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सुदृढ़ विकास की जरूरत जहां नक्सलवाद पनप ही न सके

हाल ही में छत्तीसगढ़ में हुए नरसंहार को अलग-अलग नजरिये से देखा जा सकता है। उसकी जड़ में मूलभूत समस्या क्या है, उसके बारे में आजादी से पहले और आजादी के बाद भी सत्ताधारी वर्ग सही बात सामने नहीं आने दे रहा है। जिम्मेदार लोग अजीबो गरीब विश्लेषण और अजीबो गरीब समाधान बता देते हैं। 21वीं सदी में प्राकृतिक संसाधनों को लेकर एक बड़ा संघर्ष चल रहा है। पूरे पूर्वी भारत में धन की शक्ति रखने वाले लोग सत्ता से मिलकर ऐसे नियम व कायदे बनवा लेते हैं जिनसे वे प्राकृतिक संसाधनों पर बड़ी शालीनता और सभ्यता से कब्जा जमाने में कामयाब हो जाते हैं। भूमिपुत्र आदिवासी, मछुआरे व छोटे किसान दो वक्त की रोटी पैदा करने के हक से भी महरूम होते देखे गए हैं। और जब यही लोग अपने जिंदा रहने के प्राकृतिक हक के तहत खड़े होकर बोलने लगते हैं,तो सभी को लगता है कि ये गैरकानूनी, संविधान के विरुद्ध बोलने वाले लोग हैं। जमीन के कागजी दस्तावेजों में भूमिपुत्र दिखाई नहीं देते लेकिन बड़ी-बड़ी कंपनियां और धनवान लोग अपने धन की ताकत तथा सत्ता के संरक्षण से जल, जंगल और जमीन पर काबिज होते हैं।
क्या हमें विनोबा और गांधीजी को दूसरी बार धरती पर लाना होगा? महाराष्ट्र से विनोबा भावेजी ने भूदान यज्ञ को आरंभ करके पूरे देश में पदयात्रा की। उनकी इस रणनीति में नक्सलवाद या इसी प्रकार के अन्य हिंसक आतंकवादी संघर्षों का समाधान छिपा है। देश को यह तो तय करना ही पड़ेगा कि जल, जंगल और जमीन हम आम आदमी के लिए संरक्षित करते हैं या नहीं। प्रकृति से अपने जीने का जुगाड़ करने वाले लोग टुकुर-टुकुर विकसित होती हुई राजधानियों और आलीशान सड़कों, गगनचुम्बी इमारतों को देखते हैं। वे सोचते होंगे कि विकास और विकास की आंधी चल रही है और इस विकास के मॉडल में उनके हाथ से जल, जंगल और जमीन (प्राकृतिक संसाधन) छीने जा रहे हैं।
छत्तीसगढ़ में हुआ नरसंहार निश्चित तौर पर वर्तमान व्यवस्था के लिए शर्मनाक है। नक्सलबाड़ी आंदोलन का बीज भूमि संघर्ष से पैदा हुआ था। आजादी के 70 वर्षों बाद भी हम भू सुधार को व्यवहार रूप में लागू नहीं कर पाए। इसी का परिणाम है कि एक किसान का बेटा (नक्सलवादी) दूसरे किसान के बेटे (सुरक्षा सेनाएं) को गोली मार देता है। दोनों की गोलियां कभी भी शासन व्यवस्था की चमड़ी को छू नहीं पाती। लेकिन ये खेल बरसों-बरस से चल रहा है। कोई बड़ी घटना घट जाती है, तो शासन पर काबिज लोग बंदूक, तोप और बारूद में ही समाधान खोजते हैं। वे छोटी ताकत से हटकर बड़ी ताकत से कंगलों पर हमला करने की योजना बनाते हैं। निश्चित ही वर्तमान में घटी घटना में गैर-कानूनी ढंग से संगठित नक्सलवादियों के तीर व तमंचों का मुकाबला और बड़ी फौज तथा वायु सेना, आधुनिकतम हथियारों से करने की योजना बनाते हैं। आजकल तो यह भी हो चला है कि सरकार का विरोध या निराष्ट्र का विरोध। कोई भी इस व्यवस्था को भंग क्यों नहीं करना चाहता जबकि इसका समाधान बहुत आसान है।
