संपादकीय (Editorial)

क्या सचमुच मिलेट के दिन फिरेंगे

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  • डॉ. सन्तोष पाटीदार

20 फरवरी 2023,  भोपाल । क्या सचमुच मिलेट के दिन फिरेंगे  – मिलेट जैसे ज्वार, बाजरा आदि के दाने बहुत छोटे आकार के होते हैं। इसके उलट अनाज मसलन गेहूं, चावल, मक्का आदि के दाने बड़े आकार के होते हंै। दोनों में यह मूलभूत अंतर है। मिलेट को फिर से मुख्य धारा में लाने की सरकार की नीति सैद्धांतिक रूप से बहुत अच्छी और महत्वपूर्ण हैं लेकिन जमीन पर इसे उतारना टेड़ी खीर है। सन् 1970 के दशक से देश के भोजन में मिलेट की जगह गेहंू, धान और मक्का हावी होते चले गए और मिलेट ओझल होते गए। ऐसा क्यों हुआ?

केश क्रॉप के मुकाबले कितने फायदे की हैं ज्वार, बाजरा, रागी, कोदो, कुटकी की खेती ?

हरित क्रांति के बाद  भोजन में घर कर गए गेहूं ,चावल,  मक्का ने मिलेट को हिंदुस्तानी थाली से बाहर कर दिया। 1980 के दशक से खेती किसानी और भोजन की थाली से विलुप्त होते मिलेट या अन्न और देशी बीजों को बचाने के काम देश में कहीं-कहीं होते रहे हैं। भारत सरकार ने बहुत संभव है किसानों के आंदोलनों के सिरदर्द और खेती किसानी को जलवायु परिवर्तन से बचाने की देश-विदेश के वैज्ञानिकों तथा पर्यावरणविदों की सलाह पर मिलेट को लेकर वैश्विक नवाचार का कदम उठाया हो! जो भी हो यह एक समझदारी भरा फैसला है। इसके चलते गरीबों या आदिवासियों का भोजन मिलेट अब 365 दिनों का अंतरराष्ट्रीय मिलेट वर्ष हो गया है। इसके साथ ही भारत की लीडरशिप में जी 20 देशों  के एजेंडे में भी  मिलेट और ज्यादा महत्वपूर्ण हो गए है। अमेरिका का खेती बाड़ी वाला विभाग और भारतीय मिलेट अनुसंधान केन्द्र, हैदराबाद जो पहले मक्का अनुसंधान केन्द्र था तथा भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद मिलेट के अत्यंत महत्वपूर्ण गुणों की महत्ता, उपयोगिता और उत्पादन की संभावनाओं की जमीन खंगालने में लगे हंै ताकि आने वाली पीढिय़ों की खाद्य सुरक्षा सुनिश्चित की जा सके।

इन सारे प्रयासों के बाद भी सवाल हैं कि मिलेट को क्या देश के किसान और उपभोक्ता अपनाना चाहेंगे? इसका स्पष्ट उत्तर नहीं है। इसकी ठोस वजह हैं। देश में अमीर-गरीब के बीच बढ़ती खाई के कारण देश का स्वाद बदलना, सीमित होती कृषि जैव विविधता,  विभिन्न कृषि जलवायु वाले इलाके यानी अलग अलग गुणों वाली हवा, पानी, मिट्टी के साथ उन्नत किस्मों का नितान्त अभाव, सीड प्रोडक्शन और खेती की तकनीक बहुत कम होने से मिलेट अनप्रोडक्टिव यानी उत्पादकता और आर्थिक रूप से फायदे का सौदा नहीं रहा है। सरकारों की ओर से इन पर न्यूनतम समर्थन मूल्य भी नहीं है हालांकि अकेले छत्तीसगढ़ सरकार ने सबसे पहले मिलेट पर एमएसपी देना शुरू किया है। शेष राज्यों से ऐसी उम्मीद नहीं करना बेकार हैं। इन परिस्थितियों में क्या किसान मिलेट की खेती को बड़े पैमाने पर अपनाएंगे ? संयुक्त राष्ट्र संघ द्वारा इस वर्ष को अंतरराष्ट्रीय मिलेट वर्ष घोषित करने और जी 20 देशों के बीच मिलेट का विषय महत्वपूर्ण होने से ऐसी अनेक जिज्ञासाएं किसानों से लेकर खेती किसानी की समझ रखने वालों में है।

विषय की महत्ता को समझने के लिहाज से इस बारे में अंतरराष्ट्रीय ख्याति प्राप्त और मध्य प्रदेश के साथ सेन्ट्रल इंडिया में गेहंू उत्पादन क्रांति लाने और रस्ट जैसे महारोग से गेहूं को देशभर में बचाने वाली अनेक किस्में विकसित करने वाले विशेषज्ञ डॉ. एच. एन. पांडेय से बात की। मिलेट उत्पादन और देश-विदेश की सरकारों को सलाह के बारे में डॉ. पांडेय से इस संवाददाता ने वार्तालाप किया।

डॉ. पांडेय ने देश के हर क्षेत्र में श्री अन्न, अनाज, फल, दूध आदि का उत्पादन, विपणन, जैविक खेती, पर्यावरण, गौ पालन आदि के कार्यों को जमीन पर कई इलाकों में साकार किया। आपकी नीतिगत कृषि रिपोर्ट्स को सरकार ने हमेशा स्वीकारा और लागू भी किया। यही कारण हैं कि मप्र गेहूं उत्पादन में सिरमौर है। डॉ. पांडेय की टीम के परिश्रम का नतीजा हैं कि मप्र को बार बार कृषि कर्मण्य अवॉर्ड मिलते हंै। भारतीय कृषि अनुसंधान केंद्र, इंदौर के क्षेत्रीय प्रमुख रहे डॉ. पांडेय बेबाक तरीके से गूढ़ गंभीर बात करने के लिए जाने जाते हैं।

