Editorial (संपादकीय)

टिकाऊ खेती का आधार भूमि

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टिकाऊ खेती का आधार भूमि – फसल उत्पादन में आदानों की भूमिका का महत्व तो सभी जानते है क्योंकि बुआई उपरांत पौधों का पोषण प्रबंध, जल प्रबंध भूमि ही करती है। यदि भूमि की उपजाऊ शक्ति बनी रहे तो उत्पादन पर प्रभाव नहीं पड़ पाता है। आमतौर पर कृषक भूमि की उपजाऊ शक्ति बनाये रखने के लिये सतत प्रयत्नशील रहता है फिर भी पिछले कुछ दशकों से अन्न की अतिरिक्त मांग के चलते और फसल सघनता बढ़ाने पर मजबूर कृषक और शासन के कारण वर्तमान में पर पोषित भूमि के विभिन्न तत्वों का हृास सामने आने लगा है। हम यदि किसी भंडारण से सतत वस्तुओं का निष्कासन करते रहे और उसकी भरपाई में कोताही करें तो निश्चित ही उसकी क्षमता कम होती जायेगी।

यही हाल भूमि का है क्योंकि सतत उत्पादन करने से प्रतिवर्ष भूमि से 1 करोड़ टन प्रमुख तत्व नत्रजन, स्फुर एवं पोटाश का अवशोषण किया जा रहा है परंतु भरपाई नहीं होने के कारण देश की मिट्टी में तीन प्रमुख तत्व तथा दो सूक्ष्म तत्व सल्फर एवं जस्ता की कमी देखी जा रही है। परिणामस्वरूप भूमि की उर्वराशक्ति दिन पर दिन कम होती जा रही है। इस कमी को पूरा करने के लिये सबसे बड़ी आवश्यकता है भूमि में उपलब्ध पोषक तत्वों की जांच और सिफारिश के अनुसार उर्वरकों का उपयोग परंतु आज भी यह प्रक्रिया कृषकों द्वारा शत-प्रतिशत तो दूर आधे स्तर पर नहीं अपनाई जा रही है, जबकि शासन द्वारा मिट्टी परीक्षण के लिये बड़ी तादात में प्रयोगशाला किसानों की पहुंच के अंदर उपलब्ध कराई गई हैं।

आमतौर पर यह देखा गया है कि सिफारिश के अनुरूप बिना मिट्टी परीक्षण कराये उर्वरकों का उपयोग या फिर असंतुलित उर्वरक उपयोग के साथ ‘यूरिया’ आधारित खेती की जा रही है क्योंकि यूरिया डालने का प्रभाव फसलों पर शीघ्र दिखाई दे जाता है। इसे डालकर कृषक हरापन देख लेता है और अच्छी फसल/उत्पादन की कल्पना कर बैठता है। मिश्रित खेती का आधार भी खेती में पिछले दशकों से मशीनीकरण के चलते कम होता जा रहा है। जानवरों की संख्या बहुत कम हो गई है उनकी उपयोगिता खेती के कामों के अलावा और भी है इस बात को नजरअंदाज किया जा रहा है। परिणामस्वरूप पोषक तत्वों के परम्परागत श्रोत जैसे गोबर खाद, हरी खाद इत्यादि की उपयोगिता हांसिये में आ गई। इसका असर भूमि की उर्वराशक्ति पर पड़ता गया यह बात सच है कि रसायनिक उर्वरकों की तुलना में जैविक श्रोतों में पोषक तत्वों की कमी होती है। लेकिन भूमि की भौतिक दशा में सुधार लाने के लिये जैविक खादों का समावेश अत्यंत आवश्यक है।

देश में कई दशकों से धान-गेहूं फसल चक्र चल रहा है क्योंकि दोनों ही फसलें अनाज फसलें हैं इस फसलों की प्रति इकाई क्षेत्र भूमि से पोषक तत्वों के अवशोषण अन्य फसलों की तुलना में अधिक है जिसके कारण भूमि की उर्वराशक्ति घटने लगी है इस कारण फसल चक्र में बदल, फसलों का हेरफेर आवश्यक रूप से अपनाया जाना चाहिए। फसल चक्र में यदि दलहन फसलों का विस्तार होने लगे या हरी खाद के जैसे ढेंचा, सनई, लोबिया की बुआई का अंगीकरण बड़े पैमाने में किया जा सके तो खेती की उर्वराशक्ति में सकारात्मक असर दिखने लगेगा और उत्पादन भी टिकाऊ हो पायेगा। दलहनी फसलों में रायजोबियम, पीएसबी कल्चर के उपयोग से भूमि में नत्रजन की स्थिरता सरलता से बढ़ाई जा सकती है।

भूमि की उर्वराशक्ति कायम रखने के लिये जल के उचित प्रबंधन का भी विशेष योगदान है विशेषकर कमांड क्षेत्रों में जहां पर उपलब्ध जल के बराबर के बंटवारे पर नियंत्रण नहीं आ पा रहा है। अनियंत्रित जल के उपयोग से भूमि के स्वास्थ्य पर विपरीत असर हो रहा है खेत में पानी थमा रहने से वायु का प्रवाह अवरोधित हो जाता है तथा जड़ों के विकास पर विपरीत असर होता है तथा भूमि की भौतिक दशा भी खराब होती जाती है देश में ऐसे विभिन्न क्षेत्रों में अम्लीयता तथा क्षारीयता बढ़ती जा रही है जिस पर नियंत्रण जरूरी होगा। भूमि का समतलीकरण करके कृषि कार्यों जैसे बुआई, सिंचाई, कटाई सभी की गति बढ़ाई जा सकती है तथा भूमि के कटाव पर भी रोक लगाई जा सकती है। भूमि राष्ट्र की सम्पत्ति है। उसकी देखभाल आज की महती आवश्यकता है जो आप कृषकों के हाथों में ही तो है।

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