जलवायुु परिवर्तन का खेती पर प्रभाव एवं बचाव
जलवायु परिवर्तन का फसलों पर प्रभाव:-
कृषि क्षेत्र में जलवायु परिवर्तन के जो संभावित प्रभाव दिखने वाले है, वह मुख्य रूप से दो प्रकार के दिखाई दे सकते है। एक तो क्षेत्र आधारित, दूसरे फसल आधारित अर्थात् विभिन्न क्षेत्रों में विभिन्न फसलों पर अथवा एक ही क्षेत्र की प्रत्येक फसल पर अलग-अलग प्रभाव पड़ सकता है। गेंहू और धान हमारे देश की प्रमुख खाद्य फसले हैं इनके उत्पादन पर जलवायु परिर्वतन का प्रभाव पड़ता है।
गंहू के उत्पादन पर प्रभाव:-
अध्ययनों में पाया गया हैं कि यदि तापमान 2 से.ग्रे. के करीब बढ़ता हैं तो अधिकांश स्थानों पर गेहूं की उत्पादकता में कमी आयेगी। जहां उत्पादकता ज्यादा हैं (उत्तरी भारत में ) वहां कम प्रभाव दिखेगा, जहाँ कम उत्पादकता हैं वहाँ ज्यादा प्रभाव दिखेगा। प्रत्येक 1 से.ग्रे. तापमान बढऩे पर गेंहू का उत्पादन 4-5 करोड़ टन कम होता जाएगा। अगर किसान इसके बुवाई का समय सही कर ले तो उत्पादन की गिरावट 1-2 करोड़ टन कम हो सकती है।
आज पूरी दुनिया पर जलवायु परिवर्तन के प्रभाव पड़ रहे हैं । यह प्रभाव अलग-अलग रूप में कहीं ज्यादा तो कहीं कम महसूस किये जा रहे हैं। हमारे देश का सम्पूर्ण क्षेत्रफल करीब 32.44 करोड़ हेक्टेयर है। इसमें से 141 मिलियन हेक्टेयर में खेती की जाती है। अर्थात् देश के सम्पूर्ण क्षेत्र के 47 प्रतिशत हिस्से में खेती होती है। आज 48.9 प्रतिशत लोग रोजगार के लिये खेती पर निर्भर है। ऐसी स्थिति में कृषि एक महत्वपूर्ण घटक है, जिसमें किसी भी प्रकार का परिवर्तन या गिरावट देश की 65 प्रतिशत जनसंख्या को प्रभावित कर सकता है। जलवायु परिवर्तन एक ऐसा कारक है जिससे प्रभावित होकर कृषि अपना स्वरूप बदल सकती है तथा इस पर निर्भर लोगों की खाद्य सुरक्षा खतरे में पड़ सकती है। |
धान के उत्पादन पर प्रभाव:-
हमारे देश में कुल फसल उत्पादन में 42.5 प्रतिशत हिस्सा धान खेती का हैं। तापमान वृद्धि के साथ-साथ धान के उत्पादन में गिरावट आने लगेगी। अनुमान हैं कि 2 से.ग्रे. तापमान वृद्धि से धान का उत्पादन 0.75 टन प्रति हेक्टेयर कम हो जायेगा। देश का पूर्वी हिस्सा धान उत्पादन से ज्यादा प्रभावित होगा। अनाज की मात्रा में कमी आ जायेगी। धान वर्षा आधारित फसल हैं इसलिये जलवायु परिवर्तन के साथ बाढ़ सूखे की स्थितियाँ बढऩे पर इस फसल का उत्पादन गेहंू की अपेक्षा ज्यादा प्रभावित होगा।
जलवायु परिवर्तन का मिट्टी पर प्रभाव:-
कृषि के अन्य घटको की तरह मिट्टी भी जलवायु परिवर्तन से प्रभावित हो रही है। रसायनिक खादों के प्रयोग से मिट्टी पहले ही जैविक कार्बनरहित हो रही थी, अब तापमान बढऩे से मिट्टी की नमी और कार्य क्षमता प्रभावित होगी। मिट्टी में लवणता बढ़ेगी और जैव विविधता घटती जायेगी। भूमिगत जल के स्तर का गिरते जाना भी इसकी उर्वरता को प्रभावित करेगा। बाढ़ जैसी आपदाओं के कारण मिट्टी का क्षरण अधिक होगा वही सूखे की बजह से इसमें बंजरता बढ़ती जायेगी। पेड़-पौधों के कम होते जाने तथा विविधता न अपनाये जाने के कारण उपजाऊ मिट्टी का क्षरण खेतों को बंजर बनाने में सहयोगी होगा।
जलवायु परिवर्तन से बचाव:-
जलवायु परिवर्तन के प्रभावों को कम करने में कृषि दो तरीके से महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकती हैं-एक तो ग्रीनहाउस गैसों का उत्सर्जन कम करके, दूसरे वातावरण में से कार्बन-डाई-ऑक्साइड को मिट्टी अवशोषित करके। जैविक कृषि स्थाई कृषि, बिना जुताई के कृषि, कृषि वानिकी आदि ऐसी तकनीक हैं जोकि मिट्टी के क्षरण को रोकती है और कार्बन के नुकसान को लाभ में परिवर्तित कर देती हैं। जैविक खेती इन देानों ही माध्यमों से जलवायु परिवर्तन में कमी लाने के लिए सक्षम हैं। कृषि क्षेत्र से होने वाले ग्रीन हाऊस गैसों का उत्सर्जन कम करने का सबसे प्रभावी माध्यम हैं जैविक खेती। अनेक अध्ययनों व क्षेत्र परीक्षणों से यह साबित हो चुका हैं कि जैविक कृषि अपनाकर इन नुकसानदायक गैसों के उत्सर्जन में कमी लाई जा सकती हैं। जैविक खेती ग्रीनहाऊस गैसों के उत्सर्जन को कम कर सकती हैं। जैविक खेती मिट्टी में कार्बन को अवशोषित कर सकती है।
