मध्य भारत में गेहूं की खेती के गुर
प्रजातियों का विकास: अधिक उत्पादकता, शीघ्र पकने वाली तथा सूखारोधी प्रजातियों का विकास।
– अनुमोदित तकनीकों के मूल्यांकन एवं पुनस्थापन द्वारा उत्पादन लागत कम करना।
– खरीफ फसल कटाई के बाद खेत की सीमित जुताई।
– अधिक जल-उपयोग क्षमता वाली प्रजातियों का विकास।
– जल-उपयोग क्षमता बढ़ाने के लिये सस्य तकनीक।
– गेहूं की खेती में पौध संरक्षण रसायनों का उपयोग सीमित करना।
– ड्यूरम/मालवी गेहूं का विकास।
कम पानी की किस्में ( चन्दौसी किस्में)
इस गेहूं को आष्टा/सीहोर शरबती या विदिशा/सागर चन्दौसी के नाम से उपभोक्ताओं एवं आटा उद्योगों में प्रीमियम गेहूं के रूप में जाना जाता है। यह गेहूं अपनी चमक, आकार, स्वाद, और उच्च बाजार भाव के लिये सुप्रसिद्ध है। मध्य भारत की भूमि और जलवायु उत्तम गुणों वाले गेहूं के उत्पादन के लिये वरदान है। कम सिंचाई की चंदौसी प्रजातियॉँ केवल 1-2 सिंचाई में 20-40 क्विंटल/हेक्टेयर उत्पादन में सक्षम हैं।
मध्य क्षेत्र के अंतर्गत मध्य प्रदेश, गुजरात, छत्तीसगढ़, उत्तर प्रदेश का बुन्देलखण्ड एवं दक्षिणी राजस्थान सम्मिलित हैं। इस क्षेत्र के लगभग 80 लाख हेक्टेयर क्षेत्रफल में गेहूं बोया जाता है, जो देश में बोये जाने वाले गेहूं के कुल क्षेत्रफल का लगभग 30 प्रतिशत है। मध्य भारत का गेहूं गुणवत्ता में पूरे देश में अग्रणी है। मध्य क्षेत्र, भारत ही नहीं अपितु विश्व में अपने सुन्दर, सुडौल, आकर्षक, चमकदार रंग एवं अन्य गुणों से परिपूर्ण मध्य प्रदेश गेहूं के लिये जाना जाता है। मध्य भारत के गेहूं विकास के लिये निम्न कार्यक्रम चलाये जा रहे हैं:
मालवी/कठिया (ड्यूरम) किस्में
प्रकृति ने मध्यभारत को मालवी/कठिया गेहूं उत्पादन की अपार क्षमता प्रदान की है। इस क्षमता का पर्याप्त दोहन कर वांछित लाभ लिया जा सकता है। मालवी गेहूं का विशिष्ट स्वाद है अत: इसका विभिन्न व्यंजनों में उपयोग किया जाता है। मालवी गेहूं में प्रोटीन तथा येलो पिगमेंट की अधिकता है। साथ ही इसमें कुछ खनिज तत्व (लोहा,जस्ता,तांबा आदि) उपस्थित हैं जो शरीर के लिये लाभदायक हैं। नवीन मालवी/कठिया किस्मों में कम सिंचाई की आवश्यकता, अधिक उत्पादन, गेरूआ महामारी से बचाव व अधिकतम पोषण के गुण होते हैं। देश की गेहूं की खेती को गेरूआ महामारी से मुक्त रखने के लिये, मध्य भारत में ड्यूरम (मालवी) गेहूं की खेती एक नितांत वैज्ञानिक आवश्यकता है। खाद्यान्न एवं पोषण सुरक्षा के लिये मालवी गेहूं की खेती अवश्य करें।
मध्य क्षेत्र के लिये अनुशंसित गेहूं की नवीन प्रजातियाँ | ||||||
बुवाई अवस्था | बुवाई का स़मय | सिंचाई | प्रजातियाँ | खाद की मात्रा (एन:पी:के) | उत्पादन (क्वि./हे.) | |
