फसल की खेती (Crop Cultivation)

धनिया से बनें धनवान

भूमि : अच्छे जल निकास वाली रेतीली दोमट या मटियार दुमट भूमि जिसकी उर्वराशक्ति अच्छी हो उपयुक्त रहती है। क्षारीय एवं अम्लीय भूमि में उपज अच्छी प्राप्त नहीं होती। असिंचित क्षेत्रों के लिये भारी किस्म की भूमि जिसमें जलधारण क्षमता अच्छी हो, अधिक उपयुक्त होती है। सिंचित अवस्था में सभी प्रकार की भूमि जिसमें पर्याप्त जैविक अंश मौजूद हों धनिया की खेती की जा सकती है।

महत्वपूर्ण खबर : ऐसे करें अलसी की खेती

उन्नत किस्में : गुजरात धनिया , को.1 को.2, को. 3, आर.सी.आर.41, आर.सी.आर. 20, पूसा चयन 360, स्वाति, सी.एस. 2, साधना, राजेन्द्र स्वाति, सी.एस. 287, ग्वालियर नं.5365, सिन्दू, आर.सी.आर. 435, आर.सी.आर. 436, आर.सी.आर. 446।

खाद एवं उर्वरक : धनिया के लिये 20 से 25 टन गोबर या कम्पोस्ट की खाद प्रति हेक्टेयर की दर से प्रथम जुताई के पूर्व खेत में बिखेर दें। इसके अतिरिक्त नत्रजन 60 कि.ग्रा., स्फुर 40 कि.ग्रा. एवं पोटाश 20 कि.ग्रा. प्रति हे. की अनुशंसा की गई।

बीज मात्रा : बीज की मात्रा बुवाई विधि पर निर्भर करती है। छिटकवाँ विधि से बुवाई के लिये 22 से 25 कि.ग्रा. एवं पंक्तियों में बुवाई के लिये 12 से 15 किग्रा प्रति हे. बीज की आवश्यकता होती है।

खेत की तैयारी : असिंचित खेती के लिये भूमि में सिंचित वर्षा की नमी जब उचित स्तर पर आ जाए खेत की तैयारी शुरू कर दें। पहली गहरी जुताई के पश्चात 2 से 3 जुताई देशी हल या हेरो से करके मिट्टी को भुरभुरा बना लें। जुताई के बाद पाटा अवश्य लगायें ताकि ढेले अच्छी तरह से फूट जायें। सिंचित फसल के लिये भूमि में अगर नमी का अभाव हो तो पलेवा देकर खेत की तैयारी करें। हल्की मिट्टी में कम एवं भारी मिट्टी में अधिक जुताई की आवश्यकता होती है। ग्रीष्मकालीन गहरी जुताई करना लाभप्रद होता है।

खाद एवं उर्वरक देने की विधि : असिंचित क्षेत्रों में गोबर एवं कम्पोस्ट खाद की पूरी मात्रा खेत की पहली जुताई के समय समान रूप से फैलाकर मिट्टी में मिलाएं एवं नत्रजन, स्फुर एवं पोटाश की पूरी मात्रा खेत की अंतिम जुताई के समय मिट्टी में मिला दें। सिंचित क्षेत्रों में खेत की अंतिम जुताई के समय नत्रजन की आधी मात्रा के साथ स्फुर एवं पोटाश की मात्रा खेत में समान रूप से छिटककर आधार खाद के रूप में दें। नत्रजन की शेष मात्रा को दो बराबर मात्रा में बांट के 30 से 40 दिन बाद खेत में अतिरिक्त पौधों को निकालने के पश्चात खड़ी फसल में बिखेर दें।