खेतों में जल संरक्षण:- तापमान वृद्धि के साथ-साथ धरती पर मौजूद नमी समाप्त होती जाएगी। ऐसे में खेती में नमी का संरक्षण करना और वर्षा जल को एकत्र कर सिंचाई हेतु उपयोग में लाना आवश्यक होगा। जीरो टिलेज या शून्य जुताई जैसी तकनीकों का इस्तेमाल कर पानी के अभाव से निपटा जा सकता हैैं। शून्य जुताई के कारण धान और गेहूं की खेती में पानी की मांग की कमी देखी गई हैं जबकि उपज में बढ़ोत्तरी हुई हैं और उत्पादन लागत 10 प्रतिशत तक कम हो गया हैं। इससे मिट्टी में जैविक पदार्थो की बढ़ोत्तरी भी होती है। इसी प्रकार ऊँची उठी क्यारियों में रोपाई करना भी एक बेहतरीन तकनीक हैं, जिसमें पानी के उपयोग की क्षमता बढ़ जाती हैं। जलभराव कम होता हैं, खरपतवार कम आते हैं, लागत कम लगती हैं व लाभ ज्यादा होता हैं। |
समग्रित खेती:-
आज खेती की सबसे बड़ी मांग यही है। जलवायु परिर्वतन के दृष्टिकोण से खेतों में विविधता तथा फसलों के साथ वृक्षों व जानवरों का संयोजन बहुत मायने रखता हैं। अब तक अनुभवों तथा अध्ययनों में भी यह पाया गया कि जहां समग्रता थी वहां नुकसान का प्रतिशत कम रहा जबकि जहां एकल फसलें अथवा केवल पशुओं पर निर्भरता थी, वहां नुकसान ज्यादा हुआ। खेती में समग्रता किसान को आत्मनिर्भर बनाती हैं, बाजार पर उसकी खाद्य सुरक्षा बनी रहती हैं क्योंकि एक अथवा दो गतिविधियों के नुकसान से पूरी प्रक्रिया नष्ट नहीं होती।
मिट्टी में कार्बन का अवशोषण | |
गतिविधि | मिट्टी में कार्बन का (कि.ग्रा./हे.) |
कम्पोस्ट | 1000 से 2000 |
बिना जुताई | 100 से 500 |
फसल चक्र | 0 से 200 |
खाद | 0 से 1400 |
कवर$ फसल चक्र कम्पोस्ट .कवर | 900 से 1400 |
फसल चक्र – बिना जुताई | 2000 से 4000 |
नाइट्रोजन की भूमिका:-
आधुनिक कृषि में सबसे ज्यादा ग्रीनहाऊस गैसों का उत्सर्जन रासायनिक उर्वरकों द्वारा होता हैं। विश्व में रासायनिक फर्टिलाइजर की खपत 2011 में 90.86 करोड़ टन थी। जबकि इसको तैयार करने में 90 करोड़ टन फासिल फ्यूल (डीजल आदि) जलाया गया जो जलवायु परिवर्तन में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता हैं। जैविक खेती नाइट्रोजन के लिए आत्मनिर्भर हैं अर्थात् इसमें पर्याप्त मात्रा में नाइट्रोजन की उपलब्धता रहती है। मिश्रित खेती के साथ जानवरों के गोबर से तैयार खाद व फसल अवशेषों से तैयार खाद नाइट्रोजन पर्याप्त मात्रा में उत्पन्न करती हैं।
पशु प्रबंधक, चरागाह व चारे की उपलब्धता:-
प्रजनन व उत्पादकता बढ़ाने हेतु;
दुधारू पशुओं में प्रजनन द्वारा कार्यक्षमता बढ़ाना;
देशी नस्लों को बढ़़ावा;
चारागाह में दलहनी फसलें लगाना;
गोबर का उचित प्रबन्धन करना (बायोगैस या खाद बनाकर )।
सभी ग्रीनहाउस गैसों में 14 प्रतिशत उत्सर्जन मिथेन गैस का होता हैं। कहा जाता हैं कि इसमें जानवरों की प्रमुख भूमिका है। बायोंगैंस व अनेक प्रकार की जैविक खादें खेती के लिए उपयोगी होती है। जलवायु परिवर्तन का प्रभाव कम करने के लिए देशी नस्लों को बढ़ावा देना होगा। विेदेशी नस्लों के जानवरों की कार्यक्षमता व गर्मी, सर्दी, पानी सहन करने की क्षमता कम होती हैं। इन सबके प्रभाव से इनकी प्रजनन क्षमता व उत्पादकता पर सीधा असर पड़ता है। रोग व बीमारियाँ भी इन्हें ज्यादा होती हैं जिनका प्रभाव इनके अल्प जीवन के रूप में परिणत होती हैं। देशी नस्लें विशेषकर दुधारू गायों से मिथेन का उत्सर्जन कम होती हैं।
- डॉ. सी.एस. मालवीय
- ए.केसरिया
- डॉ. बी.के.शर्मा