नदियों के नागरिक अधिकार
न्यूजीलैंड की संसद द्वारा वांगानुई नदी को इंसानी अधिकार देने के फैसले से प्रेरित होकर उत्तराखण्ड उच्च न्यायालय ने भी गंगा और यमुना नदियों को जीवित व्यक्तियों जैसे अधिकार देने का ऐतिहासिक फैसला सुनाया है। इन अधिकारों को सुरक्षित बनाए रखने के लिये गंगा प्रबन्धन बोर्ड बनाया जाएगा। इससे नदियों के जलग्रहण क्षेत्र से अतिक्रमण हटाने व गन्दगी बहाने वालों को प्रतिबन्धित करना आसान होगा।
फिलहाल यह कहना मुश्किल है कि इस फैसले का असर कितना होगा। क्योंकि इसके पहले हमारी नदियों को प्रदूषण मुक्त बनाए रखने की दृष्टि से सर्वोच्च व उच्च न्यायालय कई निर्णय सुना व निर्देश दे चुके हैं, लेकिन ज्यादातर निर्देश व निर्णय निष्प्रभावी रहे। गंगा का कल्याण राष्ट्रीय नदी घोषित कर देने के पश्चात भी सम्भव नहीं हुआ। राष्ट्रीय हरित अधिकरण के सचेत बने रहने के बावजूद नदियों में कूड़ा-कचरा बहाए जाने का सिलसिला निरन्तर बना हुआ है। सबसे पहले किसी नदी को मानवीय अधिकार देने की कानूनी पहल होनी तो हमारे देश में चाहिए थी, लेकिन हुई न्यूजीलैंड में है। औद्योगीकरण, शहरीकरण और बढ़ती आबादी के चलते दुनिया भर की नदियाँ ही नहीं, वे सब प्राकृतिक सम्पदाएँ जबरदस्त दोहन का शिकार हैं, जिनके गर्भ में मनुष्य के लिये सुख व वैभव के संसाधन समाए हैं। किन्तु अब यह पहली मर्तबा हुआ है कि किसी प्राकृतिक संसाधन को जीवन्त इंसानी संरचना मानते हुए नागरिक अधिकार प्रदान किये गए हैं। इसी का अनुकरण नैनीताल उच्च न्यायालय ने किया है।
न्यूजीलैंड में वांगानुई नदी को इंसानी दर्जा मिला है। इस नदी के तटवर्ती ग्रामों में माओरी जनजाति के लोग रहते हैं। उनकी आस्था के अनुसार नदी, पहाड़, समुद्र और पेड़ सब में जीवन है। लेकिन इस अजीब आस्था को मूर्तरूप में बदलने के लिये इन लोगों ने 147 साल लम्बी लड़ाई लड़ी। तब कहीं जाकर न्यूजीलैंड संसद विधेयक पारित करके नदी को नागरिक अधिकार व दायित्व सौंपने को मजबूर हुआ।
उत्तर-प्रदेश का विधानसभा चुनाव जीतने और योगी आदित्यनाथ के मुख्यमंत्री बनने के बाद शायद वह सुनहरा अवसर आ गया है कि केन्द्र और राज्य सरकार आपसी तालमेल बिठाकर गंगा सफाई अभियान को गति दें? सांस्कृतिक राष्ट्रवाद को साकार रूप में बदलने की सार्थक व सकारात्मक शुरुआत इस मुहिम को सफल बनाकर की जा सकती है। यदि अब भी कहीं कोई बाधा आती है तो हमारी संसद को भी न्यूजीलैंड से प्रेरणा लेते हुए गंगा समेत प्रदूषणग्रस्त सभी नदियों को इंसानी अधिकार देने की पहल करनी चाहिए।
न्यूजीलैंड की संसद में वांगानुई नदी से जुड़ा जो विधेयक बहुमत से पारित हुआ है, उसके चलते इस नदी को अब एक व्यक्ति के तौर पर अपना प्रतिनिधित्व करने का नागरिक अधिकार दे दिया है। इसके दो प्रतिनिधि होंगे। पहला माओरी समुदाय से नियुक्त किया जाएगा, जबकि दूसरा सरकार तय करेगी। साफ है, वांगानुई की अब कानूनी पहचान निर्धारित हो गई है। इस संवैधानिक अधिकार को पाने के लिये माओरी जनजाति के जागरूक नागरिक क्रिस फिनालिसन ने निर्णायक भूमिका निभाई है।
विधेयक में नदी को प्रदूषण मुक्त करने व प्रभावितों को मुआवजा देने के लिये 8 करोड़ डॉलर का प्रावधान भी किया गया है। नदी को इंसानी दर्जा मिलने के बाद से भविष्य में वह अपने अधिकारों को संरक्षित कर सकती है। यदि कोई व्यक्ति नदी को प्रदूषित करता है, उसके तटवर्ती क्षेत्र में अतिक्रमण करता है या अन्य किसी प्रकार से नुकसान पहुँचाता है तो माओरी जनजाति का नियुक्त प्रतिनिधि हानि पहुँचाने वाले व्यक्ति पर अदालत में मुकदमा दर्ज कर सकता है। 290 किमी लम्बी इस नदी का जलग्रहण क्षेत्रफल 7380 वर्ग किमी है। पिछले तीन दशक में करीब डेढ़ हजार करोड़ रुपए सफाई अभियानों में खर्च कर दिये जाने के बावजूद गंगा एक इंच भी साफ नहीं की जा सकी है। टिहरी बाँध तो इस नदी की कोख में बन ही चुका है, उत्तराखण्ड में गंगा की अनेक जलधाराओं पर 1.30 हजार करोड़ की जलविद्युत परियोजनाएँ निर्माणाधीन हैं। स्वाभाविक है, ये परियोजनाएँ गंगा की जलधाराओं को बाधित कर रही हैं। जबकि किसी भी नदी की अविरल धारा उसकी निर्मलता व स्वच्छता बनाए रखने की पहली शर्त है। कहने को तो भारत नदियों का देश है, लेकिन विडम्बना यह है कि 70 प्रतिशत नदियाँ जानलेवा स्तर तक प्रदूशित हैं। कई नदियों का अस्तित्व बचाना मुश्किल हो रहा है।
गंगा अपने उद्गम स्रोत गंगोत्री (गोमुख) से 2525 किमी की यात्रा करती हुई गंगासागर में समाती है। इस बीच इसमें छोटी-बड़ी करीब 1000 नदियाँ विलय होती हैं। किन्तु गंगा है कि औद्योगिक व शहरी कचरा बहाए जाने के कारण कन्नौज से वाराणसी के बीच ही दम तोड़ देती है। गंगा को मैली करने के लिये 20 फीसदी उद्योग और 80 फीसदी सीवेज लाइनें दोषी हैं।
करीब 1376 किमी लम्बी यमुना नदी के लिये राजधानी दिल्ली अभिशाप बनी हुई है। इस महानगर में प्रवेश करने के बाद जब यमुना 22 किमी की यात्रा के बाद दिल्ली की सीमा से बाहर आती है तो एक गन्दे नाले में बदल जाती है। दिल्ली के कचरे का नदी में विसर्जन होने से 80 प्रतिशत यमुना इस क्षेत्र में ही प्रदूषित होती है। पिछले दो दशकों में यमुना पर करीब छह हजार करोड़ रुपए खर्च किये जा चुके हैं, लेकिन यमुना है कि दिल्ली से लेकर मथुरा तक पैर धोने के लायक भी नहीं रह गई है। सुनीता नारायण और राजेंद्र सिंह जैसे पर्यावरणविदों का तो यहाँ तक कहना है कि यह नदी मर चुकी है, बस अन्तिम संस्कार बाकी है। लेकिन दृढ़ राजनीतिक इच्छाशक्ति जताई जाये, तो ऐसा नहीं है कि प्रदूषित नदियों की सूरत बदली न जा सके? गुजरात में जहाँ साबरमती का कायापलट सम्भव हुआ, वहीं मध्य प्रदेश की तीर्थनगरी उज्जैन मे बहने वाली नदी क्षिप्रा का कायापलट कर दिया गया है।
नदी जोड़ अभियान के तहत मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने नर्मदा जोड़ नहर व उद्वहन परियोजनाओं के जरिए क्षिप्रा की धारा अविरल बना दी। इस अविरलता और उज्जैन में चलाए सफाई अभियान का ही परिणाम है कि 2016 के सिंहस्थ मेले में करोड़ों लोगों ने क्षिप्रा में बिना किसी हिचक के पर्व स्नान किये, लेकिन क्षिप्रा का जल कहीं भी मैला नहीं दिखाई दिया। शिवराज सिंह चौहान अब मध्य प्रदेश की जीवन-रेखा मानी जाने वाली नदी नर्मदा को पवित्र व शुद्ध बनाए रखने के लिये जागरूकता अभियान चलाए हुए हैं।
इन उदाहरणों से तय होता है कि नदियों को प्रदूषण मुक्त बनाए रखने के लिये जरूरी है कि उनकी धारा का प्रवाह निरन्तर बना रहे। इस लिहाज से जरूरी है कि हम नदियों को एक जीवन्त पारिस्थितिकी तंत्र के रूप में देखना शुरू करें। हमारे मनीषियों और कवियों ने इसीलिये हजारों साल पहले नदियों, पहाड़ों और वृक्षों से मिथकीय कथाएँ जोड़कर उनका मानवीकरण किया था। इसी से सह-अस्तित्व की विशिष्ट आवधारणा लोक परम्परा बनी, लेकिन आधुनिक ज्ञान और कथित विकास ने इस अवधारणा को पलीता लगा दिया। गोया, इस अवधारणा को बदलने की जरूरत है।
(सप्रेस)