बुवाई समय : धनिया मुख्यत: रबी की फसल है। अधिकांश क्षेत्रों में वर्षाधारित खेती की जाती है। इसलिये इसे शुद्ध या मिश्रित फसल के रूप में उगाया जाता है। बुवाई के लिये सर्वोतम समय अक्टूबर से लेकर नवम्बर का द्वितीय सप्ताह होता है, क्योंकि इस समय ठंड अधिक नहीं पड़ती है। उत्तरी भारत में धनिये की बोआई का उपयुक्त समय 15 अक्टूबर से15 नवम्बर है।

बीजोपचार : मृदा एवं बीज जनित फफूंदी रोगों से बचाव हेतु धनिया के दानों को दो भागों में विभक्त करने के पश्चात थायरम, कार्बेन्डाजिम के 3 ग्राम सम मिश्रण या ट्राइकोडरमा विरडी या ट्राइकोडरमा हार्जीनिया 4 ग्राम प्रति किलो की दर से उपचारित कर बुवाई करें।

बुवाई का तरीका : सामान्य तौर पर धनिया की बुवाई दो विधियों से की जाती है।

छिटकवां विधि : इस विधि में कम समय में अधिक क्षेत्र की बुवाई सुगमता एवं शीघ्रता से की जा सकती है। इस विधि मे अधिक बीज की आवश्यकता होती है। साथ ही बीजों का वितरण समान रूप से नहीं होता है। परिणामस्वरूप अंत: शस्य क्रियायें पूर्णरूपेण नहीं हो पाती जिससे उपज कम मिलती है।

कतारों में बुवाई : धनिया की बुवाई पंक्तियों में करना अधिक लाभप्रद होता है। बुवाई के लिये कतार से कतार की दूरी 25 से 30 से.मी. एवं पौधे से पौधे की दूरी 10 से 12 से.मी. रखनी चाहिए। कूड़ में बीज की गहराई 3 से 5 से.मी. तक होनी चाहिए। बीज को अधिक गहराई पर बोने से अंकुरण कम प्राप्त होता है।

सिंचाई एवं जल निकास : फसल के अंकुरण के बाद पहली सिंचाई एवं दूसरी सिंचाई फूल आने के समय एवं तीसरी सिंचाई दाने के बनते समय करनी चाहिए। सामान्यत: धनिया की फसल को अधिक सिंचाई की आवश्यकता नहीं होता है। मौसम एवं मिट्टी की दिशा को देखकर सिंचाई आवश्यकतानुसार करें। खेत में पानी का भराव न होने दें अन्यथा फसल के मरने की आशंका रहती है।

निंराई – गुड़ाई एवं खरपतवार नियंत्रण : धनिया के साथ कई खरपतवार भी उग आते हैं जो भूमि से नमी, पोषक तत्वों स्थान धूप आदि के लिये प्रतिस्पर्धा करते है जिसके कारण पौधों के विकास एवं बढ़वार पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है। खरपतवार नियंत्रण के लिये दो बार निंदाई-गुड़ाई करनी चाहिये। बुवाई के 30 से 45 दिन बाद एवं दूसरी पहली गुड़ाई के 60 से 70 दिन बाद करें। पहली के समय अतिरिक्त अनावश्यक पौधों को निकालकर पौधों से पौधों की दूरी 10 से 12 से.मी. कर लें। यदि फसल बड़े क्षेत्र में उगाई गई है तो अंकुरण के पूर्व पेन्डीमिथालिन 1.0 कि.ग्रा. सक्रिय तत्व का प्रति हेक्टेयर की दर से नमी की अवस्था में छिड़काव करें। इसके बाद बुवाई के 40 से 50 दिन बाद निंदाई – गुड़ाई करनी चाहिये।

कटाई एवं गहाई : फसल 90 से 100 दिन में पककर तैयार हो जाती है। जब फूल आना बंद हो जायें और बीजों के गुच्छों का रंग भूरा हो जाये तब फसल कटाई के लिये तैयार मानी जाती है। कटाई के बाद फसल को खलिहान में छाया में सुखाना चाहिये।

