छोटे व्यवसाय से बड़ा मुनाफा
देश में मुर्गी पालन का व्यवसाय आधुनिक होने के साथ-साथ अपना रंगरूप भी बदल रहा है। यदि मुर्गीपालन को सरकारी स्तर पर बढ़ावा दिया जाए और सुरक्षा का भरोसा दिलाया जाए तो निश्चित है कि ग्रामीण क्षेत्रों में गरीबी दूर होने में बहुत ज्यादा वक्त नहीं लगेगा। सुरक्षा का आशय किसी कमांडों से नहीं है, बल्कि ऐसी सामाजिक सुरक्षा की जरूरत होती है जो मुहैया कराना बेहद जरूरी है। छोटा और गरीब परिवार मुर्गीपालन करता है तो उसके सामने कई तरह की चुनौतियां होती है। सबसे पहले तो गांव के दबंगों का प्रयास होता है कि उसे बिना पैसे की मुर्गी उपलब्ध हो जाए। पैसे न देने में अपनी शान समझी जाती है वहीं दूसरी तरफ जब कोई अफसर या नेता गांव पहुंचता है तो चमचों की फौज इकट्ठी हो जाती है और उनका पूरा प्रयास होता है कि बिना पैसे के एक मुर्गा लाकर साहब को खिलाकर अपना उल्लूू सीधा किया जाए। इस तरह का जो मुफ्त में खाने वालों का समुदाय है उससे इस व्यवसाय को बचाने के लिए पुख्ता उपाय किए जाने की बेहद जरूरत है। हालांकि यह भी सच है कि कुछ अतिरिक्त आमदनी के लिए घरों में छोटे पैमाने पर चलाए जाने वाले उद्योग से पूरी तरह तकनीक पर आधारित और तेजी से बढऩे वाले उद्योग में परिणत हो गया है। यह कायापलट कई पैमानों पर बेहद खास है। इसका एक खास पहलू यही है कि कई दूसरे विकासशील देशों की तुलना में यह क्षेत्र तकनीक निर्माण के साथ-साथ जरूरी उपकरणों और आगतों के निर्माण के मामले में आत्मनिर्भर हो गया है। लेकिन यह बताना बेहद जरूरी और लाजिमी है कि जिस गांव गरीब हरिजन रहते हंै और उनकी तादात भी बहुत कम होती है वहां दबंगता के आगे इन गरीबों को न केवल झुकना पड़ता है बल्कि दबंगों के लिए अपने छोटे से व्यावसाय के मुनाफे का हिस्सा मुर्गे के तौर पर देना पड़ता है। साथ ही मुर्गियों के प्रजनन, उनकी बीमारियों की पहचान, टीकों के विकास और प्रसंस्कृत पोल्ट्री उत्पादों के लिहाज से इसने विश्वस्तरीय बुनियादी ढांचा भी विकसित कर लिया है। इसमें अहम बात यही है कि इस प्रगति में सरकारी और निजी क्षेत्रों के समन्वित प्रयासों का योगदान रहा है। दुग्ध उद्योग में जहां अधिकांश वृद्घि चार-पांच गाय-भैंस रखने वाले छोटे उत्पादकों के असंगठित क्षेत्र के दम पर हुई है, उसके उलट पोल्ट्री क्षेत्र में आई क्रांति के पीछे संगठित क्षेत्र का पोल्ट्री कारोबार है। देश के कुल पोल्ट्री उत्पाद का 70 फीसदी से ज्यादा संगठित क्षेत्र से आता है और इसकी अधिकांश बिक्री शहरों में होती है। पोल्ट्री उद्योग का शहरों की ओर झुकाव शहरी और ग्रामीण इलाकों में अंडों और मांस की उपलब्धता का ही अनुचित नतीजा है। आधिकारिक अनुमानों के अनुसार शहरों में जहां प्रति व्यक्ति 170 अंडों की उपलब्धता है तो वहीं ग्रामीण इलाकों में यही आंकड़ा बमुश्किल 20 है। पोल्ट्री मांस के उपभोग का भी कमोबेश यही रुझान है। देश के पोल्ट्री क्षेत्र का एक और चौंकाने वाला पहलू यह है कि उत्पादन के मोर्चे पर तेजी आने के बावजूद उपभोक्ताओं की पसंद व्यापक तौर पर जस की तस बनी हुई है। अधिकांश खरीदार मुर्गियां खरीदना ही पसंद करते और उन्हें अपने सामने ही हलाल कराते हैं। इसके अलावा संगठित क्षेत्रों में पाली जाने वाली सफेद मुर्गियों के मांस पर देहाती इलाकों में पाले जाने वाले रगें-बिरंगे पंखों वाले ब्रॉयलर चिकन को ही तरजीह दी जाती है। यही बात भूरे रंग के अंडों पर लागू होती है, जिनके लिए ग्राहक अधिक कीमत चुकाने को भी तैयार रहते हैं। ऐसे में ग्राहकों की पसंद का ख्याल रखना पोल्ट्री उद्योग का खास मकसद है। वे ऐसी प्रजातियों के विकास पर काम कर रहे हैं, जो देसी बहुरंगी मुर्गियों की तरह नजर आ सकें और उनसे भूरे रंग के अंडे प्राप्त हो सकें। दूसरी ओर सार्वजनिक क्षेत्र के पोल्ट्री ब्रीडर्स का घरों में चलने वाली पोल्ट्री फार्मिंग को लोकप्रिय बनाने का एक और अतिरिक्त मकसद है, जिन्हें ऐसी उच्च क्षमताओं वाली प्रजातियों के विकास के जरिये हासिल किया जा सकता है, जो घरों के अलावा फैक्टरी फार्मों में भी आसानी से अनुकूलित हो सकें। कृषि के लिए वाणिज्यिक ओर वाणिज्यिक योग्य तकनीकों के लिए शुरू आईसीएआर के नए प्रकाशन की शृंखला में इन नई प्रजातियों का उल्लेख किया गया है। प्राणी विज्ञान क्षेत्र की सूची में 20 ऐसी प्रजातियों का जिक्र है, जिन्हें या तो पोल्ट्री किसानों को दे दिया गया है या फिर उन्हें वाणिज्यिक उत्पादन के लिए इच्छुक उद्यमियों को दिया जा रहा है। अपने रंग-बिरंगे पंखों और भूरे अंडों के चलते इन प्रजातियों की बाजार में अच्छी खासी धमक है और उनके विपणन में भी कोई दिक्कत नहीं है। इनमें से कुछ खासतौर से क्रिशब्रो को तो आसानी से देसी मुर्गी के तौर पर ऊंचे दाम पर बेचा जा सकता है। इसका मांस भी देसी मुर्गी के मांस जैसा ही है। इसके ब्रॉयलर का वजन भी छह हफ्तों में 1.5 से 2 किलो का हो जाता है। ऐसी प्रजातियां छोटे और सीमांत किसानों को कुछ अतिरिक्त आमदनी के लिए पोल्ट्री फार्मिंग की ओर आकर्षित कर सकती हैं।