गर्मी में मूंग की खेती लाभदायक
आदित्य प्रताप, प्रवीण कुमार, ज्योति सिंह भारतीय दलहन अनुसंधान संस्थान, कानपुर
01 अप्रैल 2024, भोपाल: गर्मी में मूंग की खेती लाभदायक – मूँग भारत में उगाई जाने वाली प्राचीनतम फसल है। पुरातत्व अध्ययनों के अनुसार भारत में मूँग का उत्पादन 2200 ईसा पूर्व से हो रहा है और संभवत: इसका उद्गम व विकास स्थल भी भारतीय उपमहाद्वीप ही है। दक्षिण पूर्व एशिया, अफ्रीका, दक्षिण अमेरिका और ऑस्ट्रेलिया में मूंग प्रमुख रूप से उगायी जाने वाली फसल है जो कि शाकाहारी लोगों की प्रोटीन की आवश्यकता को पूरी करती है। भारत में मूँग प्रमुखत: खरीफ ऋतु में एकफसली अथवा सहफसली खेती के रूप में उगाई जाती है। भारत के कई भागों में बसंत/ग्रीष्म ऋतु में भी काफी बड़े क्षेत्र में मूँग की खेती की जाती है क्योंकि सिंचाई की सुविधाओं में बढ़ोत्तरी हुई है, जिससे अच्छी फसल द्वारा लाभकारी मूल्य प्राप्त होता है। कम अवधि की अच्छी किस्मों के बीजों की उपलब्धता भी बढ़ी है। पहले धान के परती क्षेत्रों के किसानों की पहली पसन्द उर्द होती थी, किन्तु हाल के वर्षो में यह जगह धान के परती क्षेत्रों में मूँग ने ले ली है। कम अवधि (60-65 दिन) की नई किस्म के बीजों के विकास, अधिक पैदावार (1.0-1.5 टन/हेक्टेयर) प्रकाश/ऊष्मा के प्रति असंवेदनशीलता, कम अवधि की परिपक्वता और पीला चितेरी रोग के प्रति प्रतिरोधिता आदि कुछ ऐसे कारक हैं जिनकी वजह से विगत दो दशकों में ग्रीष्म ऋतु में मूँग की खेती में काफी बढ़ोत्तरी हुई है। उत्तरी एवं पूर्वी भारत के सिंचित क्षेत्र में नगदी फसल व धान-गेहँू पद्वति में विविधीकरण लाने में गुजरात और मध्य प्रदेश के नहर प्रणाली द्वारा सिंचित क्षेत्रों में एक बोनस फसल के रूप में तथा तमिलनाडू में कावेरी नदी की घाटी में डेल्टा क्षेत्रों में दो धान फसलों के बीच मध्य फसल के रूप में ग्रीष्म ऋतु में मूँग को एक आदर्श फसल के रूप में बोया जा सकता है। मूँग की खेती की सफलता की वजह से न केवल मूँग का उत्पादन बढ़ा है बल्कि कुपोषण को हराने में, फसल विविधीकरण में, कृषि उत्पादन को बनाये रखने में और भारत के गरीब किसानों की आय बढ़ाने में काफी मदद मिली है।
बुआई का समय- बसन्तकालीन मूँग की बुआई के लिए मार्च का पहला पखवाड़ा और ग्रीष्म ऋतु में बुवाई के लिए अप्रेल का प्रथम सप्ताह ठीक रहता है। हरियाणा, पश्चिमी, उत्तर प्रदेश और राजस्थान में 10 अप्रेल के बाद बुआई से बचना चाहिए क्योंकि उच्च तापमान और गर्म हवाएं मूँग में फूलने की अवस्था पर विपरीत प्रभाव डालती हैं और अन्तत: पैदावार कम होती है। इसी प्रकार देर से बोयी गयी फसल के परिपक्व होने के साथ ही समय से पूर्व आयी मानसूनी वर्षा पत्तों से संबधित अनेक बीमारियों का कारण बनती है। उत्तर प्रदेश में प्रचलित ग्रीष्म कालीन मूँग की गेहूँ और सरसों के साथ की गयी बुआई काफी सफल रही। जबकि देर से की गयी मूँग की बुआई (15 अप्रेल के बाद) के समय तापमान काफी ऊँचा रहता है और ग्रीष्म ऋतु की ऊष्मा और शुष्कता फूलों और फलियों को विपरीत रूप से प्रभावित करती है।