चन्दौसी/शरबती | कठिया/मालवी | |||||
अगेती | 20 से 30 अक्टूबर | वर्षा आधारित | एच.आई. 1500 (अमृता) | एच.आई. 8627 (मालवकीर्ति) | 60.30.15 | 20-25 |
एच.आई. 1531(हर्षिता) | ||||||
एच.डी. 2987(पूसा बहार) | ||||||
जे-डब्ल्यू. 3020 | ||||||
जे-डब्ल्यू.3173 | ||||||
एम-पी- 3288 | ||||||
20 अक्टूबर से 10 नवम्बर | 1-2 सिंचाई | एच.आई. 1500(अमृता) | एच.आई. 8627 (मालवकीर्ति) एच.आई. 8777 | 80.40.20 | 30-40 | |
एच.आई. 1531(हर्षिता) | ||||||
एच.डी. 2987(पूसा बहार) | ||||||
एच.आई. 1605(पूसा उजाला) | ||||||
जे.डब्ल्यू.3020 | ||||||
जे.डब्ल्यू. 3173 | ||||||
जे.डब्ल्यू. 3211 | ||||||
जे.डब्ल्यू. 3269 | ||||||
एम.पी. 3288 | ||||||
डी.बी.डब्ल्यू.110 | ||||||
समय से | 10 से 25 नवम्बर | 3-6 सिंचाई | एचआई1418(नवीन चन्दौसी) | एच.आई. 8498 | 120:60:30(चन्दौसी/शरबती) 140:70:35 (मालवी/ कठिया किस्में) | 50-55 |
एच.आई.1479(स्वर्णा) | (मालवशक्ति) | |||||
जे.डब्ल्यू.1201 | एम.पी.ओ.1106(सुधा) | |||||
जी.डब्ल्यू. 273 | एम.पी.ओ. 1215 | |||||
जी.डब्ल्यू. 322 | एम.पी.ओ. 1255 | |||||
जी.डब्ल्यू. 366 | एच.आई. 8663(पोषण) | |||||
एच.आई.1544(पूर्णा) | एच.आई. 8713(पूसा मंगल) | |||||
एच.आई. 8737(पूसा अनमोल) | ||||||
एच.आई. 8759(पूसा तेजस) | ||||||
पिछेती | दिसम्बर – जनवरी | 4-5 सिंचाई | एच.आई. 1418 | – | 100.50.25 | 30-45 |
एम.पी. 4010 | ||||||
जे-डब्ल्यू.1202 | ||||||
जे-डब्ल्यू.1203 | ||||||
एच.डी. 2932 (पूसा 111) | ||||||
एम.पी. 3336 | ||||||
राज. 4238 | ||||||
अफ्रीकी काला गेरूआ (यू.जी.99) से प्रतिरोधी |
पिछेती खेती
पिछेती खेती का अर्थ है गेंहू की देर से बुवाई करना। मध्य भारत में समान्यत: दिसम्बर – जनवरी में पिछेती गेहूं की बुवाई की जाती है। इस अवस्था में फसल को पकने के लिये कम समय मिलता है तथा तापमान अधिक होने के कारण केवल पिछेती गर्मी सहने वाली नई प्रजातियों की ही खेती लाभदायक होती है। ये प्रजातियाँ 100-105 दिन में पक जाती हैं तथा इनसे 35-45 क्विंटल प्रति हेक्टेयर तक उपज ली जा सकती है।
खेती के तरीके में बदलाव
गेहूं की खेती में अधिक लाभार्जन तथा सतत उत्पादकता बनाये रखने के लिये अनुसंधान के आधार पर, संस्थान ने नई प्रजातियों के साथ-साथ खेती के तरीके में भी कुछ बदलाव की अनुशंसा की है । इनमें प्रमुख हैं:-
खेत की तैयारी
सितम्बर-अक्टूबर में सोयाबीन/खरीफ कटाई के बाद लगभग 6-8 दिनों तक खेत की जमीन मुलायम रहती है। अत: जितना जल्दी हो सके आड़ी एवं खड़ी, केवल दो जुताई (पंजा या पावड़ी द्वारा) भारी पाटा के साथ करें ।
