मक्का की फसल में कीट एवं रोग प्रबंधन
लेखक: प्रथम कुमार सिंह स्कूल ऑफ एग्रीकल्चर, आई.टी.एम. यूनीवर्सिटी, ग्वालियर, डॉ. प्रद्युम्न सिंह,वैज्ञानिक, बी. एम. कृषि महाविद्यालय, खण्डवा
05 अगस्त 2024, भोपाल: मक्का की फसल में कीट एवं रोग प्रबंधन –
प्रमुख कीट
तना छेदक: यह कीट मक्के के लिए सबसे अधिक हानिकारक कीट है। ध्यान देने वाली बात यह है कि इसकी सुंडियां 20 से 25 मिमी लम्बी और स्लेटी सफेद रंग की होती है। जिसका सिर काला होता है और चार लम्बी भूरे रंग की लाइन होती है। इस कीट की सुंडियाँ तनों में छेद करके अन्दर ही अन्दर खाती रहती हैं। फसल के प्रारम्भिक अवस्था में प्रकोप के फलस्वरूप मृत गोभ बनता है, परन्तु बाद की अवस्था में प्रकोप होने पर पौधे कमजोर हो जाते हैं और भुट्टे छोटे आते हैं एवं हवा चलने पर पौधा बीच से टूट जाता है।
कटुआ: कीट इस कीट की सूँडी काले रंग की होती है, जो दिन में मिट्टी में छुपती है। रात को नए पौधे मिट्टी के पास से काट देती है। ये कीट जमीन में छुपे रहते हैं और पौधा उगने के तुरन्त बाद नुकसान करते हैं। कटुआ कीट की गंदी भूरी सुण्डियां पौधे के कोमल तने को मिट्टी के धरातल के बराबर वाले स्थान से काट देती है और इस से फसल को भारी हानि पहुंचाती है। सफेद गिडार पौधों की जड़ों को नुकसान पहुंचाते हैं।
सैनिक सुंडी: सैनिक सुंडी हल्के हरे रंग की, पीठ पर धारियां और सिर पीले भूरे रंग का होता है। बड़ी सुंडी हरी भरी और पीठ पर गहरी धारियाँ होती हैं। यह कुंड मार के चलती है। सैनिक सुंडी ऊपर के पत्ते और बाली के नर्म तने को काट देती है। अगर 4 सैनिक सुंडी प्रति वर्गफुट मिले तो इनकी रोकथाम आवश्यक हो जाती है।
फॉल आर्मीवर्म: यह एक ऐसा कीट है, जो कि एक मादा पतंगा अकेले या समूहों में अपने जीवन काल में एक हजार से अधिक अंडे देती है। इसके लार्वा मुलायम त्वचा वाले होते हैं, जो कि उम्र बढऩ़े के साथ हल्के हरे या गुलाबी से भूरे रंग के हो जाते हैं। अण्डों की ऊष्मायन अथवा इंक्यूबेसन अवधि 4 से 6 दिन तक की होती है। इसके लार्वा पत्तियों को किनारे से पत्तियों की निचली सतह और मक्के के भुट्टे को भी खाते हैं। लार्वा का विकास 14 से 18 दिन में होता है। इसके बाद प्यूपा में विकसित हो जाता है, जो कि लाल भूरे रंग का दिखाई देता है। यह 7 से 8 दिनों के बाद वयस्क कीट में परिवर्तित हो जाता है। इसकी लार्वा अवस्था ही मक्का की फसल को नुकसान पहुंचाती है।
समन्वित कीट नियंत्रण के उपाय:
- सदैव फसल की बुवाई समय पर करें।
- अनुशंसित पौध अंतरण पर बुवाई करें।
- संतुलित मात्रा में उर्वरकों का प्रयोग करें, जैसे नाईट्रोजन की मात्रा का ज्यादा प्रयोग न करें।
- खेत में पड़े पुराने खरपतवार और फसल अवशेषों को नष्ट कर दें।
- मृत गोभ दिखाई देते ही प्रभावित पौधों को भी उखाड़ कर नष्ट कर दें।
- मक्के की फसल लेने के बाद, बचे हुए अवशेषों, खरपतवार और दूसरे पौधों को नष्ट कर दें।
- समन्वित कीट के नियंत्रण हेतु प्रति एकड़ में 5 से 10 ट्राइकोकार्ड का प्रयोग करें।
- जिन क्षेत्रों में खरीफ सीजन में मक्का की खेती की जाती है, उन क्षेत्रों में ग्रीष्मकालीन मक्का न लें।
- अंतरवर्तीय फसल के रूप में दलहनी फसल जैसे मूंग, उड़द की खेती करें।