प्रक्षेत्र की तैयारी- क्यारी की तैयारी उचित रूप से की जाये तो बीजों का अंकुरण और फसल का जमाव भली प्रकार से होता है। 2-3 जुताई के बाद यदि सुहागा फेर दिया जाये तो बोये जाने वाली क्यारी खरपतवार और ढ़ेलों से मुक्त हो जाती है। ग्रीष्म ऋतु में पूर्व की फसल की कटाई के बाद जुताई और बुआई से पूर्व एक सिंचाई अवश्य कर दें। ग्रीष्मकालीन मूँग गेहँू की कटाई के बाद बिना जुताई के भी बोयी जा सकती है। यदि खेत में गेहँू के अवशेष न हों तो जीरो टिल ड्रिल से बुआई की जा सकती है। यदि गेहँू की कटाई के तुरन्त बाद ही ग्रीष्मकालीन मूँग की बुवाई करनी हो तो गेहूँ के अवशेषों की उपस्थिति में भी हैप्पी सीडर द्वारा बुआई की जा सकती है। जीरो टिलेज द्वारा समय, ऊर्जा और धन तीनों ही बचाये जा सकते है। रेतीली मिट्टी में जिसमें दीमक के प्रकोप की सामान्यत: संभावना रहती है वहाँ पर प्रक्षेत्र तैयारी के अन्तिम सरण में 5 प्रतिशत कार्बारिल चूर्ण मिलाया जाना चाहिये। कीटों के प्रकोप को कम करने के लिये मिट्टी में फोरेट ओरॉल्डीकर्ब 10 किग्रा प्रति हेक्टेअयर की दर से मिला देनी चाहिये। मध्यम से भारी मृदा में ग्रीष्म कालीन मूँग की बुआई बेड प्लंाटर से पहले से तैयार क्यारी में 67.5 सेमी की दूरी पर करनी चाहिये। (37.5 सेमी. बेड टॉप, 30 सेमी. फरो)। प्रत्येक क्यारी में दो पंक्तियों में मूँग की बुआई करनी चाहिये पंक्तियों के बीच की दूरी 20 सेमी. रखें। बीज एवं उर्वरक की दर और अन्य सभी बुआई फसल से सम्बन्धित कार्य उसी प्रकार करें जैसे कि समतल भूमि में बुआई के लिये करते हैं। सिंचाई कूंडों में करें व ध्यान रहे कि क्यारियों में अत्यधिक पानी न भरने पाये। ऐसा करने से समतल बुआई की तुलना में लगभग 20-30 प्रतिशत अधिक उपज ली जा सकती है।
फसल ज्यामिती व बीज दर- बीजों को 4-5 सेमी. की गहराई में बोना चाहिए। मूँग में बीज अंकुरण की दर सामान्यत: 75-80 प्रतिशत होती है अत: सिंचित अवस्था में 4,00,000 पौधों की संख्या प्रति हेक्टेयर प्राप्त करने की अनुशंसा की जाती है। जिसके लिए बसन्त/ग्रीष्म मूँग की फसल के लिये 20-30 किग्रा बीज प्रति हेक्टेयर पर्याप्त होता है।
बीज उपचार- मृदा व बीज जनित रोगों की रोकथाम और बेहतर उपज प्राप्त करने के लिये बीज को कवक रोधी जैव रासायनों राइजेबियम और फास्फोरस ंघुलित जीवाणु (पी.एस.बी.) से उपचारित किया जाना चाहिये। मृदा जनित रोगों की रोकथाम के लिये बीज को 5-10 किग्रा. ट्राइकोडर्मा (1&108 सीएफयू/ग्राम.) अथवा 2.5 ग्राम थीरम या 2 ग्राम कार्बोन्डाजिम प्रति किग्रा. की दर से उपचारित करें। बीज उपचार के बाद उपचारित बीज में राइजोबियम कल्चर मिला दें। 10 किग्रा बीज क लिये 1 पैकेट (250 ग्राम) राइज़ोबियम कल्चर पर्याप्त होता है। राइजोबियम कल्चर के बीज उपचार से जड़ों में गाँठें अधिक बनती हैं, 10-15 उपज में वृद्धि होती है और अगली फसल में नाइट्रोजन की मात्रा भी कम लगती है। राइज़ोबियम कल्चर ग्रीष्म कालीन मूँग के लिए महत्वपूर्ण होता है क्योंकि इस मौसम में प्राकृतिक सुक्ष्माणुओं संख्या भी कम ही रहती है। 10 किग्रा. बीज में 250 ग्राम राइजोबियम (स्थानीय स्ट्रेन को प्राथमिकता दें) आधा लीटर पानी व 50 ग्राम मोलास भलीभाँति मिलायें। बुआई बुआई से पूर्व उपचारित बीज को छाया में 2-3 घंटे के लिये सुखा लेना चाहिये।