बुवाई समय
अगेती बुवाई अर्थात् असिंचित तथा अर्धसिंचित खेती में 20 अक्टूबर से 10 नवम्बर, सिंचित समय से बुवाई में 10-25 नवम्बर, तथा देरी से बुवाई में दिसम्बर माह में एवं अत्यंत देरी से बुवाई में जनवरी माह (प्रथम सप्तााह) में बुवाई अच्छी रहती है।
किस्मों का चयन
उन्नत खेती के लिये सुलभ प्रमाणित बीजों का ही उपयोग करें। प्रमाणित और आधारीय बीजों के उपयोग से, उपज अधिक मिलती है तथा उपज की गुणवत्ता बनी रहती है। गेंहू की सफल खेती का अहम पहलू उपयुक्त किस्मों का चुनाव है। अन्य लागतों का प्रभाव भी उन्नत किस्मों पर ही निर्भर करता है (तालिका 1)।
बीज दर
1000 दानों के वजन के आधार पर बीज की दर निर्धारित करें। सामान्य तौर पर छोटे दानों की किस्मों के लियेे100 किलो प्रति हेक्टेयर एवं बड़े दानों वाली किस्मों का 125 किलो प्रति हेक्टेयर बीज उपयोग में लाना चाहिए।
बुवाई
उर्वरक को बीज बोने से पहले सीडड्रिल द्वारा खेत में 3 से 4 इंच (8 से 10 सेमी) की गहराई पर ओरना चाहिए। इससे बीज का अंकुरण व फसल का उठाव अच्छा होता है। सूखे में बुवाई कर ऊपर से दिया गया पानी गेंहू फसल में अधिक समय तक काम आता है।
सिंचाई प्रबंधन
एक या दो सिंचाई उपलब्ध होने पर 20 अक्टूबर से 10 नवंबर के बीच बुवाई करें। तीन या अधिक सिंचाई उपलब्ध होने पर, 5 से 25 नवंबर का समय सबसे उपयुक्त है।
विभिन्न प्रजातियों के लिए उपर्युक्त सिंचाई अंतराल
-एक सिंचाई वाली जातियों में उगने वाले पानी के बाद एक मात्र सिंचाई 35-40 दिन की अवस्था पर करें।
-दो सिंचाई वाली जातियों में उगने वाले पानी के बाद प्रथम सिंचाई 35-40 दिन पर तथा दूसरी सिंचाई 75-80 दिन पर करना अधिक लाभप्रद रहता है।
-पूर्ण सिंचित जातियों में अंकुरण हेतु दिये गये पानी के बाद 4 सिंचाईयाँ उपलब्ध होने की अवस्था में 20-25 दिन के अंतराल पर 4 सिंचाईयाँ करें। यदि 3 ही सिंचाई उपलब्ध हो तो 25-25 दिन के अंतराल से 3 सिंचाईयाँ करना लाभदायक होता है।
-देर से बुवाई वाली प्रजातियों में अंकुरण हेतु दिये गये पानी के बाद 17-18 दिन के अंतराल से 3-4 सिंचाई करें।
सिंचाई पद्धति
सिंचाई करने की आधुनिक पद्धति, क्यारी पद्धति होती है, इस पद्धति में बुवाई के पश्चात हर 15 से 20 मीटर की दूरी पर आड़ी तथा खड़ी दोनो दिशाओं से सीधी नालियां बनाई जाती है। यह नालियां देशी हल, कुल्पा या रिजर द्वारा आसानी से बनाई जा सकती है। अंत में खेत के चारों ओर भी नालियां बना देते है। इस विधि में नालियों द्वारा एक-एक क्यारी की बारी से सिंचाई की जाती है, इस विधि से सिंचाई करने पर सरी विधि की तुलना में आधे सिंचाई जल की आवश्यकता ही होती है।
उर्वरक
