दुधारू पशुओं का डैग्नाला रोग
- डॉ. बृजमोहन सिंह धाकङ़
पशु जनस्वास्थ्य और महामारी विज्ञान विभाग, पशुचिकित्सा एवं पशुपालन
महाविद्यालय, ना.दे.प.वि.वि., जबलपुर - डॉ. अजय राय द्य डॉ. अंजू नायक
- डॉ. वंदना गुप्ता द्य डॉ. जोयसी जोगी
- डॉ. पूनम शाक्य, पशु सूक्ष्मजीव विज्ञान विभाग, पशुचिकित्सा एवं
पशुपालन महाविद्यालय, ना. दे.प.वि.वि.,
जबलपुर
19 जुलाई 2021, दुधारू पशुओं का डैग्नाला रोग – इसे पुँछकटवा रोग के नाम से भी जानते हैं। यह रोग फफूंदी के विष से मुख्यतया: भैंस में होने वाला रोग है जो आमतौर पर फफूंदी संक्रमित धान का पुआल खाने में होता है इस रोग से ग्रस्त पशु की टांगों, पूंछ, कान आदि पर गलन हो जाता है जो सडक़र शरीर से अलग होने लगते है।
कारण
- इस बीमारी का निश्चित कारण अभी तक ज्ञात नहीं है परन्तु यह रोग चावल के भूसे से दर्ज की गई सबसे अधिक बार पाई जाने वाली कवक प्रजातियां जैसे- फ्युसेरियम त्रिसिंक्तम, एस्परगिलस, एस्परगिलस फ्लेवस और पेनिसिलियम नोटेटम इत्यादि से होता है।
- कुछ वैज्ञानिकों का यह मत है कि यह बीमारी सूक्ष्म पोषक तत्वों की कमी के वजह से होता है।
- धान की कटाई के बाद पुआल को ढेर लगाकर रखा जाता है ऐसा संक्रमित पुआल खाने से पशुओं में रोग उत्पन्न हो जाता है।
- चावल के भूसे में काले काले धब्बे इसमें फंगस के विकास के संकेत के रूप में माने जाते हैं।
- फफूंदयुक्त पुआल खाने से पशुओं में सेलेनियम विषाक्तता उत्पन्न हो जाती है।
- आमतौर पर फफूंद संक्रमित पुआल खाने से ही यह रोग होता है। मगर कभी-कभी ऐसा देखा गया है कि फफूंद संक्रमित भूसे से भी रोग होता है।
रोग व्यापकता
- यह रोग मुख्यतया: भैंस में देखा गया है। वैसे गो-वंश के पशु भी इस संक्रमण के शिकार होते हैं।
- दुधारू पशुओं में डेगनाला बीमारी की संभावना नवंबर से फरवरी के बीच रहती है।
- सर्वप्रथम यह रोग पंजाब प्रान्त के डेग्नाला नामक नाले के आस-पास बेस क्षेत्रों में देखा गया था। अब यह स्थान पाकिस्तान में है। अधिकांशत: यह रोग नमी वाले क्षेत्रों में होता है। यह रोग ज्यादातर चावल उगाने वाले क्षेत्रों में प्रचलित है।
- सभी आयु वर्ग के पशु इससे प्रभावित हो सकते है।
लक्षण
- डेग्नाला रोग से ग्रसित पशु कि पूंछ के छोर के बाल खत्म हो जाते हैं। व डुडी पूंछ पर गलन होने लगती है।
- इसी प्रकार कान के किनारे, खुर तथा अण्डकोष के किनारों पर भी गलन प्रारम्भ हो जाती है।
- यह गलन सूखी होती है जिससे चमड़ी फटने से खुर बाहर निकल जाते हैं जिससे हड्ड़ी तक दिखायी देने लगती है।
- पशु भोजन करना बंद कर देता है एवं दिनों दिन कमजोर होते जाता है।
- जानवर से खड़ा नहीं हुआ जाता तथा चला नहीं जाता है। कुछ समय बाद ऐसे पशु कि मृत्यु भी हो जाती है
- दूध उत्पादन में 15 फीसदी से ज्यादा की गिरावट हो जाती है।
निदान
- इस रोग का निदान रोग का इतिहास जानकर व लक्षणों के आधार पर किया जाता है।
- पुआल का प्रयोगशाला परीक्षण करने पर उसमें फफूंदीजन्य विष कि मात्रा व उपस्थिति ज्ञात की जा सकती है।
- प्रयोगशाला में एचपीएलसी या एचपीटीएलसी विधि से विष का पता लगाया जाता है।
उपचार
- कोई भी लक्षण दिखने पर तुरंत पशु चिकित्सक से संपर्क करें।
- धान के संक्रमित पुआल को चारे के रूप में देना बंद कर दें।
- घाव को गुनगुने पानी से धोएं और 2 प्रतिशत नाइट्रोग्लिसरीन के साथ ड्रेसिंग करें।
- इस बीमारी के उपचार के लिए बीमार पशुओं को पेन्टासल्फ दवा 60 ग्राम पहले दिन खिलाएं तथा उसके बाद 15 दिनों तक 30 ग्राम खिलाएं।
- प्रभावित पशु को खनिज लवण व विटामिन दिए जाते हैं।
- गलन भरी पूंछ को शल्य क्रिया द्वारा काटकर अलग किया जा सकता है।
बचाव व रोकथाम
- बचाव के लिए धान के पुआल को पूरी तरह सुखाकर ही भण्डारित करें। विशेष रूप से नमी वाले क्षेत्रों में यह ध्यान रखें।
- सूखे चारे को पशु को खिलाते समय देख लें कि उसमें फफूंदी तो नहीं लगी है।
- इससे बचाव के लिए 1.0 ग्राम सोडियम हाईड्रक्साइड को 400 मिली पानी में घोलकर उसे 20 किलोग्राम पुआल पर छिडक़ाव कर पशुओं को खिलाएं। साथ में 200 ग्राम तीसी तथा 200 ग्राम छोवा या गुड़ मिलावें।
- फफूंदीयुक्त चारे को अलग कर देना चाहिए व जानवर को खाने को नहीं दें।
- पुआल को पानी से धोकर खिलायें।
- पशुओं को स्वच्छ जगह पर रखें।
- पशुओं को नियमित रूप से मिनरल मिक्सचर दें। द्य गोशालाओं में नियमित रूप से फिनाईल एवं चूने के पानी का छिडक़ाव करें।