उर्वरकों की आवश्यकता- मूँग की फसल में अधिक मात्रा में नत्रजन आधारिक उर्वरकों की आवश्यकता नहीं होती है क्योंकि मूँग स्वयं काफी मात्रा में नत्रजन स्थिरीकरण कर लेती है।
उर्वरक प्रबंधन
सिंचित अवस्था में, फॉस्फोरस की कमी युक्त मृदा में फॉस्फेट युक्त उर्वकों की आवश्यकता होती है। गेहँू की कटाई के पश्चात् ग्रीष्मकालीन मूंग के लिये बुआई के समय 10 कि.ग्रा. नत्रजन और 45 कि.ग्रा. फॉस्फोरस का प्रयोग करें। जिप्सम 200 कि.ग्रा. प्रति हेक्टेयर की दर से प्रयोग करने पर कैल्शियम और सल्फर का प्रयोग कम मात्रा में किया जा सकती है। सामान्यत: 100 कि.ग्रा. डी.ए.पी. एक हेक्टेयर के लिये काफी होता है किन्तु उर्वकों का प्रयोग मृदा परीक्षण पर आधारित संस्तुतियों के अनुसार ही करने की सलाह दी जाती है।
सिंचाई- ग्रीष्मकालीन मूंग सिंचित अवस्था में उगायी जाने वाली फसल है। क्योंकि मूंग जलभराव के प्रति संवेदनशील होती है अत: तुलनात्मक रूप से ढ़ालयुक्त और लेजऱ लेवल प्रक्षेत्र को ही मूंग की फसल के लिये प्राथमिकता दी जानी चाहिए। प्रक्षेत्र में सिंचाई के उपरान्त तुरन्त ही जल का निकास ढ़ाल के झुकाव की तरफ कर देना चाहिये। यह जरूरी है कि फलियों में दाना पडऩे के समय सावधानी पूर्वक सिंचाई का प्रबन्ध किया जाये क्योंकि पानी की अधिक मात्रा फसलों के पकने की अवस्था को विलम्बित कर सकती है मिट्टी की जल ग्रहण क्षमता और मौसम की परिस्थितियों के अनुसार सामन्यत: ग्रीष्मकालीन मूंग में 3-4 सिंचाई की आवश्यकता होती है। पहली सिंचाई बुआई के 20-25 दिन और दूसरी सिंचाई 10-15 दिन के पश्चात् कर देनी चाहिये।
नाशीजीवों का समेकित प्रबन्धन
मूँग में रोग तथा नाशीजीव न केवल फसल को हानि पहुँचाते हैं, अपितु दानों की गुणवत्ता भी खराब करते हैं। मूँग के नाशजीवों के प्रभावी विनाश के लिए समेकित प्रबंधन विधियाँ अपनायें।
बुवाई के लिए अवरोधी किस्मों का ही चयन करें। इससे रोगों एवं कीटों से बचाव हेतु रसायनों के प्रयोग पर आने वाले खर्च से बचा जा सकता है।
भूमि की गहरी जुताई, समय से थोड़ा पहले बुवाई, खरपतवारों को न पनपने देना तथा समय से सिंचाई करने से नाशीजीवों को पनपने तथा फलने-फूलने का अवसर नहीं मिलता है। द्य रोमिल इल्लियों द्वारा अण्डे झुण्ड में दिये जाते हैं। अत: इसके प्रथम तथा द्वितीय इन्स्टार समूह में पाये जाते हैं। इन्हें इक_ा करके नष्ट कर दें। साथ ही रोमिल इल्लियों के विरूद्ध प्रकाश प्रपंच अधिक प्रभावी पाये गये हैं। द्य पीत चितेरी विषाणु रोग को हतोत्साहित करने हेतु रोगरोधी अथवा रोग सहिष्णु प्रजातियों का चयन करें। द्य चूसने वाले नाशीजीवों से बचाने के लिए कीट नाशकों से बीजोपचार करें। द्य फली भेदकों से रक्षा हेतु सर्वांगी, दानेदार कीटनाशकों का प्रयोग करें। द्य गेलूरेसिड बीटिल, डिफोलिएटर तथा फली भेदकों से बचाव हेतु पर्यावरण सुरक्षित कीटनाशकों का प्रयोग करें।
