फसल की खेती (Crop Cultivation)

जर्मप्लाज्म संरक्षण एवं खाद्य सुरक्षा

डॉ. अतुल पचौरी एवं डॉ. दीपक खेर स्कूल ऑफ एग्रीकल्चर; संजीव अग्रवाल ग्लोबल एजुकेशनल यूनिवर्सिटी, भोपाल, मध्य प्रदेश |

02 अप्रैल 2024, भोपाल: जर्मप्लाज्म संरक्षण एवं खाद्य सुरक्षा – जैसे-जैसे आदिम मनुष्य को भोजन और आश्रय के लिए पौधों की उपयोगिता के बारे में पता चला, उसने एक मौसम से दूसरे मौसम तक चयनित बीजों या वानस्पतिक प्रवर्धन को बचाने की आदत विकसित की। दूसरे शब्दों में, इसे आदिम लेकिन पारंपरिक जर्मप्लाज्म संरक्षण और प्रबंधन माना जा सकता है, जो प्रजनन कार्यक्रमों में अत्यधिक मूल्यवान है। जर्मप्लाज्म संरक्षण (या भंडारण) का उद्देश्य भविष्य में किसी भी समय उपयोग के लिए किसी विशेष पौधे या आनुवंशिक स्टॉक की आनुवंशिक विविधता को संरक्षित करना है। हाल के वर्षों में, वांछित और बेहतर विशेषताओं वाली कई नई पौधों की प्रजातियों ने आदिम और पारंपरिक रूप से उपयोग किए जाने वाले कृषि पौधों की जगह लेना शुरू कर दिया है। लुप्तप्राय पौधों का संरक्षण करना महत्वपूर्ण है अन्यथा आदिम पौधों में मौजूद कुछ मूल्यवान आनुवंशिक गुण नष्ट हो सकते हैं।

विभिन्न फसलों की बहुत सी परंपरागत प्रजातियों का लुप्त होना, कई देशों में यह देखा गया है कि बहुत सी फसलों की प्रजातियां जो किसानों के पास पीढ़ी-दर-पीढ़ी सैकड़ों वर्षों से सुरक्षित थीं, वह कुछ दशकों में ही खेतों से गायब होने लगी. इसकी मुख्य वजह यह थी कि किसानों को विभिन्न फसलों की ऐसी नई किस्में उपलब्ध हो रही थीं जिनमें रसायनिक खाद व कीटनाशकों का उपयोग कर फसलों की अधिक उत्पादकता प्राप्त की जा सकती थी. जैसे-जैसे जल्दबाजी में यह नई फसलें खेतों में पहुंची, वैसे-वैसे बहुत सी परंपरागत किस्मों के लुप्त होने की प्रक्रिया प्रारंभ हुई. किसान परिवारों की नई पीढ़ी को प्रायः परंपरागत बीजों के बारे में जानकारी नहीं थी. यह प्रवृत्ति विश्व कृषि व खाद्य सुरक्षा के लिये बहुत चिन्ताजनक है क्योकि किसानों के पास जो जैव विविधता हजारों वर्षों से सुरक्षित रही है वह कृषि के बहुमुखी व टिकाऊ विकास के लिये बहुत जरूरी है. इन परंपरागत फसलों में ऐसे कई गुण थे जो हमारे देश में व विश्व स्तर पर खाद्य सुरक्षा सुनिश्चित करने के लिये बहुत महत्वपूर्ण है.भारत में धान की हजारों परंपरागत किस्में मौजूद हुत महत्वपूर्ण है. भारत में धान की हजारों परंपरागत किस्में मौजूद रही हैं. कृषि वैज्ञानिक डा. रिछारिया ने स्वयं धान की लगभग 24000 किस्मों व उपकिस्मों को उनके गुणों सहित सूचीबद्ध किया था. गेहूं की भी सैकड़ों किस्में मौजूद रही हैं. इसी तरह  विभिन्न अन्य फसलें विशेषकर मोटे अनाजों की विविध किस्में भी खेतों में सैकड़ों वर्षों में उपलब्ध रही हैं. हमारे देश की जलवायु जैव विविधता के पनपने के अनुकूल हैं. हमारे देश में कृषि का इतिहास हजारों वर्ष पुराना है और किसानों के पास जो समृद्ध ज्ञान पीढ़ी दर पीढ़ी चलता रहा, उसने खेतों में फसलों की बेहतर समृद्ध जैव-विविधता बनाए रखने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई |

