर, खेत में काम करना, नीचा काम समझते हैं। इनकी संख्या भी बेरोजगारों में ही जुड़ती है।

भारत की एक शोध संस्था ने बताया था कि पिछली जनगणना में हमारे यहां 15 से 59 वर्ष के लोगों की संख्या 73 करोड़ थी। इस काम कर सकने वाली जनसंख्या में आधी महिलायें हैं, जो अधिकांश कई कारणों से बेरोजगार हैं। बची जनसंख्या की सबसे बड़ी जरूरत रोजगार है, जो मशीनों ने खा लिया है।

चूंकि शहरों में भी हर काम मशीनों से व अधिक दक्षता से होता है,इसलिए इस बड़ी ‘जनशक्ति’ को वहां भी तत्काल उपयोग नहीं किया जा सकता। इसीलिए शहर आकर, इस जनशक्ति का लगभग 93 प्रतिशत हिस्सा,भवन निर्माण सरीखे असंगठित क्षेत्र (छुट्टी मजदूरी) में काम करने लगता है, इसलिए उसकी और उसकी स्वाभाविक-दक्षता की पहचान बहुत ही कठिन हो जाती है। यह बात इसलिए कि अपने यहाँ ‘दक्षता विकास’ का एक बड़ा कार्यक्रम चलता है। मजदूरी के बाद किसी भी आदमी के पास समय ही नहीं है, तो उसे दक्षता देना तो और भी कठिन काम होता है।

जब भी हम ग्रामीण बेरोजगारी की बात करते हैं,तो पहला सुझाव आता है कि ग्रामीण क्षेत्रों में ही नई औद्योगिक इकाईयां आनी चाहिए। लेकिन वे इकाईयां उत्पादक और सर-सब्ज़ (हरी-भरी) जमीन की कीमत पर ही तो आएंगी। क्योंकि,अब गांवों में लगभग प्रत्येक इंच जमीन पर दबंग काबिज हो चुके हैं। कुछ हद तक बाजार ही गांव चला जाय,तो बात बन सकती है। लेकिन वह भी लाभ की धुरी पर ही टिका है।

‘चिडिय़ा या मछली की आँख’ की तरह सिर्फ लाभ को ही लक्ष्य बनाकर, वन-क्षेत्र में उद्योग लगाने की सोचने वालों के लिए सबसे पहले वहां के वन्य-जीव आदमखोर हो जाते हैं, या ठहरा दिए जाते हैं। उन्हें भाड़े के शिकारियों से सरकार के संरक्षण में कानूनन मरवाया जाता है। गांव के गाँव खाली होते हैं, पेड़ काटे जाते हैं, फिर भी, बावजूद सबके, अपनी जड़ से उखड़ा ग्रामीण, जिंदा रह सकने जितना काम पाता ही नहीं है। बेकारी का दुष्चक्र या मौत का कुआं यहां भी खत्म नहीं होता।

  • कमलेश पारे
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