संपादकीय (Editorial)

किसानों की आय में वृद्धि और अनुबंधित खेती

लेखक- मधुकर पवार

26 मार्च 2024, नई दिल्ली: किसानों की आय में वृद्धि और अनुबंधित खेती – देश के समृद्ध कहे जाने वाले दो राज्यों पंजाब और हरियाणा के किसान इन दिनों न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) का कानून बनाने की मांग सहित करीब 10 मांगों को लेकर आंदोलन कर रहे हैं। एम.एस.पी. के अलावा किसानों की प्रमुख मांगों में 60 वर्ष से अधिक आयु के किसानों को दस हजार रूपये प्रतिमाह पेंशन और सरकारी तथा गैर सरकारी कर्ज की माफी शामिल है। किसानों और केंद्र सरकार के प्रतिनिधि मंत्रियों के बीच चार दौर की वार्ता हो चुकी है लेकिन ये वार्ता बेनतीजा रही हैं। अप्रैल और मई माह में लोकसभा के चुनाव होने हैं। हो सकता है सरकार किसानों के साथ कुछ समझौतों पर राजी हो जाये लेकिन अभी तक हुई वार्ता और किसानों के रूख से लगता है, किसान इसे चुनावी मुद्दा बनाने का मन बना चुके हैं। किसान भले ही स्पष्टीकरण दें कि यह आंदोलन विशुद्ध गैर राजनीतिक है लेकिन राजनीतिक दल हवा तो दे ही रहे हैं। अब देखना है कि केंद्र सरकार इस मुद्दे को कैसे हल करती है या इस मुद्दे से आंख मूंद कर केवल बातचीत का रास्ता खुला रखना चाहती है।

जहां तक किसानों की मांगों का प्रश्न है, यह देखना होगा कि क्या वाकई ये सभी समस्यायें/मांगें देश के सभी किसानों की हैं? उत्तर हां भी हो सकता है और नहीं भी। भारत की भौगोलिक स्थिति, जलवायु, कृषि भूमि, वर्षा, भोजन की विविधता आदि के अनुसार फसल भी अलग-अलग है। हर राज्य के किसानों की स्थानीय स्तर पर अलग समस्यायें हैं और उनका निराकरण केंद्र व राज्य सरकारों के समन्वित प्रयासों से ही सम्भव है। इन सब समस्याओं के संदर्भ में एक बात समान रूप से देश के सभी किसानों के लिये लागू होती है और वह है किसानों की आय में वृद्धि। हालांकि केंद्र सरकार ने किसानों की आय को दोगुना करने के अपने संकल्प को बार-बार दोहराया है लेकिन अभी तक इस लक्ष्य को हासिल नहीं किया जा सका है। केंद्र सरकार द्वारा भले ही हर साल प्रधानमंत्री किसान सम्मान निधि योजना के तहत दो हजार रूपये की तीन किस्तों में कुल छह हजार रूपये की आर्थिक सहायता दी जा रही है, लेकिन यह नाकाफी है।

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फसलों की उत्पादकता ?

इन तमाम मुद्दों के साथ इस बात पर भी विचार करना होगा कि विभिन्न फसलों की उत्पादकता कितनी है? कृषि भूमि का स्वास्थ्य कैसा है? सिंचाई के लिये पानी और बिजली की उपलब्धता कैसी है और सबसे बड़ी बात, खेती के लिये जमीन कितनी है? भले ही भारत विश्व की पांचवी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था बन गया है लेकिन प्रति व्यक्ति आय और किसानों की उत्पादकता में बहुत पीछे हैं। विकसित देशों में अमेरिका में सोयाबीन की उत्पादकता प्रति हेक्टेयर 35 क्विंटल के आसपास है जबकि भारत में यह आधी से भी कम यानी 15-16 क्विंटल प्रति हेक्टेयर है। इसी तरह अन्य फसलों के मामले में भी भारत काफी पीछे है। इसके कारणों पर नजर डालेंगे तो पायेंगे कि वहां की कृषि भूमि का बड़ा रकबा भी एक प्रमुख कारण हो सकता है।

