Editorial (संपादकीय)

ग्लोबल वार्मिंग और किसान

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ग्लोबल वार्मिंग और किसान

ग्लोबल वार्मिंग और किसान – वैज्ञानिक मानते हैं कि मानवीय गतिविधियाँ ही ग्लोबल वार्मिंग के लिए दोषी हैं। ग्लोबल वार्मिंग का मतलब है कि पृथ्वी लगातार गर्म होती जा रही है। उससे न केवल सूखा, बाढ़ जैसी घटनाएं बढ़ेगी बल्कि इसका असर दूसरे रूपों में भी दिखाई देने लगा है ग्लेशियर पिघल रहे हैं और रेगिस्तान पसरते जा रहे हैं। कहीं असामान्य बारिश हो रही है तो कहीं असमय ओले पड़ रहे हैं। कहीं सूखा है तो कहीं नमी कम नहीं हो रही है। वैज्ञानिक मानते है कि इस परिवर्तन के पीछे ग्रीन हाउस गैसों की मुख्य भूमिका है।जिन्हें सीएफसी या क्लोरो फ्लोरो कार्बन भी कहते हैं। इनमें कार्बन डाई ऑक्साइड है, मीथेन है, नाइट्रस ऑक्साइड है और वाष्प है।

ये गैसें वातावरण में बढ़ती जा रही हैं और इससे ओज़ोन परत की छेद का दायरा बढ़ता ही जा रहा है. इसका एक प्रमुख कारण अनियंत्रित औधोगिकरण और विलाशतापूर्ण जीवन शैली भी है।पृथ्वी के लगातार बढ़ रहे तापमान के कारण खाद्यान की कमी की चिंता का विषय है। यदि धरातल का तापमान ऐसे ही बढ़ता रहा तो हमारे सामने खाने का संकट आ जायेगा। तापमान की बढ़ती गति को देखे तो आंकड़े बोलते है कि सन 2100 तक धरती का तापमान चल रहे औधोगिकरण ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन से अनुमान है कि तापमान 3.7 डिग्री से 4.8 डिग्री सेल्सियस तक बढ़ जाएगा। 2 प्रतिशत की दर से खाद्यान उत्पादन कम होगा। दुनिया के जलवायु परिवर्तन पर नजर रखने वाली संस्था इंटरगवर्नमेंटल पैनल ऑन क्लाइमेट चेंज(आईपीसीसी) तो यही कहती है।

इसी वर्ष आई अपनी एक रिपोर्ट में आईपीसीसी ने बताया है कि अब यह खतरा दोगुने के करीब हो चुका है दरअसल वर्ष 2007 में आई आईपीसीसी रिपोर्ट की तुलना में पूरी दुनिया में ग्लोबल वार्मिंग के बढ़ते खतरे को दर्शाने वाले साक्ष्य पहले से तकरीबन दोगुने हो चुके हैं। इसका जो असर पर्यावरण पर हो रहा है, उसमें सबसे गंभीर समस्या है खाद्यान्न की कमी के कारण भविष्य में लोगों के पेट भरने की। धरती का तापमान लगातार बढ़ रहा है और यदि इसे रोका नहीं गया तो जलवायु परिवर्तन से उपजे खाद्य संकट से उबरना बहुत मुश्किल हो जाएगा। यह दावा किया जा रहा है कि धरती का तापमान बढऩे का असर हर डिग्री के साथ और गंभीर होता जाएगा। जब ये चार डिग्री के करीब बढ़ेगा तो इसके परिणाम विनाशकारी होंगे।

गेहूं और मक्के की उत्पादकता पर भी प्रभाव

वर्ष 2014 की रिपोर्ट में गेहूं और मक्के की खेती पर पडऩे वाले नकारात्मक प्रभावों सहित भारत के अन्य क्षेत्रों में भी जलवायु परिवर्तन से पडऩे वाले प्रभावों की बात कही गई है। उष्णकटिबंधीय और और अधिक तापमानी क्षेत्रों में दो डिग्री सेल्सियस के इजाफा से नकारात्मक प्रभाव पडऩे की संभावना है। इससे गेहूं और मक्के की उत्पादकता पर भी प्रभाव पड़ेगा। वैज्ञानिकों का मत है कि बढ़ते तापमान की वजह से चावल और गेहूं के उत्पादन पर तगड़ा प्रभाव पड़ता है। जैसे-जैसे तापमान में इजाफा होगा। वैश्विक स्तर पर चावल और गेहूं के उत्पादन में भी करीब 6 से 10 प्रतिशत की होने की संभावना है।

