मटर की खेती में सूक्ष्म सिंचाई और मल्चिंग का उपयोग
रश्मि सोनी, दीपिका यादव, योगेश राजवाड़े, के वी रमण रावसुनियोजित कृषि विकास केन्द्र, आईसीएआर- सेंट्रल इंस्टीट्यूट ऑफ एग्रीकल्चरल इंजीनियरिंग भोपाल
08 जनवरी 2024, भोपाल: मटर की खेती में सूक्ष्म सिंचाई और मल्चिंग का उपयोग – मटर एक महत्वपूर्ण स्व-परागण वाली सर्दियों के मौसम की फसल है जिसकी दुनिया भर में हरी फली के लिए व्यापक रूप से खेती की जाती है। भारत दुनिया में मटर का चौथा सबसे बड़ा उत्पादक है और विश्व मटर उत्पादन में 7.01 प्रतिशत का योगदान है। भारत में प्रमुख मटर उत्पादक राज्य उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, पंजाब, झारखंड, हिमाचल प्रदेश आदि हैं। देश में मटर उत्पादन में 876.04 हजार टन है, जिसमे मध्यप्रदेश दूसरे स्थान पर है जोकि भारत के मटर उत्पादन का 15.67 प्रतिशत है। मटर में अत्यधिक पोषक तत्व होते है। इसमें उच्च प्रतिशत सुपाच्य प्रोटीन (22.5%), कार्बोहाइड्रेट (62.1%), खनिजों के साथ वसा (Ca, P और Mg) और विटामिन A, B और C होते हैं। मटर के दाने में अमीनो एसिड का उच्च स्तर होता है। इसमें लाइसिन और ट्रिप्टोफैन होते है, जो अनाज में अपेक्षाकृत कम हैं।
जलवायु एवं मृदा
मटर आमतौर पर सर्दियों के मौसम की फसल है और इसके विकास हेतु मध्यम तापमान के साथ बढ़ते ठंडे मौसम की आवश्यकता होती है। बीज अंकुरण के लिए इष्टतम तापमान 22 डिग्री सेल्सियस होना चाहिए। यद्यपि बीज 5 डिग्री सेल्सियस पर भी अंकुरित होते है परन्तु अंकुरण की गति कम होती है। फसल की प्रारंभिक अवस्था पाले के प्रति सहनशील होती है। लेकिन पाले से फूल आने और फलों के विकास पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है। पौधों की वृद्धि के लिए इष्टतम मासिक औसत तापमान 10-18 डिग्री सेल्सियस होता है। अधिक तापमान पर पौधों का क्षय अधिक होता है। जैसे-जैसे तापमान बढ़ता है परिपक्वता तेज हो जाती है और उपज कम हो जाती है। उत्पादित फलियों की गुणवत्ता उच्च तापमान पर शर्करा के हेमीसेल्यूलोज और स्टार्च में परिवर्तित होने के कारण भी कम होती है।
मटर की खेती लगभग सभी प्रकार की मृदाओं में की जा सकती है परंतु अधिक उत्पादन हेतु अच्छी जल निकास वाली ढीली और भुरभुरी दोमट एवं बलुई मिट्टी जिसका पी.एच.मान. 6-7.5 हो उपयुक्त होती है। यह अत्यधिक अम्लीय और क्षारीय मिट्टी में अच्छा प्रदर्शन नहीं करता है। मटर की फसल क्षारीय मृदा की अपेक्षा अम्लीय मृदा के प्रति अधिक संवेदनशील होती हैं। यदि मिट्टी अम्लीय है, तो चूना लगाने की सिफारिश की जाती है।
बुआई एवं बीज दर
सीड बैड तैयार करने के लिए मिट्टी पलटने वाले हल से जुताई करने के बाद एक या दो हैरो चलाकर बारीक जुताई की जाती है। गोबर की खाद 15-20 टन प्रति हेक्टेयर की दर से अंतिम जुताई से पहले मिटटी में अच्छी तरह मिला देना चाहिए। बीजों को समतल या ऊंची क्यारियों में 4-5.0 सेमी गहराई पर फैलाकर या डिबलिंग करके बोया जाता है। मल्चिंग में मटर लगाने हेतु बेड 60-90 सेंमी चौड़ाई एवं 15-20 सेंमी ऊंचाई का होना चाहिए। मटर की समय पर बुआई के लिए 70-80 किलोग्राम बीज प्रति हेक्टेयर पर्याप्त होता है। प्रारंभिक