क्या हमें विनोबा और गांधीजी को दूसरी बार धरती पर लाना होगा? महाराष्ट्र से विनोबा भावेजी ने भूदान यज्ञ को आरंभ करके पूरे देश में पदयात्रा की। उनकी इस रणनीति में नक्सलवाद या इसी प्रकार के अन्य हिंसक आतंकवादी संघर्षों का समाधान छिपा है।  देश को यह तो तय करना ही पड़ेगा कि जल, जंगल और जमीन हम आम आदमी के लिए संरक्षित करते हैं या नहीं। प्रकृति से अपने जीने का जुगाड़ करने वाले लोग टुकुर-टुकुर विकसित होती हुई राजधानियों और आलीशान सडक़ों, गगनचुम्बी इमारतों को देखते हैं। वे सोचते होंगे कि विकास और विकास की आंधी चल रही है और इस विकास के मॉडल में उनके हाथ से जल, जंगल और जमीन (प्राकृतिक संसाधन) छीने जा रहे हैं।
भारत की समस्या माओवाद के नाम से हल नहीं हो सकती, न ही द्वि राष्ट्र के सिद्धान्त से। भारत में तो बहुत आसानी से भूसुधार लागू कर हर किसान को उसके जीने लायक हक बहाल करके किया जा सकता है। जमीन किसकी हो, जाहिर है आजादी के संघर्ष में ही हर किसी ने यह तय किया था कि जमीन जोतने वाले की (खेती करने वाले की हो)। एक लोकतांत्रिक देश में धनी मानी बड़े लोगों, कंपनियों और राजनेताओं की संपत्ति की रक्षा कानून व्यवस्था के नाम पर करने को सब तत्पर हैं। चाहे कोई भी राजनैतिक पार्टी हो,वो संविधान की पोथी को सिर पर लगाकर कानून व्यवस्था की रक्षा का दावा ठोंकती है, परन्तु हम गरीब आदिवासी, किसान, मछुआरों के जीने के हक के लिए संविधान और कानून का उपयोग क्यों नहीं कर सकते?
अभी भी वक्त है कि देश की राष्ट्रवादी सरकार विनोबाजी और गांधीजी के विचारों को खंगालकर समस्या का हल खोजें। जितनी ज्यादा देर होगी, उतनी ही समस्या जड़ हो जाएगी। हमारी व्यवस्था को विकास के मॉडल पर गहन चिंतन करना चाहिए। असफल विकास के मॉडल को अपनी कामयाबी बताना एक बेवकूफी पूर्ण कदम होगा। जमीन का मामला सही-सही ढंग से हल हुए बगैर हम अपनी एक भी समस्या का समाधान नहीं कर पाएंगे। राम जन्मभूमि की जड़ में भी सरयू और गंगा की उपजाऊ जमीन का मामला छुपा है। हम जो बात लिख रहे हैं, वो सभी राजनैतिक लोग, न्यायप्रणाली और प्रशासनिक तंत्र समझता है लेकिन शासन को यह तय करना पड़ेगा कि वह किसका प्रतिनिधि है। बड़े-बड़े कॉर्पोरेट घरानों, बहुराष्ट्रीय निगमों, पुराने व नए राजा महाराजाओं का प्रतिनिधि बनकर शासन कोई भी उपलब्धि हासिल नहीं कर सकता। वे बड़ी-बड़ी बातें बोल सकते हैं, श्रद्धांजलियां दे सकते हैं, मुआवजे दे सकते हैं, लेकिन सड़ी गली व्यवस्था में मरने और मारने की नीयत और हिम्मत रखने वाले कंगले पिछले 70 वर्ष से जिस प्रकार खड़े होते रहे हैं, वैसे ही वो पैदा होते रहेंगे और मरते रहेंगे। हमें एक ऐसी व्यवस्था चाहिए जहां नक्सलवाद पैदा ही न हो। जल, जंगल और जमीन पर जनसामान्य का हक खुलेदिल से स्वीकार लेना चाहिए। चुनावी लोकतंत्र सरमायदारों का लोकतंत्र हो सकता है,क्योंकि सरमायेदार लोकतांत्रिक नहीं हैं। भारत से ही हम आर्थिक लोकतंत्र की दिशा को पूरे विश्व में प्रकट कर सकते हैं। (सप्रेस)

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