दिन में बढ़े हुए तापमान के मुकाबले रात में बढ़े हुए तापमान से चावल के उत्पादन पर ज्यादा प्रभाव पड़ता है। बड़े हुए तापमान के कारण खड़ी फसलों में कीड़े और बीमारी लगने की संभावना ज्यादा पाई जाती है। इन कीटों से भारी मात्रा में फसलों का नुकसान होता है। रिपोर्ट में यह भी बात निकलकर सामने आई कि तापमान में इजाफे से अनाज की गुणवत्ता में कमी आती है।यह फसलों की पौष्टिकता को प्रभावित करेगा।पौष्टिक तत्व जड़ों से फलों तक कम मात्रा में पहुंचेंगे। खाद्यान्न कम वजन के होंगे। फलस्वरूप प्रति हेक्टेयर उत्पादकता प्रभावित होगी।

फल एवं सब्जियों के पेड़-पौधों में फूल तो खिलेंगे किंतु फल या तो कम आएंगे या कम वजन और पौष्टिकता वाले होंगे, उनकी पौष्टिकता प्रभावित होगी। बासमती एवं दूसरे प्रकार के चावलों की खुशबू प्रभावित होगी।

तापमान वृद्धि से समुद्र का जलस्तर बढऩे से तटीय इलाकों में रहने वाले करोड़ों लोग पहले तो अपने जलस्रोतों के क्षारीय हो जाने की समस्या झेलने को मजबूर होंगे और फिर उनके खेतों और घरों को समुद्र निगल जाएगा।

सामुद्रिक सतह के तापमान में 3 डिग्री सेल्सियस की वृद्धि होने से बहुत से समुद्री जीव-जन्तु ऐसे स्थानों में चले जाएंगे जहां पर वह पहले कभी नहीं रहे। हिमालय के ग्लेशियर प्रति वर्ष 30 मीटर की दर से घटने लगेंगे जिससे उत्तर भारत के राज्यों में खेती के लिए पानी का संकट पैदा हो जाएगा। आने वाले वर्षों में जलवायु में केवल इन दो बदलावों से करोड़ों भारतीय प्रभावित होंगे।

  • ग्लोबल वार्मिंग से ध्रुवीय बर्फ पिघलने से अनेक कृषि भूभाग जलमग्न हो जाएगा।
  • हिमाचल ने निकलने वाली नदियों में बाढ़ आ जायेगी
  • फसलों की बुआई के समय नमी जरूरी है।तापमान बढऩे से नमी कम होगी तो इसका बुआई पर असर पडऩा तय है।
  • तापमान बढऩे के कारण सूखा पडऩे की आंशका भी बढ़ जाएगी। और उत्पादन प्रभावित होगा।
  • तापमान बढ़ता रहा तो फसलें समय से पहले पकनी शुरू हो जाएंगी जिससे फसलों में पौष्टिकता की कमी होगी।
  • अचानक मौसम बदलाव का प्रभाव प्राकृतिक आपदाओं के रूप में दिखेगा।
  • पानी का स्तर नीचे जा रहा है। जमीन तो सूख ही रही है, इसका प्रभाव सिंचाई के पानी पर पड़ेगा।
  • फसलों में लगने वाले कीड़े भी बढ़ेंगे। नमी के कारण वाइरल और बैक्टीरियल इंफेक्शन भी होंगे।

ग्लोबल वार्मिंग से बचाव के उपाय

वृक्षारोपण पर्यावरण को हानि पहुचा रही गैसों की मात्रा नियंत्रित करने के लिये सबसे अच्छा विकल्प है कि वृक्षारोपण किया जाए।ये न केवल गैसों के स्तर को सुधरेगा बल्कि वर्षा के लिए भी लाभकारी होगा साथ ही साथ मृदा कटाव भी रोकने का कार्य करेगा।

जल संरक्षणजल संरक्षण को रचनात्मक जन-आंदोलन का रूप देकर आम लोगों का योगदान प्राप्त करना सबसे बड़ी जरूरत है। इसके लिए हमें वाटर हार्वेस्टिंग के अलावा पानी को संग्रह करने के लिए विभिन्न व्यवस्थाएं करनी होंगी।खेती में ऐसी तकनीकी का प्रयोग करना होगा जो पानी की बचत कर सकें। भारत में पिछले कई वर्षों से जल संरक्षण, नमी संरक्षण और भूजल दोहन की योजनाएं लागू की गई हैं, लेकिन इसके मिश्रित परिणाम ही प्राप्त हुए हैं। इस संदर्भ में तकनीकी के अधिकतम इस्तेमाल से काफी कुछ हासिल किया जा सकता है। सेटेलाइट मैपिंग अधिकतम परिणाम हासिल करने की दिशा में वॉटरशेड मैनेजमेंट में बेहद लाभकारी सिद्ध हुई है। हमें सिंचाई परियोजनाओं पर अधिक खर्च करना होगा।

जैविक खेती जैविक खेती को अपनाकर न केवल खाद्यान उत्पादन बढेगा बल्कि उत्पादन की गुणवत्ता भी सुधरेगी और पर्यावरण संरक्षण भी होगा।

  • माधव पटेल, हटा दमोह
    मो.: 9826231950
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