किस्मों के लिए बीज दर 100-120 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर एवं पछेती किस्मों के लिए बीज दर 80-90 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर होती हैं। मटर में कतार से कतार की दूरी 30-45 सेंमी एवं पौधे से पौधे की दूरी 15-20 सेंमी रखनी चाहिए। बीजों को बुवाई से पहले कप्तान या थीरम 3 ग्राम या कार्बेनडाज़िम 2.5 ग्राम से प्रति किलो बीज का उपचार करें। रासायनिक तरीके से उपचार के बाद वायुमण्डलीय नत्रजन के स्थिरीकरण के लिये के लिए बीजो को एक बार राइज़ोबियम कल्चर से बीज को उपचारित करके बोना चाहिए।
प्रमुख किस्में
मटर की फसल हेतु उपयुक्त किस्मे हैं – जे. एम. -6, प्रकाश, के. पी. एम. आर. 400, आई. पी. एफ. डी. – 99-13, जवाहर मटर 1, जवाहर मटर 2, जवाहर मटर 83, पंत माता, हिसार हरित, पंत उपहार, अपर्णा, पूसा प्रभात, पूसा पन्ना, आर्केल, बॉनविले आदि।
सिंचाई
मटर, किसी भी फलदार सब्जी की तरह, सूखे और अत्यधिक सिंचाई के प्रति संवेदनशील है। परंपरागत रूप से मटर में बहाव अथवा नाली पद्धति द्वारा सिंचाई की जाती है। अच्छे अंकुरण के लिए बुवाई से पहले पलेवा किया जाना चाहिए। सामान्यत: पहली सिंचाई फूल आने के समय और दूसरी पॉड बनाने के समय और बाकी की सिंचाइयाँ 15 दिन के अंतराल पर प्रदान की जाती हैं। अत्यधिक सिंचाई से पौधों में पीलापन बढ़ जाता है और उपज में कमी आती है। परंपरागत सिंचाई से पानी का हानि होती है, पंपिंग के लिए ऊर्जा उपयोग बढ़ता है, नाइट्रोजन और अन्य सूक्ष्म पोषण तत्वों का लीचिंग होती है। उचित सिंचाई प्रबंधन करने से पारंपरिक सिंचाई के नकारात्मक प्रभाव कम किया जा सकता है। अनुसन्धान में पाया गया है कि दबाव युक्त सिंचाई प्रणालियों सूक्ष्म फव्वारा एवं टपक सिंचाई प्रणाली द्वारा जल एवं कृषि रसायनों का उचित उपयोग कर उत्पादन में ४०-७० प्रतिशत तक वृद्धि कि जा सकती है।
सूक्ष्म फव्वारा सिंचाई विधि में पानी का छिड़काव प्रेशर वाले छोटे नोज़ल से होता है। इस विधि में पानी महीन बूँदों में बदलकर वर्षा की फुहार के समान पौधों के ऊपर गिरता है। मटर की फसल में 40 लीटर प्रति घंटा स्त्राव दर वाले सूक्ष्म स्प्रिंकलर का उपयोग किया जा सकता है। इस विधि से सिंचाई हेतु माइक्रो स्प्रिंकलर हेड के बीच की दूरी 2.5 मीटर एवं लेटरल से लेटरल की दूरी 2.5 रखनी चाहिए। माइक्रो स्प्रिंकलर के बीच की दूरी इसकी स्त्राव दर एवं वेटेड त्रिज्या पर निर्भर करती है।
टपक सिंचाई विधि: मटर की फसल में टपक सिंचाई प्रणाली हेतु पौध की कतारों के बीच 16 एम. एम. व्यास की 2 लीटर प्रति घंटा स्त्राव वाली लेटरल जिसमे ड्रिपर से ड्रिपर के बीच की दूरी 30 सेंटीमीटर से 40 सेंटीमीटर हो उपयोग की जाती है। इस विधि में प्रतिदिन अथवा एकदिन के अंतराल में पानी दिया जाता है।
प्लास्टिक मल्चिंग
मटर की फसल में टपक सिंचाई प्रणाली के साथ मल्च का उपयोग जल के कुशल उपयोग एवं उपज में वृद्धि के लिए सहायक है। अनुंसधान में मटर की फसल में २३-३० माइक्रोन मोटाई की प्लास्टिक मल्चिंग को अत्यंत प्रभावशाली पाया गया है। इसके उपयोग द्वारा मटर की उपज में ६०-८० प्रतिशत तक वृद्धि देखी गयी है। प्लास्टिक मल्चिंग द्वारा फसल में खरपतवार नियंत्रण एवं मृदा के कटाव को रोका जा सकता है। प्लास्टिक मल्चिंग मिट्टी की संरचना में सुधार करती है जोकि जड़ो के विकास के लाभदायक है।