कटाई, मड़ाई एवं भण्डारण
फसल की जब 75-80 प्रतिशत फलियाँ पक जायें तो हंसिया की सहायता से कटाई कर लें तथा फसल को एक दो दिन के लिये खेत में ही सूखने के लिये छोड़ दें। विलम्ब से कटाई करने पर फलियाँ चटक जाती हैं। कटाई के पश्चात मड़ाई करें तथा दानों को तब तक धूप में सुखायें जब तक उसमें नमी 12 प्रतिशत से कम रह जाये। तत्पश्चात दानों को स्वच्छ एवं सूखे स्थान पर भण्डारित करें। उपरोक्त विधि का प्रयोग करने पर किसान मूँग एवं उर्द की अच्छी फसल उगा सकते हैं तथा प्रति हेक्टेयर 12-14 क्विंटल तक उपज प्राप्त कर सकते हैं।
अनुशंसित किस्में
केएम-2195 स्वाती, आईपीयू-1026, 11-02, 13-01, गंगा-8, टीजेएन-3, पीकेवीएकेएम-4, आईपीएम-205-7 (विराट), 410-3 (शिखा), टीजेएम-37, पीडीएम-139, हम-16, 12, पूसा-95-31, जेएम-731, पूसा विशाल, एसएमएल-668, सुकेती
उन्नतशील प्रजातियाँ
किसी भी फसल की अघिक से अधिक उपज लेने के लिये प्रजाति का चुनाव सबसे महत्वपूर्ण चरण होता है। इसी प्रकार मूँग की फसल से भी अधिक उपज प्राप्त करने के लिये उत्तम प्रजाति का चुनाव करना चाहिये। जो प्रजातियाँ कम समय में पककर तैयार हो जाती है उन्हें ही प्रयोग में लाना चाहिये ताकि, बीमारियों तथा कीटों के नुकसान से बचा जा सके। उन्नत फसल के लिये सामान्यतय: 60-70 दिन में पकने वाली संस्तुत प्रजातियाँ सर्वोत्तम मानी जाती हैं। रोगराधी प्रजातियों का ही चुनाव चाहिए। वैज्ञानिकों के प्रयासों मूँग में इस प्रकार की अनेक प्रजातियाँ विकसित की जा सकी हैं जो शीघ्र पकने के साथ-साथ उपज भी अच्छी देती हैं। सारणी में प्रमुख संस्तुत प्रजातियाँ विशिष्ट लक्षणों सहित दी गई है-
प्रजाति | संस्तुति वर्ष | मौसम | संस्तुत क्षेत्र |
आई पी एम 2.3 | 2009 | बसंत और ग्रीष्म ऋतु | उत्तर पश्चिम मैदानी क्षेत्र राजस्थान, पंजाब, हरयाणा, दिल्ली, हिमाचल का मैदानी क्षेत्र, उत्तराखण्ड और जम्मू और कश्मीर |
(शिखा) 205.7 (विराट) | 2016 | बसंत ऋतु | अखिल भारत पंजाब, हरियाणा, राजस्थान, उत्तर प्रदेश, बिहार, झारखंड, मध्य प्रदेश, गुजरात, तमिलनाडु, तेलंगाना आंध्र प्रदेश और कर्नाटक |
आईपीएम 410.3 (शिखा) | 2016 | बसंत ऋतु | बसंत ऋतु उत्तर पश्चिम मैदानी क्षेत्र और मध्य क्षेत्र राजस्थान, पंजाब, हरियाणा, दिल्ली, हिमाचल प्रदेश के मैदानी इलाके, उत्तराखंड और जम्मू-कश्मीर के जम्मू क्षेत्र, मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र और गुजरात |
आईपीएम 2य14.9 (वर्षा) | 2018 | बसंत ऋतु | उत्तर प्रदेश |
आईपीएम 302.2 | 2018 | बसंत और ग्रीष्म ऋतु | उत्तर प्रदेश |
आईपीएम 512.1 (सूर्या) | 2020 | बसंत ऋतु | उत्तर पूर्व मैदानी क्षेत्र |
आईपीएम 312.20 (वसुधा) | 2020 | बसंत ऋतु | उत्तर प्रदेश |
आईपीएम 409.4 (हीरा) | 2020 | बसंत ऋतु | उत्तर प्रदेश |
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