जनसंख्या अधिक, क्षेत्रफल कम

भारत में कृषि भूमि का क्षेत्रफल लगभग 39440 लाख एकड़ है और देश की 58 प्रतिशत आबादी कृषि पर ही निर्भर है। भारत की जनसंख्या 143 करोड़ को पार कर चुकी है और यह विश्व में पहले स्थान पर आ गया है। विश्व की आठ अरब से अधिक आबादी में भारत की जनसंख्या का हिस्सा करीब 18 प्रतिशत हो गया है लेकिन विश्व के कुल क्षेत्रफल का मात्र 2.47 प्रतिशत क्षेत्रफल ही भारत का है। यहां इस बात पर ध्यान देना होगा कि जहां क्षेत्रफल मात्र 2.47 प्रतिशत है वहीं जनसंख्या करीब 18 प्रतिशत है। यदि विकसित देश अमेरिका की बात करें तो वहां विश्व के कुल क्षेत्रफल का 6.01 प्रतिशत है और वहां की जनसंख्या करीब 34 करोड़ है। भारत की तुलना में अमेरिका का क्षेत्रफल दोगुना से अधिक है वहीं भारत की जनसंख्या अमेरिका से 4 गुना से भी अधिक है। इसी तरह यदि चीन से भी तुलना करें, जो 1 वर्ष पहले तक जनसंख्या में पहले स्थान पर था, अब दूसरे स्थान पर खिसक गया है। चीन का क्षेत्रफल भी भारत से करीब ढाई गुना अधिक है। क्षेत्रफल की दृष्टि से विश्व के कुल क्षेत्रफल में रूस 11 प्रतिशत, कनाडा 6.1 प्रतिशत, ब्राज़ील 5.64 प्रतिशत तथा ऑस्ट्रेलिया का 5.02 प्रतिशत है। अमेरिका में करीब 893.4 मिलियन एकड़ कृषि भूमि है और किसानों की संख्या कुल जनसंख्या का करीब एक फ़ीसदी ही है यानी अमेरिका में किसानों की संख्या मात्र 30-35 लाख के आसपास ही है जबकि भारत में करीब 15 करोड़ किसान है। इनमें से भी करीब 85 प्रतिशत किसान लघु और सीमांत है जिनके पास 5 एकड़ से कम जमीन है। ऐसे में यह दिवास्वप्न है कि उत्पादकता विकसित देशों के बराबर हो जाये।

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अनुबंध का दायरा

केंद्र सरकार ने सन् 2020 में तीन कृषि कानून को मंजूरी दी थी। इस अध्यादेश पर राष्ट्रपति ने 27 सितंबर 2020 को हस्ताक्षर किये थे। इन तीनों कानूनों के विरोध में पंजाब, हरियाणा और पश्चिमी उत्तर प्रदेश के किसानों ने लंबा आंदोलन चलाया था। परिणाम स्वरुप सरकार ने तीनों कानूनों को वापस ले लिया था। इन कानूनों में एक कानून फॉम्र्स एंपावरमेंट एवं प्रोटेक्शन एग्रीमेंट ऑफ प्राईज एश्योरेंस फॉर्म सर्विसेज एक्ट 2020 भी था। इस कानून का उद्देश्य यह था कि अनुबंध कृषि के जरिए किसानों को बुवाई के मौसम से पहले अपनी कृषि उपज को पहले से समझौते के दौरान तय की गई कीमतों पर ही बेचने की बाध्यता रहेगी। इसमें इस बात का उल्लेख नहीं था कि यदि फसल की कीमत बाजार में कम हो जाती है तो अनुबंध करने वाला व्यवसायी/अनुबंधकर्ता कृषि उपज को एमएसपी की दर से कम कीमत पर नहीं खरीदेगा। इससे किसानों में भय था कि बड़ी कंपनियां छोटे किसानों का शोषण करेगी। यहां यह बात भी विचारणीय है कि अनुबंध खेती के लिए बिना किसान की सहमति के कोई भी कंपनी कैसे खेती करने के लिए किसानों से अनुबंध कर सकती है? इसमें किसानों की सहमति अनिवार्य होती है। यह तो अब इतिहास की बातें हो गई हैं लेकिन ऐसा नहीं है। अभी भी अनुबंध खेती हो रही है और हजारों किसान इसका फायदा उठा रहे हैं। इससे किसानों का जोखिम कम हो जाता है क्योंकि अनुबंध के अनुसार कंपनी को अनुबंध की गई कृषि उपज उसी कीमत पर खरीदनी होती है जो अनुबंध के समय कीमत तय की जाती है। अनुबंध खेती के तहत किसान निश्चित ही एमएसपी से अधिक कीमत पर ही अनुबंध करते होंगे। फसल की पहले से ही कीमत तय हो जाने से किसान निश्चिंत हो जाते हैं और वे कोशिश करते हैं कि उत्पादन अधिक हो। साथ ही अनुबंध करने वाली कंपनी भी चाहेगी की गुणवत्तायुक्त कृषि उपज हो ताकि वह अधिक से अधिक मुनाफा कमा सके।