इसका लाभ यह मिलता रहा कि अलग-अलग तरह की भूमि व मिट्टी के लिये उसके अनुकूल बीज उपलब्ध हो जाते थे. चूंकि किसी भी गांव के खेतों में कई विविध किस्मों की फसल बोई जाती थी, अतः किसी एक बीमारी या कीट में फैलने पर पूरी फसल क्षतिग्रस्त नहीं होती थी. यदि मौसम प्रतिकूल हुआ तो उसके अनुकूल फसल की किस्मों या पीढ़ी बीजों में बदलाव कर फसल को बचाया जा सकता था. उदाहरण के लिये जिस वर्ष सूखे की स्थिति चल रही है उस वर्ष ऐसे बीज बोना जिसमें सूखा सहने की क्षमता हो या कम पानी में पनपने की क्षमता हो |

इसके अतिरिक्त किसी फसल की विभिन्न किस्में अपने अलग अलग खाद्य गुण के लिये जानी जाती थी. उदाहरण के लिये चावल की विभिन्न किस्में अपने विशिष्ट स्वाद व सुगंध के लिये मशहूर रही हैं. चावल की कोई किस्म खीर बनाने के लिये सबसे उपयुक्त थी, चिदवदा (पौध) बनाने के लिए तो कोई मुरमुरा (मूढ़ी) बनाने के लिए. भारत में परम्परागत चावल की ऐसी किस्में भी उपलब्ध रही हैं जो रसायनिक खाद्य व कीटनाशकों के बिना ही आज की उत्पादकता के बराबर या उससे अधिक उत्पादकता देने में सक्षम थीं, पर ऐसी किस्में कुछ तरह की भूमि या मिट्टी के लिये ही उपयुक्त मानी गई थी. इन परंपरागत किस्मों के लुप्त होने से निश्चय ही हमारे जीवन का बहुत सा स्वाद व सुगंध हमसे छिन गया, पर खाद्य सुरक्षा की जो क्षति हुई वह इससे कहीं अधिक गंभीर व व्यापक है. परंपरागत किस्मों के होने का एक अर्थ यह है कि विविध तरह के बीजों में जो बीमारियों व हानिकारक कीटों के विरूद्ध प्रतिरोधक शक्ति थी, वह अब उपलब्ध नहीं रही. इन फसलों के लुप्त होने का एक अन्य अर्थ यह है कि बाढ़, सूखे या दलदलीकरण जैसी प्रतिकूल परिस्थितियों में जो बीज पनप सकते हैं वे बीज उपलब्ध नहीं रहे |

विश्व में जलवायु बदलाव के संकट के साथ मौसम का तरह- तरह का अप्रत्याशित व्यवहार देखा जा रहा है. इस स्थिति में तो परंपरागत बीजों द्वारा उपलब्ध करवाई गई जैव विविधता और भी आवश्यक है. इस संदर्भ में कभी-कभी यह कहा जाता है कि स्थिति इतनी चिन्ताजनक नहीं है. क्योंकि बहुत से परंपरागत बीज जो किसानों के खेतों में लुप्त हो गए हों, किन्तु उन्हें वैज्ञानिकों ने अनेक ‘जीन-बैंकों’ में बचा कर रखा है ताकि आवश्यकता पड़ने पर इनका उपयोग हो सके. इनमें से कुछ जीन बैंक भारत सहित विभिन्न देशों की सरकारों ने अपने स्तर पर स्थापित किए हैं. दूसरी ओर अन्य जानकार विशेषज्ञों ने याद दिलाया है कि करोड़ों में जितनी जैव विविधता सुरक्षित रह सकती है. थोड़े बीज का खेती में अपना अलग महत्व है. परम्परागत बीज का उपयोग जाति विकास कार्यक्रम का आधार होता है इस कारण उसकी सुरक्षा, पालन-पोषण की आवश्यकता है. किसानों के खेतों से जीन बैंकों में उसका बहुत कम हिस्सा ही सुरक्षित रखा जा सकता है. एक छोटे से स्थान पर बहुत-सी किस्में एकत्र कर ली जाएं तो किसी दुर्घटना या लापरवाही से क्षतिग्रस्त होने की संभावना भी रहती है. वैसे भी खेतों में प्राकृतिक माहौल में जैव विविधता को जो सुरक्षा मिल सकती है, उसकी बराबरी जीन बैंक कभी नहीं कर सकते हैं |

अतः खाद्य सुरक्षा की दृष्टि में सबसे कारगर उपाय यही है कि किस्म सुधार से फसलों में ऐच्छिक गुण, जैसे चारे वाली फसलों में लंबाई, अधिक फुटाव का गुण, कुछ धान्य फसलों में बौनापन का गुण, फलों में मिठास का गुण आदि विकसित किए जा सकते हैं। फसलों में व्यापक अनुकूलता वाली किस्मों का विकास कर, पर्यावरण की विभिन्न परिस्थितियों में फसल उत्पादन में स्थायीपन लाया जा सकता है। नई को नए सिरे से परंपरागत बीजों की सुरक्षा के लिये सचेत करने के लिये एक विशेष अभियान चलाने की आवश्यकता है |

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