गेहूं की प्रजाति के अनुसार खाद की मात्रा और उपलब्ध सिंचाई का तालमेल भरपूर उत्पादन क्षमता सुनिश्चित करता है। गेहूं की फसल के लिये संतुलित खाद में नत्रजन, स्फुर व पोटाश का अनुपात क्रमश: 4:2:1 होना चाहिये, अर्थात् नत्रजन चार भाग, स्फुर दो भाग एवं पोटाश एक भाग। खेत की उर्वरता के अनुसार खाद की मात्रा कम की जा सकती है, अन्यथा बढ़ाई जा सकती है। यह कार्य प्रयोगशाला में मिट्टी परीक्षण एवं उर्वरक अनुशंसा के पश्चात ही करेें। स्ंतुलित खाद के उपयोग से फसल की बढ़वार संतुलित व स्वस्थ होती है, एवं प्रजाति की क्षमता अनुसार उत्पादन मिलता है। स्ंतुलित खाद भूमि को स्वस्थ रखकर इसकी उर्वराशक्ति एवं उत्पादन क्षमता को सतत बनाये रखती है। ऊँचे कद की (कम सिंचाई वाली) जातियों में नत्रजन: स्फुर: पोटाश की मात्रा 80:40:25 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर बुआई से पूर्व ही दें। बौनी किस्मों को नत्रजन: स्फुर: पोटाश की मात्रा 140:70:35 किलो ग्राम प्रति हेक्टेयर दें। इनमे नत्रजन की आधी मात्रा और स्फुर एवं पोटाश की पूरी मात्रा बुआई पूर्व दें तथा नत्रजन की शेष आधी मात्रा प्रथम सिंचाई (बुआई के 20 दिन बाद) दें।
जीवांश खाद
सतत उत्पादकता बनाये रखने के लिये भूमि में कम से कम आधा प्रतिशत (0.5 प्रतिशत) जैविक कार्बन होना चाहिये। जमीन की उर्वराशक्ति व स्वास्थ्य को बनाये रखने हेतु जीवांश खादें जैसे: गोबर की खाद, मुर्गी की खाद या हरी खाद का उपयोग आवश्यक है। खेत में डाले गये रसायनिक उर्वरकों की सक्रियता के लिये, खेतों में पर्याप्त जैविक कार्बन की उपलब्धता अति आवश्यक है। गोबर की खाद 10 टन प्रति हेक्टेयर प्रति वर्ष या मुर्गी की खाद 2.5 टन प्रति हेक्टेयर प्रति वर्ष या हरी खाद के लिये पहली वर्षा के साथ खेत में ढैंचा या सनई की बुआई करें। हरी खाद की 30 से 35 दिन की फसल को जुताई कर खेत मे मिला दें। फसलों के अवशेष जलाने से खेत के लाभदायक सूक्ष्म जीव व जीवांश नष्ट हो जाते हैं तथा जमीन बंजर हो सकती है।
कटाई एवं मड़ाई
गेहूं की कटाई एवं मंड़ाई किस्मों के आधार पर करें। जल्दी पकने वाली किस्मों को पहले काटें। दानों को झडऩे से बचाने के लिए शरबती/चन्दौसी किस्मों की कटाई पहले तथा मालवी/कठिया किस्मों की बाद में करें। फसल काट कर 4-5 दिन खेत में अच्छी तरह से सुखायें तब थ्रेसिंग करें। अपरिपक्व दानों की गुणवत्ता कम हो जाती है तथा भण्डारण में कीट लगने का भय रहता है।
खेती में जोखिम कम करना
आज खेती में जोखिम बढ़ता जा रहा है तथा लाभार्जन कम होता जा रहा है। कृषकों को चाहिए कि लाभ बढ़ाने तथा जोखिम कम करने के लिये निम्न उपायों का अनुसरण करें:
-बीज ग्रामों की स्थापना ।
