किसान और कृषि पारिस्थितिकी को माने अन्नदाता
नफीज अहमद
विश्व के खाद्यान्न उत्पादन में 70 प्रतिशत का योगदान करने वाले किसानों के खाते में सब्सिडी का मात्र 20 प्रतिशत और शोध का महज 10 प्रतिशत ही जाता है। इसके बावजूद वे पूरे विश्व को न सिर्फ अराजकता से बल्कि दुनिया की तीन चौथाई आबादी को भूखा मरने से भी बचाए हुये हैं। भारत सहित पूरे विश्व की नव उदारवादी नीतियां इन अन्नदाताओं का नाश कर अंतर्राष्ट्रीय खाद्य श्रृंखला पर अपना कब्जा स्थापित कर लेना चाहती हैं। इस खतरनाक प्रवृत्ति को सामने लाता महत्वपूर्ण आलेख।
जमीन, पानी और संसाधनों की उपलब्धता से जुड़े पर्यावरणीय एवं पारिस्थितिकी के प्रभाव के फलस्वरूप आधुनिक औद्योगिक कृषि प्रणालियां अब इस दुनिया की भूख शांत नहीं कर पाएंगी। यह चेतावनी संयुक्त राष्ट्र संघ द्वारा भोजन के अधिकार पर नियुक्त विशेष प्रतिनिधि प्रोफेसर हिलाल ईल्वर ने पदभार ग्रहण करने के बाद के अपने पहले सार्वजनिक व्याख्यान में कही। एमेस्टरडम में खचाखच भरे सभागृह में उन्होंने कहा ‘ऐसी सारी खाद्य नीतियां जो कि विश्व मौजूद भूख के मूल कारणों के प्रति उत्तरदायी नहीं हैं वे हर हाल में असफल साबित होंगी।Ó उन्होंने घोषणा की कि विश्व में एक अरब लोग भूखे हैं और संस्कारों को ‘कृषि लोकतंत्रÓ के माध्यम से ऐसे रूपांतरण में सहायक होना चाहिये जो कि छोटे किसानों को सशक्त करें।
कृषि पारिस्थितिकी : कृषि को नई दिशा की आवश्यकता।
उन्होंने कहा कि ‘सन् 2009 के खाद्य संकट ने वैश्विक खाद्य प्रणाली में परिवर्तन की ओर इशारा कर दिया है। सन् 1950 के दशक से प्रचलन में आई आधुनिक कृषि संसाधनों एवं जीवाश्म ईंधन पर अति निर्भर, खादों का प्रयोग करने वाली और अत्यधिक उत्पादन पर आधारित है। यह नीति बदलनी ही होगी। हम चुनौतियों की श्रंृखला का सामना कर रहे हैं। संसाधनों की कमी, बढ़ती जनसंख्या, भूमि की उपलब्धता और उस तक पहुंच में कमी, पानी की बढ़ती कमी और भूमि के क्षरण ने हमें इस बात पर पुर्नविचार हेतु बाध्य कर दिया है कि भविष्य की पीढ़ी के मद्देनजर हम किस प्रकार अपने संसाधनों का सर्वश्रेष्ठ उपयोग कर सकते हैं।
संयुक्त राष्ट्र के एक अधिकारी का कहना है कि नये वैज्ञानिक शोधों से उजागर हुआ है किस प्रकार ‘कृषि परिस्थितिकीÓ पर्यावरणीय सुस्थिर प्रणालियों के माध्यम से अभी भी खाद्य पदार्थों की बढ़ती मांग की पूर्ति कर सकती है। ‘कृषि पारिस्थितिकी कृषि का एक पारंपरिक तरीका है, जिसमें कि संसाधनों का प्रयोग कम होता है और उसकी समाज से संगति भी बैठती है।
हिलाल ईल्वर ने कहा है कि, ‘जो खाद्यान्न का उपयोग कर रहे हैं और जो उत्पादन कर रहे उनके मध्य भौगोलिक एवं वितरण संबंधी असंतुलन है। वैश्विक कृषि नीति को समायोजित करने की आवश्यकता है। भविष्य के भीड़ भरे और तपते विश्व में कमजोरों को किस तरह संरक्षित किया जाये इस पर ध्यान देना जरूरी है। इससे खाद्य उत्पादन में महिलाओं की भूमिका जो कि किसान से घरेलू महिला से लेकर कामकाजी में तक है में यह अपरिहार्यता स्पष्ट होती है कि वह विश्व में महत्वपूर्ण भोजन प्रदाता है। इसका यह अर्थ भी है कि छोटे किसानों को मान्यता प्रदान की जाय जो कि सबसे ज्यादा जोखिम में और सबसे ज्यादा भूखे हैं।