खाद एवं उर्वरक
फसल में अनुशंसित उर्वरक की मात्रा मिट्टी परीक्षण के आधार प्रयोग करनी चाहिए। अंतिम जुताई के समय खेत में 15-20 टन गोबर की खाद प्रति हेक्टेयर की दर से मिला देना चाहिए। मटर में सामान्यतः अनुशंसित उर्वरक नाइट्रोजन, फास्फोरस एवं पोटाश की मात्रा क्रमशः 40:60:50 किग्रा प्रति हेक्टेयर होती है। मटर दलहनी फसल होने के कारण इसमें अधिक नाइट्रोजन आवश्यकता नहीं होती है नाइट्रोजन की उच्च खुराक गांठ निर्माण और नाइट्रोजन स्थिरीकरण पर प्रतिकूल प्रभाव डालती है। फॉस्फेटिक उर्वरक नाइट्रोजन स्थिरीकरण और गांठ गठन को बढ़ाकर उपज और गुणवत्ता बढ़ाता है। पोटेशियम उर्वरक पौधों की नाइट्रोजन स्थिरीकरण क्षमता और उपज को भी बढ़ाते हैं। इसमें नाइट्रोजन की 25 प्रतिशत मात्रा एवं फास्फोरस एवं पोटाश की 50 प्रतिशत मात्रा बुआई के समय देना पर्याप्त होता है जबकि शेष मात्रा 45 दिनों बाद फर्टिगेशन विधि द्वारा शत प्रतिशत घुलनशील रसायनिक उर्वरको के माध्यम से दिया जाना चाहिए।
खरपतवार नियंत्रण
फसल को बढ़वार की शुरू की अवस्था में खरपतवारों से अधिक हानि होती है। लैस्सो (एलाक्लोर) @ 0.75 किग्रा ए.आई. या ट्रिब्यूनल @ 1.5 किग्रा ए.आई./हेक्टेयर या पेंडेमेथालिन 0.5 किग्रा ए.आई. /हेक्टेयर बुआई के 25-45 दिन बाद एक हाथ से निराई-गुड़ाई के साथ-साथ उद्भव पूर्व स्प्रे खरपतवार नियंत्रण के लिए बहुत प्रभावी होता है। मटर में मिट्टी चढ़ाना और गुड़ाई करना भी महत्वपूर्ण कार्य है और यह पौधों की जड़ों के विकास और वृद्धि में मदद करता है। यह आमतौर पर निराई और उर्वरक लगाने के बाद किया जाता है।
कीट–रोग प्रबंधन
रबी फसलों में मटर का महत्वपूर्ण स्थान है। इस फसल को कई प्रकार के रोग नुकसान पहुंचाते हैं। यदि इनका नियंत्रण समय पर न किया जाए, तो मटर की फसल घाटे का सौदा साबित होती है।
प्रमुख रोग
बीमारी | लक्षण | नियंत्रण हेतु अनुषंसित रसायन |
आर्द्र जड़ गलन रोग | प्रभावित पौधों की निचली पत्तियां हल्के पीले रंग की हो जाती है एवं पौधे का जड़ तंत्र सड़ जाता है। | रोगमुक्त फसल हेतु बीज को कार्बेंडाजिम 1 ग्राम एवं थीरम 2 ग्राम मात्रा द्वारा प्रति किलोग्राम बीज की दर से उपचारित करें । |
रतुआ/किट्ट रोग (रस्ट) | पौधों के हरे भागों पर हल्का पीलापन आता है जो धीरे-धीरे भूरा हो जाता है. पौधे के तने विकृत एवं ऊतकक्षयी हो जाते हैं जिसके प्रभाव से पौधों की मृत्यु हो जाती है। | मेंकोजेब 0.2 प्रतिशत या कैलेक्सिन 200 मि.ली. प्रति एकड़ की दर से 200 लीटर पानी में मिलाकर फसल पर छिड़काव करें। |
मृदुरोमिल आसिता रोग | इस रोग में पत्तियों की ऊपरी सतह पर छोटे-छोटे धब्बे तथा पत्तियों की निचली सतह पर सफेद रुई जैसी फफूँद उग आती है। धीरे-धीरे पूरी पत्ती पीली होकर सूखकर झड़ जाती है। | बीजों को थीरम 25 ग्राम प्रति किलो ग्राम दर से शोधित कर बुवाई करें । रोग नियंत्रण हेतु 0.2 प्रतिशत मैकोजेब अथवा जिनेब कवकनाशी का छिड़काव 600-800 लीटर पानी में प्रति हेक्टेयर की दर से करना चाहिए |