- फसल बुवाई के तुरंत बाद पक्षियों के बैठेने के लिए जगह हेतु प्रति एकड़ 8 से 10 टी आकार की खूंटिया खेत में लगा दें।
- फॉल आर्मीवर्म को रोकने के लिए 10 से 12 फेरोमोन ट्रैप प्रति हेक्टेयर की दर से लगा दें।
- 7 दिनों के अंतराल पर फसल का निरीक्षण करते रहें।
- छेदक कीटों के लिए क्लोरएन्ट्रानिलिप्रोल 18.5 एस.सी. की 0.5 मि.ली. मात्रा प्रतिलीटर पानी में घोल बनाकर छिड़काव करें।
- आइसोसाइक्लोसीरम 18.1 एस.सी. की 2 मि.ली. मात्रा को प्रति 3 लीटर, फॉल आर्मीवर्म के लिये उपरोक्त कीटनाशकों के अलावा स्पिन्टोरम 11.7 एस.सी. की 0.5 मि.ली. मात्रा प्रति लीटर पानी में पानी में घोल बनाकर छिड़काव करेें।
- तना छेदक, तना मक्खी एवं थ्रिप्स की रोकथाम के लिये 33 से 35 किलो कार्बोफ्यूरॉन 3 सी.जी. (दानेदार) की मात्रा प्रति हेक्टेयर की दर से खेत में प्रकोप होने पर बिखेर दें।
प्रमुख रोग
पत्ती झुलसा: मक्के के पौधों में पत्ती झुलसा रोग का असर पत्तियों पर देखने को मिलता है। इस रोग के प्रभाव की वजह से पौधे पर शुरुआत में नीचे की पत्तियां सूखने लगती हैं, पत्तियों पर लंबे, अंडाकार, भूरे धब्बे दिखाई पड़ते हैं, रोग बढऩे पर पौधों में ऊपर की पत्तियां भी धीरे धीरे सूखने लगती है जिससे पौधा विकास करना बंद कर देता है।
तना सडऩ: मक्का की खेती में तना सडन रोग का प्रभाव पौधों के विकास के दौरान अधिक बारिश के कारण जल भराव के दौरान देखने को मिलता है। इस रोग की शुरुआत पौधे पर पहली गांठ से होती है, इस रोग के लगने पर पौधों के तने की पोरियों पर जलीय धब्बे दिखाई देने लगते हैं। जो बहुत जल्दी सडऩे लग जाते हैं. सड़ते हुए भाग से एल्कोहल जैसी गंध आती है। पौधे की पत्तियां पीला पड़कर सूखने लगती है, जिसका असर बाद में पूरे पौधे पर देखने को मिलता है।
भूरा धारीदार मृदुरोमिल आसिता रोग:
यह एक फफूंद जनित रोग है। इस रोग के लगने से पौधों की पत्तियों पर हल्की हरी या पीली, 3 से 7 मिलीमीटर चौड़ी धारियां पड़ जाती हैं, जो बाद में गहरी लाल हो जाती है7 नम मौसम में सुबह के समय उन पर सफेद रुई के जैसी फफूंद नजर आती है। इस रोग के लगने पर पौधों में निकलने वाले भुट्टों की संख्या में कमी आ जाती है जिससे पैदावार भी कम हो जाती है।
रतुआ: मक्का की फसल में इस रोग का प्रभाव पौधों की पत्तियों पर देखने को मिलता है। इस रोग के लगने से पौधे की पत्तियों की सतह पर छोटे, लाल या भूरे, अंडाकार, उभरे हुए धब्बे देते हैं, जिन्हें छूने पर हाथों पर स्लेटी रंग का पाउडर चिपक जाता है ये फफोले पत्ते पर अमूमन एक ही कतार में पड़ते हैं। पौधों पर यह रोग अधिक नमी की वजह से फैलता हैं, रोग बढऩे पर पौधे की पत्तियां पीली होकर नष्ट हो जाती है, जिससे पौधों का विकास रुक जाता है।
नियंत्रण के उपाय:
- सदैव बीज उपचार करके ही बुवाई करें।
- खेत को खरपतवार मुक्त रखें।
- खेत की तैयारी के वक्त खेत की सफाई कर उसकी गहरी जुताई करके तेज़ धूप लगने के लिए खुला छोड़ दें।
- मेटालेक्सिल 35 डब्लू एस की 1 किलोग्राम मात्रा के 100 किलो बीजों को उपचारित कर बोया जाये इसके अलावा बाज़ार में मिलने वाले फफूंदनाशकों जैसे मेन्कोजेब 75 डब्लूपी या कार्बेन्डाजिम आदि की 2 ग्राम मात्र प्रति लीटर पानी में घोल बनाकर रोग दिखने पर छिड़काव करने से रोग का नियंत्रण हो जाता है।
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