ईल्वर महज संयुक्त राष्ट्रसंघ की अपनी अधिकारिता से ही नहीं बल्कि एक सम्माननीय बुद्धिजीवी के नाते भी संबोधित कर रही थीं। उन्होंने विशाल एकल कृषि व्यापार कंपनियों को दी जाने वाली अत्यधिक सब्सिडी की कटु आलोचना की। वर्तमान में यूरोपीय यूनियन की सब्सिडी का करीब 80 प्रतिशत और शोध संबंधी धन का 90 प्रतिशत इस परंपरागत औद्योगिक कृषि को दिया जा रहा है। उनके अनुसार, ‘अनुभव सिद्ध एवं वैज्ञानिक तथ्य बताते हैं कि छोटे किसान ही विश्व का पेट भरते हैं।Ó संयुक्त राष्ट्र खाद्य एवं कृषि संगठन (एफएओ) के अनुसार, जितना खाद्यान्न वैश्विक उपयोग में आता है उसका 70 प्रतिशत छोटे किसानों के माध्यम से आता है। यह भविष्य की कृषि नीतियों के लिहाज से महत्वपूर्ण है। वर्तमान में अधिकांश कृषि सब्सिडी बड़े कृषि व्यापार को जाती है। इसमें हर हाल में परिवर्तन होना चाहिये। सरकारें छोटे किसानों की हर सूरत में मदद करें। चूंकि ग्रामीण लोगों का शहरों की ओर पलायन बढ़ रहा है, इससे भी समस्याएं पैदा हो रही हैं। अगर यह प्रवृत्ति जारी रहती है तो सन् 2050 तक संपूर्ण मानव आबादी का 75 प्रतिशत शहरी क्षेत्रों में रहने लगेगा। हमें छोटे किसानों, खासकर ग्रामीण क्षेत्रों में रह रहे युवाओं को नई संभावनाएं एवं प्रोत्साहन देकर इस प्रवृत्ति को पलटना ही होगा।Ó अगर यह क्रियान्वित हो जाता है तो, इल्वर के सुझाव वर्तमान सरकारी खाद्व नीतियों में महत्वपूर्ण परिवर्तन ला पायेंगे।
हालैंड के एक वरिष्ठ खाद्य एवं पोषण अधिकारी ने इस सभा में इल्वर से असहमति जताते हुये कहा कि ‘छोटे किसानों को अधिक सशक्त करने की बात से मैं सहमत हूं। लेकिन वास्तविकता यह है कि बड़े कृषि फार्म अब गायब नहीं होंगे। अतएव हमें औद्योगिक कृषि व्यापार को और प्रभावशाली बनाने के तरीके तलाशने होंगे। और इसका अर्थ है कि हमें छोटे या बड़े निजी क्षेत्र के साथ भागीदारी करना ही होगी। संयुक्त राष्ट्र की नई खाद्य विशेष प्रतिनिधि पदग्रहण व्याख्यान कमोवेश इटली के रोम में खाद्य एवं पोषण सुरक्षा हेतु कृषि पारिस्थितिकी पर हुये दो दिवसीय महत्वपूर्ण सम्मेलन के साथ-साथ ही हुआ है, जिसे एफएओ ने आयोजित किया था। इसमें वैज्ञानिकों, निजी क्षेत्र, सरकारी अधिकारियों एवं नागरिक समाज के अग्रणी लोगों ने भागीदारी की थी।
अनेक वैज्ञानिकों का मानना है कि कृषि पारिस्थितिकी किसी विज्ञान से कहीं ज्यादा है। यह न्याय के लिये एक सामाजिक आंदोलन भी है जो कि किसानों के समुदायों के उन अधिकारियों का न सिर्फ सम्मान करता है बल्कि मान्यता भी देता है कि वे स्वयं तय करें कि उन्हें क्या उगाना है और कैसे उगाना है। वहीं कुछ अन्य वैज्ञानिकों का कहना है कि औद्योगिक कृषि के प्रति हम जरूरत से ज्यादा कृपालु बने रहे। निजी क्षेत्र ने इसकी अनुशंसा की लेकिन वह विश्व का पेट भरने में असमर्थ रहा है। साथ ही यह पर्यावरण प्रदूषण और प्राकृतिक संसाधनों के अनुचित उपयोग की भी दोषी है।
हमें जल्दी से जल्दी इससे छुटकारा पाना चाहिये। ब्राजील के मानव अधिकार (भूमि, भूभाग एवं खाद्य) के प्रमुख प्रतिनिधि प्रो. सरगिओ साउर का कहना है ‘सामान्यतया कोई भी कृषि परिस्थितिकी की बात नहीं करता क्योंकि यह अत्यंत राजनीतिक मसला है। यदि एफएओ इस मुद्दे पर विचार हेतु अंतर्राष्ट्रीय सम्मेलन आयोजित कर रहा है तो यह एक मील का पत्थर साबित होगा।Ó (सप्रेस)