चूर्णिल आसिता रोग (पाउडरी मिल्ड्यू) | पत्तियों की दोनों सतह पर सफेद चूर्ण धब्बे बनते हैं. फलियां पकने से पहले ही सूखकर नीचे गिर जाती हैं। | रोगमुक्त बीज को थीरम 25 ग्राम प्रति किलो ग्राम दर से शोधित कर बुवाई करें. बीमारी के नियंत्रण के लिए गंधक (0.2 प्रतिशत) अथवा कार्बेन्डाजिम (0.05 प्रतिशत) का छिड़काव करे। |
उकठा रोग | पत्तियां पीली पड़कर मुरझाने ओर सूखने लगती हैं तथा पौधा सूख जाता है. मुख्य जड़ों ओर तनों के आधार वाले ऊतक काले रंग के दिखाई देते हैं | वाई से पहले कार्बेन्डाजिम 2.5 ग्राम अथवा ट्राइकोडर्मा 4 ग्राम प्रति किलोग्राम की दर से बीज का उपचार करें। |
प्रमुख कीट
कीट | लक्षण | नियंत्रण हेतु अनुशंसित कीटनाशक |
तना मक्खी (स्टेम फ्लाई) | इस कीट की सुण्डी तने के आन्तरिक भाग को नुकसान पहुँचाती है। अगेती फसल में इस रोग का संक्रमण अधिक होता हैं। | कार्बोफ्यूरान 3 सी.जी. 15 किग्रा० अथवा फोरेट 10 जी 10 किग्रा० प्रति हेक्टेयर बुवाई से पूर्व मिट्टी में मिलाना चाहिए। एजाडिरेक्टिन (नीम आयल) 0.15 प्रतिशत ई0सी0, 2.5 ली0 प्रति हेक्टेयर की दर से भी प्रयोग किया जा सकता है। |
पर्ण सुरंगक (लीफ माइनर) | इस कीट का लार्वा पत्तियों में सुरंग बनाकर बाह्य त्वचा के नीचे ऊतकों को नुकसान पहुंचाता हैं। इस कीट के वयस्क पत्तियों से रस चूस लेते हैं। | डाईमेथोएट 30 प्रतिशत ई.सी. अथवा मिथाइल-ओ-डेमेटान 25 प्रतिशत ई.सी. की 1.0 लीटर प्रति हेक्टेयर की दर से 750 लीटर पानी में घोलकर छिड़काव करना चाहिए। |
मटर फली भेदक | इल्ली फलियों में छेद कर मटर के दाने विकसित होने से पूर्व ही नष्ट कर देती है। | क्यूनालफास 25 प्रतिशत ई.सी. 2.0 लीटर अथवा मोनोक्रोटोफास 36 प्रतिशत एस.एल. 1.0 लीटर प्रति हेक्टेयर की दर से 500-600 ली. पानी में घोलकर छिड़काव करें। |
माहू (एफिड) | इस कीट के शिशु एवं प्रौढ़ दोनों ही पौधों की पत्तियों, तनों एवं फलियों से रस चूसकर नुकसान पहुँचाते हैं। क्षतिग्रस्त फलियां आकार तथा अपूर्ण रूप से भरी हुई रहती है। | इमिडाक्लोरो प्रिड 17.8 एस.एल. 0.5 मि.ली./ली. पानी की दर से छिड़काव करे। |
फसल तुड़ाई एवं पैदावार
ताजा बाजार के लिए मटर की कटाई तब की जाती है जब वे अच्छी तरह से भर जाती हैं और जब उनका रंग गहरे हरे से हल्के हरे रंग में बदल जाता है। आमतौर पर 10 दिनों के अंतराल पर 3-4 कटाई संभव है। फली की पैदावार किस्म की अवधि के साथ बदलती रहती है और शुरुआती किस्मों के लिए 2.5-4.0 टन/हेक्टेयर, मध्य सीज़न की किस्मों के लिए 6.0-7.5 टन/हेक्टेयर और देर से आने वाली किस्मों के लिए 8.0-10.0 टन/हेक्टेयर होती है। कटाई के बाद मटर को बोरियों या बक्सों में पैक किया जाता है। मटर पर विभिन्न सिंचाई पद्धतियों पर किये गए प्रयोग द्वारा प्राप्त उपज को नीचे तालिका में दर्शाया गया है –
सिंचाई की विधि | फली उपज, टन/हेक्टेयर | जल उपयोग दक्षता, किलो प्रति घन मीटर |
टपक सिंचाई विधि एवं प्लास्टिक मल्चिंग | 12.18 | 4.82 |
टपक सिंचाई विधि | 7.74 | 2.49 |
सूक्ष्म फव्वारा सिंचाई | 9.81 | 2.65 |
बहाव अथवा नाली पद्धति | 5.87 | 1.15 |
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