Editorial (संपादकीय)

मृदा जल संरक्षण की अद्भुत तकनीक

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हाइड्रोजेल 

कृषि उत्पादकता को बढ़ाने में सिंचाई जल का एक अहम योगदान है, परन्तु भारत का 42.10 प्रतिशत कृषि क्षेत्रफल केवल वर्षा के जल पर निर्भर है एवं असिंचित दशाओं वाला है। खाद्य सुरक्षा को ध्यान में रखते हुए यह अत्यंत महत्वपूर्ण है कि ऐसी तकनीकों को उपयोग में लाया जाये, जो न केवल जल संरक्षण में सहायक हो अपितु फसलों की उत्पादकता भी बढ़ाए। भारतीय कृषि अनुसन्धान केन्द्र, पूसा, द्वारा विकसित किया गया पूसा हाइड्रोजेल इस दिशा में एक बेहतरीन खोज है। यह एक दानेदार सिंथेटिक पॉलीमर है जो कि जल में अघुलनशील है एवं अपने वजन की तुलना में 400 गुना तक पानी सोखने की क्षमता रखता है।

बुवाई के समय जब खेत में पर्याप्त नमी हो, उस समय पूसा हाइड्रोजेल को (फसल की आवश्यकतानुसार) मृदा में मिला देना चाहिए। यह अतिरिक्त नमी को सोख लेता है, तत्पश्चात् पौधों को समय-समय पर नमी प्रदान करता रहता है, जिससे सिंचाई जल न मिल पाने की दशा में भी फसल प्रभावित नहीं होती। इसका प्रयोग सभी प्रकार की फसलों जैसे कि अनाज, दलहन, तिलहन एवं बागवानी फसलों के उत्पादन में किया जा सकता है। अनेकों शोध में यह भी पाया गया है कि हाइड्रोजेल मृदा के विभिन्न भौतिक गुणों जैसे कि जल संरक्षण क्षमता, घनत्व एवं सांध्रता में सुधार करने में सक्षम है एवं कई ऐसे सूक्ष्म जीवों की संख्या बढ़ाने में मददगार है जो हमारी फसलों के लिए अति उपयोगी हैं। यह विभिन्न खादों एवं उर्वरकों की दक्षता में भी वृद्धि करता है। हाइड्रोजेल के उपयोग से मृदा एवं फसल में किसी भी प्रकार की कोई हानि नहीं पहुंचती तथा यह दो से पांच वर्षों के अन्दर मृदा में जैविक रूप से अपघटित हो जाता है। इस अंतराल के बाद हाइड्रोजेल को देाबारा डाल देना चाहिए। अत: ये कहा जा सकता है कि वर्तमान कृषि को सिंचाई जल की अनुपलब्धता के संकट से बचाने में हाइड्रोजेल एक वरदान की तरह साबित हो सकता है।

  • ऋचा खन्ना
  • प्रदीप कुमार 
  • राम कुमार

कृषि विभाग, IFTM, विश्वविद्यालय, मुरादाबाद

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