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इस वर्ष फरवरी 2024 में लहसुन उत्पादक किसानों को अत्यधिक मुनाफा होने की खबरें प्रिंट और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के साथ सोशल मीडिया पर भी छाई रहीं। इसके पीछे का कारण कम उपभोक्ता ही जानते हैं। दरअसल, बरसात के बाद लगाई गई लहसुन कम समय यानी ढाई तीन महीना में ही खेत से निकालकर कच्ची ही बाजार में बेच दी जाती है। पिछले वर्ष कम कीमत होने और इस वर्ष लागत अधिक होने के कारण कम किसानों ने ही लहसुन की खेती की इसलिए इसके भाव अधिक हो गये थे। बाद में जैसे ही अन्य राज्यों से लहसुन की आवक शुरू हुई, कीमत कम हो गई और 400-500 रूपये किलो तक बिकने वाली लहसुन की कीमत खुदरा बाजार में 100 रूपये किलो तक नीचे आ गई हैं। अब जो लहसुन बाजार में आयेगी, उसकी कीमत कम ही रहेगी तथा इसे कुछ महीनों तक भंडारण कर रखा जा सकेगा। यदि यह लहसुन अनुबंध खेती के तहत की जाती, तब भी किसानों को फायदा ही होता। लेकिन बहुत कम ऐसे अवसर आते हैं जब किसानों को बहुत ज्यादा कीमत मिलती है। प्राकृतिक आपदा या फसल में रोग लग जाने अथवा अन्य कारणों से उत्पादन कम होने से ही कीमतें अत्यधिक बढ़ जाती हैं जिसका किसानों को फायदा होता है लेकिन ऐसे अवसर कम ही आते हैं और इसका फायदा भी बहुत कम किसानों को होता है। इसके विपरीत कभी-कभी तो किसानों को मंडी तक सब्जी ले जाने का किराया भी नहीं मिल पाता। प्राय: हर साल किसान टमाटर जैसे भंडारण नहीं कर सकने वाली सब्जियां आदि को मंडी में फेंक कर जाने की घटनाएं होती रहती हैं।

कृषि का व्यवसायीकरण

अनुबंध खेती में किसानों को फसल की निश्चित कीमतें मिलेंगी और निश्चित ही बाजार के औसत मूल्य से कम नहीं होंगी। इससे किसानों को नुकसान होने की जरा भी संभावना नहीं होती है क्योंकि जो भी कंपनी अपनी जरूरत के मुताबिक किसानों से अनुबंध खेती करेगी, इससे मांग और आपूर्ति का संतुलन बने रहने की संभावना बनी रहती है। भारत में कृषि असंगठित क्षेत्र में है इसलिए किसान अपनी जरूरत और बाजार में कीमत देखकर ही खेती करते हैं इसलिए कभी-कभी बाजार में किसी कृषि उपज की अत्यधिक आपूर्ति होने से कीमत बहुत कम हो जाती हैं या उपज का बहुत अधिक मूल्य प्राप्त होता है। यदि मांग और आपूर्ति के हिसाब से खेती की जाए तो संभवत: किसानों को उपज की हमेशा ही बेहतर कीमत मिल सकेगी। यह तभी संभव है जब कृषि का व्यवसायीकरण अर्थात् अनुबंध के आधार पर खेती की जाए। अनुबंधित खेती होने से नई तकनीक, बीज की उन्नत किस्में, खाद और दवाइयां की पर्याप्त उपलब्धता सुनिश्चित हो सकेगी। इसके अलावा खाद्य, फल एवं सब्जी प्रसंस्करण और भंडारण के क्षेत्र में भी और विस्तार होगा जिससे किसानों की आय में निरंतर वृद्धि होने की सम्भावना बनी रहेगी। जब अनुबंधित कृषि से किसान जुड़ेंगे तो निश्चित ही उत्पादन में संतुलन बनेगा और निर्यात में भी वृद्धि होगी। लेकिन अनुबंधित कृषि के लिये राष्ट्रीय स्तर पर व्यापक विचार-विमर्श किया जाना चाहिये ताकि घरेलु और निर्यात के लिये कृषि उपज में संतुलन बना रहे। यदि इस व्यवस्था का ठीक से कार्यांवयन हो जाता है तो सम्भवत: एमएसपी का कानून बनाने की जरूरत ही न रहे।

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