-कृषि आदानों की लागत में यथासंभव कमी करना ।
-फसलों, प्रजातियों, फसल चक्र, फार्म उद्यमों तथा कृषि-उद्योगों द्वारा कृषि का विविधिकरण।
-गांव आधारित भण्डारण एवं विपणन की व्यवस्था करना।
-स्वयं सहायता समूह तथा ग्रामीण संस्थाएं बनाकर स्वसशक्तिकरण करना।
-उत्तर भारत के लिये अनुमोदित किस्में मध्य भारत में न लगायें तथा संवेदनशील किस्में जैसे सुजाता, लोक-1 तथा डब्ल्यू. एच. 147 आदि की खेती ना करें।
-मालवी /कठिया गेहूं की नई किस्मों की खेती करें, ये रोटी वाले गेहूं पर लगने वाले गेरूआ रोगों से प्रतिरोधी हैं।
-बालियां निकलते समय फव्वारे का पानी करनाल बंट संक्रमण को बढ़ावा देता है।
आवश्यक होने पर खरपतवार नियंत्रण हेतु निम्न खरपतवारनाशी रसायनों का इस्तेमाल किया जा सकता है:
चौड़ी पत्ती वाले खरपतवारों के लिये: 2-4 डी 650 ग्राम सक्रिय तत्व/हे. अथवा मैटसल्फ्युरॉन मिथाइल 4 ग्राम सक्रिय तत्व/हे. 550-600 लीटर पानी में मिलाकर 30-35 दिन की फसल होने पर छिड़कें।
संकरी पत्ती वाले खरपतवारों के लिये: क्लॉडीनेफॉप प्रोपरजिल – 60 ग्राम सक्रिय तत्व/हे. 550-600 लीटर पानी में मिलाकर 30-35 दिन की फसल होने पर छिड़कें।
दोनों प्रकार के खरपतवारों के लियेे: एटलान्टिस 400 मिलीलीटर अथवा वैस्टा 400 ग्राम अथवा सल्फोसल्फ्युरॉन 25 ग्राम सक्रिय तत्व/हे. अथवा सल्फोसल्फ्युरॉन 25 ग्राम सक्रिय तत्व/हे. मैटसल्फ्ूरॉन मिथाइल 4 ग्राम सक्रिय तत्व/हे. 550-600 लीटर पानी में मिलाकर 30-35 दिन की फसल होने पर छिड़कें।
खरपतवार प्रबंधन
गेहूं की फसल को पहले 35 दिन तक खरपतवार विहीन रखना अति आवश्यक है, यदि हाथ से खींचकर, खुरपी द्वारा या हो आदि चलाकर खत्म कर दिया जाये तो उत्तम रहता है। इसके लिये निम्न बातों का ध्यान रखें:
-साफ-सुथरी खेती करें।
-साफ-सुथरे एवं शुद्ध बीज का उपयोग करें।
-बुवाई के लगभग एक महीने बाद `हैण्ड हो’ से निदाई-गुड़ाई करें एवं डोरे चलायें।
-अति आवश्यक होने पर ही उपयुक्त खरपतवारनाशी रसायनों का उपयोग विशेषज्ञ की सलाह से सावधानीपूर्वक करें।
-खरपतवारों के नियंत्रण के लिए फसल-चक्र में बदलाव लायें। गेहूं-सोयाबीन फसल-चक्र में, सोयाबीन के स्थान पर मक्का, ज्वार और अरण्डी तथा गेहूं के स्थान पर चना, बरसीम, सूरजमुखी तथा सरसों लें।
-मेढ़, रास्ते तथा नालियों को खरपतवार से मुक्त रखें। खरपतवार के बीज मेढ़, रास्ते तथा नालियों से खेत में चले जाते हैं।
-भूमि को बांझपन से बचाने के लिए, खरपतवार नियंत्रण हेतु खरपतवारनाशी रसायनों का उपयोग कम से कम करें।
अनिल कुमार सिंह, उपेन्द्र सिंह, अब्दुल वसीम, एस. व्ही. साईंप्रसाद ,भारतीय कृषि अनुसंधान संस्थान क्षेत्रीय केंद्र, इंदौर