उपज : सिंचित क्षेत्रों में औसत उपज 12 से 18 क्ंिवटल एवं असिंचित क्षेत्रों 6 से 8 क्ंिवटल प्रति हेक्टयर प्राप्त होती है।

भंडारण : दानों को सुखाने के पश्चात बोरियों में या कोठियों में भरकर नमी रहित स्थानों में भंडारित करना चाहिये।

कीट नियंत्रण : माहू (एफिड) – यह छोटा हरे रंग से पीला या पीलापन लिये भूरे रंग का कीट है। प्राय: कोमल पत्तियों, फूलों व बनते बीजों से रस चूसता है। अक्सर फूल आते समय या उसके बाद माहू का प्रकोप होता है। ये पौधों के कोमल भागों का रस चूसते हैं जिससे उपज में भारी कमी आ जाती है। इसके नियंत्रण हेतु 0.03 प्रतिशत डाइमिथियेट या 0.1 प्रतिशत मैलाथियान (50 ईसी) का 500-600 लीटर पानी में घोल बनाकर प्रति हेक्टेयर छिड़काव करें।

बरुथी (माइट्स) – यह कीट भी रस चूसकर पौधों को नुसान पहुंचाते हैं। इनका प्रकोप बीज बनते समय, नन्हें पुष्पों एवं पत्तियों पर अधिक होता है। समय पर उपचार नहीं करने पर उपज घट जाती है। यह कीट के नियंत्रण हेतु डायकोफाल 0.07 प्रतिशत या इथयोन 0.025 प्रतिशत या फास्फोमिडान 0.03 प्रतिशत का छिड़काव करना चाहिये।

रोग नियंत्रण

झुलसा रोग (ब्लाइट) – इस रोग से तने और पत्तियों पर गहरे भूरे रंग के धब्बे बन जाते हैं तथा पत्तियां झुलसी हुई दिखाई देती हैं। वर्षा या नमी होने पर इस रोग के बढऩे की संभावना ज्यादा रहती है। इसके नियंत्रण हेतु 0.2 प्रतिशत बाविस्टीन या 0.2 प्रतिशत डाइथेन एम-45 का छिड़काव 500-600 लीटर पानी में घोल बनाकर करें।

तना सूजन (स्टेम गाल) – इस रोग के कारण पत्तियों एवं तने पर उभरे हुये फफोले (गाल्स) बन जाते हैं। जिससे पौधे नष्ट हो जाते हैं। बीजों की शक्ल बदल जाती है। नमी की अधिकता से बीमारी का प्रकोप बढ़ जाता है। पौधे पीले हो जाते हैं तथा बढ़वार रुक जाती है। पुष्पक्रम पर प्रकोप होने पर बीज बनने की प्रक्रिया पर दुष्प्रीााव पड़ता है। पत्तियों पर गाल्स शिराओं पर केन्द्रित रहते हैं। इसके नियंत्रण हेतु बुवाई से पहले बीजों को बाविस्टीन 1.5 ग्राम+थाइरम 1.5 ग्राम (1:1) प्रति किलोग्राम बीज की दर से बीजोपचार कर बुवाई करना चाहिये। प्रतिरोधी किस्म आरसीआर-41 एवं राजेन्द्र स्वाति नामक किस्मों की बुवाई करें।

पाउडरी मिल्डयू – इस रोग की प्रारम्भिक अवस्था में पौधों की पत्तियां एवं टहनियों पर सफेद चूर्ण दिखाई देते हैं। अगर इस रोग की रोकथाम न की जाये तो पूरा पौधा चूर्ण से ढक जाता है। पत्तियों का हरापन नष्ट होकर पत्तियां सूख जाती हैं। रोगग्रस्त पौधों पर बीज नहीं बनते या बहुत कम एवं छोटे आकार के बनते हें। जिससे पैदावार पर विपरीत प्रभाव पड़ता है। बीजों की विपणन गुणवत्ता कम हो जाती है।

Advertisements

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *