2023–24 की कृषि रिपोर्ट: एक चिंताजनक संकेत
आलेख : विनोद के. शाह, Shahvinod69@gmail.com
28 जुलाई 2025, भोपाल: 2023–24 की कृषि रिपोर्ट: एक चिंताजनक संकेत – भारत सरकार के सांख्यिकी मंत्रालय की जारी 2023—24 की रिपोर्ट बताती है कि पिछले एक दशक में देश में दुग्ध उत्पादन और अनाज की हिस्सेदारी में गिरावट आई है, जबकि मांस, मछली और मुर्गीपालन के क्षेत्र में अभूतपूर्व वृद्धि दर्ज की गई है। यह आंकड़े नीति-निर्माताओं के लिए शायद आर्थिक सफलता का संकेत हो सकते है, लेकिन यह आंकडे देश की नैतिकता एंव उसके सांस्कृतिक मूल्यो पर प्रहार भी करते है।

भारत के लिए विकास मात्र जीडीपी की वृद्धि नहीं है। हमारे लिए विकास का मतलब — करुणा, संस्कृति और आत्मिक संतुलन के साथ उसके बसिंदो की आत्मिक शांति से भी जुडी है। यदि हम भोजन की थाली में केवल प्रोटीन के नाम पर पशुबलि को बढ़ावा देने लगें, तो यह केवल जीवों के जीवन पर ही नहीं ब्लकि भारत की आत्मा पर भी गहरी चोट होगी। सात्विकता के बजाये तासमिकता पर बडना एक निरोग काया के जीवन को रोगी बनाना भी है।
भारत की ऐतिहासिक पहचान शाकाहारी संस्कृति से जुड़ी रही है। वैदिक काल से लेकर आधुनिक युग तक, भारतीय आहार प्रणाली में शाकाहार को श्रेष्ठ और सात्त्विक माना गया है। आयुर्वेद, योग और अध्यात्म में शाकाहार को आवश्यक माना गया है क्योंकि यह शरीर और मन दोनों को संयमित और शांत करता है।
महावीर और बुद्ध जैसे महापुरुषों ने मांसाहार को केवल आहार का दोषित विषय नहीं, बल्कि हिंसा का स्रोत माना। उन्होंने जीवों के जीवन के अधिकार को सवोच्चता पर रखा है। क्या आज का भारत उस नैतिक दिशा से भटक गया है?
आज जब सरकार मांस और मछली उद्योग को “निर्यात” और “रोजगार” के नाम पर बढ़ावा देती है, तो यह केवल एक आर्थिक रणनीति नहीं, बल्कि एक शर्मनाक सांस्कृतिक पहचान दिलाने को कोशिश् हो रही है। जो कि देश की सांस्कृतिक विरासत पर कालिख लगाने का कार्य करेगी। सवाल यह भी है कि क्या विकसित अर्थव्यवस्था के नाम पर हम करुणा को बेच सकते हैं?
क्या मुनाफे के लिए हम निर्दोष जीवों के जीवन को लील सकते हैं?
क्या भारतीय संस्कृति इतनी कमजोर हो गई है कि वह अब अपनी आत्मा को बाजार में गिरवी रख दे?
आज जिस तरह पशुपालन को मांस उत्पादन का औजार बना दिया गया है, वह केवल एक आर्थिक परिवर्तन नहीं — एक नैतिक संकट है। गाय, बकरी, मुर्गी, मछली — जिन्हें कभी हम पालतू, पवित्र या जीवमात्र समझते थे, वे अब मात्र व्यापारिक उपभोग की वस्तु बन चुकी हैं। यह मानसिकता उस भारत के मूल विचार से विपरीत है जिसमें हर जीव को ब्रह्म का अंश माना गया है।
भारत की जनता एक ओर गंगा को “माँ” कहकर उसका पूजन करती है, गाय को “मातृरूपा” कहती है, तो दूसरी ओर मांस और मछली के व्यापार को खुलेआम स्वीकार भी कर रही है। यह दोहरापन न केवल विडंबना है, बल्कि देश की आत्मा को धोखा देने की साजिश रचती दिखाई देती है। अमेरिकी प्रशासन जिस कृषि उत्पाद के नाम पर दुग्ध उत्पादो को देश में खपाना चाहेता है,दरअसल वह उन मासाहारी गाय के उत्पाद जिन्हे खुराक में सुअर सहित अन्य जानवरो का मास एंव चर्बी खिलाई जाती है। इन गाय के दूध से बनने वाले घी,पनीर,आइसक्रीम एंव चाकलेट को हिन्दुस्थान की जनता कभी भी स्वीकार नही सकती है।
इस बढ़ते मांसाहार का असर केवल संस्कृति पर नहीं, बल्कि युवाओं की मानसिकता और स्वास्थ्य पर भी पड़ रहा है। आयुर्वेद और आधुनिक चिकित्सा विज्ञान दोनों मानते हैं कि मांसाहार क्रोध, उत्तेजना, बेचैनी और अवसाद जैसे मानसिक विकारों को जन्म देता है। जब एक समाज का भोजन ही हिंसा पर आधारित हो जाए, तो उसका आचरण, व्यवहार और सामाजिक ताना-बाना भी कठोर, असंवेदनशील और हिंसक हो जाता है।
देश में शाकाहारी उत्पादों में नवाचार और निवेश को बढ़ाकर किसानों को भी समृद्ध करना चहिए। सोया, दालें, मिलेट्स, हर्बल उत्पाद, दुग्ध उत्पाद, जैविक खेती जैसे क्षेत्रों में असीम संभावनाएं हैं। देश का किसान खेती के साथ दुग्ध उत्पादन एक असीम संभावना के साथ कर सकता है। बशर्ते उसे आर्थिक मदद के साथ प्रंस्करण हेतु सरकार का संपूर्ण सहयोग मिलते रहना चहिए। लेकिन दुर्भाग्यवश नीति निर्माताओं का ध्यान मांस-व्यापार जैसे अल्पकालिक लाभ पर अधिक केंद्रित है।
भारत की पहचान उसकी आत्मा, उसकी करुणा और उसकी जीवन दृष्टि से है। यदि हम उस करुणा को त्याग देंगे, यदि हम जीवों के प्रति संवेदनहीन हो जाएंगे, तो फिर भारत केवल एक बाजार बनकर रह जाएगा — संस्कृति नहीं।
देश में वर्ष 2023–24 में लगभग 230 मिलियन टन दूध का उत्पादन के साथ देश विश्व उत्पादकता में सर्वोच्च शिखर पर रहा है। लेकिन उत्पादक किसान दूध न देने की स्थिति में पशुओ को लावारिश छोड देते है या कत्लखानो को बेच देते है। दोनो ही स्थितियो में पशु कत्लखानो में पहुॅचाये जा रहे है।
वर्ष 2022‒23 में देश का कुल मांस उत्पादन लगभग 9 मिलियन टन रहा। इसमें चिकन, मटन, बीफ, पोर्क आदि शामिल हैं, जिसमें पोल्ट्री सेक्टर सबसे तेजी से बढ़ रहा है।
भारत भैंस के मांस का सबसे बड़ा निर्यातक है चीन, वियतनाम, मलेशिया, जैसे देश से भारत सर्वोच्च स्थान पर है। लेकिन यह प्रतिस्पर्धा देश के स्वाभिमान एंव आर्दश पर खरी नही उतरती है।
देश में प्रोटीन के लिए मांस और अंडों की मांग में वृद्धि, पोल्ट्री और मत्स्य पालन को बढ़ावा देने के लिए सब्सिडी और आसान ऋण की उपलब्धता,पोल्ट्री फार्म 40–45 दिन में लाभ देने लगता है। जबकि दूध उत्पादन में समय अधिक लगता है।
भारतीय संस्कृति में गाय, बैल सहित सभी पशुओ इश्वरीय वाहन का दर्जा दिया जाता हैं। देश की संस्कृति जियो एंव जीने दो की रही है। अधिक मांस से मोटापा, हृदय रोग, डायबिटीज के खतरे है। बाहरी देश शाकहार को बढावा दे रहे है।
यदि मांस उद्योग को प्रोत्साहित किया जाता रहा, तो दूध उत्पादक किसान प्रभावित होंगे।
भारत में अभी भी दूध उत्पादन मांस की तुलना में कई गुना अधिक है। लेकिन यदि मांस उद्योग को अनियंत्रित रूप से बढ़ाया गया, तो यह हमारी संस्कृति, पर्यावरण और नैतिकता को गंभीर रूप से प्रभावित कर सकता है।
देश को अवश्य है कि दुग्ध क्षेत्र सशक्त बने,शाकाहारी कृषि में नवाचार के अधिकाधिक प्रयोग किए जाए,नीति-निर्माण में संवेदना और संतुलन को प्राथमिकता मिलते रहे।
यह एक चिंता नहीं, एक आह्वान है — हर उस भारतीय से जो अपनी संस्कृति से प्रेम करता है, हर उस युवा से जो भारत की आत्मा को जीवित देखना चाहता है, हर उस नीति-निर्माता से जो भारत को केवल विकसित ही नहीं, संस्कृति और करुणा से समृद्ध भी देखना चाहता है। देश अंहिसा,करुणा की संस्कृति को अक्षुण्य रख पाए। आओ दूध एंव शाकाहार के निर्यात में हम एक सर्वोच्च पहचान कायम करने का प्रयास करे।
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