मिलेट के जी -20 एजेंडा और देश में इसके उत्पादन के बारे में जब उनसे बात की तो आपने  कहा कि मिलेट या श्री अन्न हजारों बरस पुराना करीब 7 हजार वर्ष पुराना भोजन रहा है। मिलेट जैसे ज्वार, बाजरा आदि के दाने बहुत छोटे आकार के होते हंै। इसके उलट अनाज मसलन गेहूं, चावल, मक्का आदि के दाने बड़े आकार के होते हंै। दोनों में यह मूलभूत अंतर है। मिलेट को फिर से मुख्य धारा में लाने की सरकार की नीति सैद्धांतिक रूप से बहुत अच्छी और महत्वपूर्ण हैं लेकिन जमीन पर इसे उतारना टेड़ी खीर है। सन् 1970 के दशक से देश के भोजन में मिलेट की जगह  गेहंू , धान और मक्का हावी होते चले गए और मिलेट ओझल होते गए। ऐसा क्यों हुआ ? जवाब में आपने बताया कि हरित क्रांति से गेहंू चावल की अत्यधिक उपज देने वाली किस्मों की सहज उपलब्धता होने लगी। ज्यादा उपज से ज्यादा पैसा मिलने लगा।

इन फसलों की पैदावार फायदेमंद रही। इंडस्ट्री में भी इसकी मांग बढ़ी। ऐसी स्थिति में मिलेट की खेती कम होती गई। इस तरह फूड हैबिट,फूड सिस्टम और फूड चेन से मिलेट बाहर हो गए।

हमारे देश में चावल सबसे ज्यादा खाया जाता है। दूसरे क्रम पर गेहंू भोजन का हिस्सा हैं। वैश्विक स्तर पर मक्का की सबसे ज्यादा खपत हैं। इन तीन मुख्य अनाज के अलावा मिलेट के रूप में ज्वार, बाजरा और रागी , कोदो, कुटकी, मडुआ, समा आदि हैं। दिनोंदिन जैव विविधता नष्ट होने से देशी बीज सीमित रह गए हैं। इसका सीधा असर मिलेट की नई किस्मों के विकास पर होगा। खाद्य सुरक्षा में मिलेट का योगदान न्यूनतम होगा। गेहंू, चावल, मक्का खाद्य सुरक्षा के लिहाज से भी महत्वपूर्ण है।

 असल में सारे अनाज व अन्न, घास की ही प्रजातियां हैं। इन सबका भौगोलिक वितरण अलग-अलग है। ज्वार, बाजरा देश के अधिकतर इलाकों में पैदा होता हैं। ब्लैक काटन सॉइल (काली मिट्टी) वाले महाराष्ट्र, कर्नाटक, आंध्र,तेलंगाना में ज्वार की खेती ज्यादा है। कोदो कुटकी फिंगर मिलेट या रागी छत्तीसगढ़,राजस्थान, कर्नाटक के रेड सॉइल एरिया और नॉर्थ हिल्स में होती है। ये मिलेट  शुष्क अर्धशुष्क इलाकों की फसलें हैं।  एक समय था मिलेट देश का भोजन हुआ करता था। ऐसा क्यों हुआ? 

डॉ.पांडेय कहते हैं आज के हालातों में यह संभव नहीं है। कौन किसान केश क्रॉप मसलन गेंहू ,गन्ना , कपास , सोयाबीन आदि जिनसे अधिक नगद पैसा मिलता है उसे छोडक़र काम उपज की मिलेट की खेती अपनाएगा । गेंहू चावल मक्का के अनाज से जो सामाजिक बदलाव आया उसे आसानी से नहीं बदल सकते। मिलेट आदिवासियों और गरीबों का भोजन रहा है पर अब ग्रामीण इलाकों में भी गेंहू चावल का उपयोग बढ़ा है। मिलेट के अनगिनत फायदे हैं इसलिए शहरों में इसे हेल्थी फ़ूड के रूप में कुछ हद तक खाया जा सकता हैं। तो क्या  मिलेट की खूबियों से आगे जाकर मांग बढऩे से पैदावार बढ़ेगी ओर किसानों का फायदा भी बढ़ेगा ?

डॉ पांडेय का मानना है कि इसके लिए मिलेट की भरपूर पैदावार की अनेकानेक उन्नत किस्मों को विकसित करना होगा। उन्नत बीजों के लिए वृहद स्तर पर सीड प्रोडक्शन का काम खड़ा करना पड़ेगा। इसके साथ ही मिलेट खेती के लिए नई तकनीकें विकसित करना होगी। इस सबके लिए गहन अनुसंधान और वैज्ञानिकों को कठिन परिश्रम करना होगा। यह सरकार की प्राथमिकता में लाना होगा। सबसे ज्यादा महत्वपूर्ण हैं मिलेट के प्रति लगाव के साथ सामाजिक बदलाव होना। यानी समाज में मिलेट की खेती और खपत हर तरह से फायदेमंद बने। ताकि परंपरागत  अनाज की जगह मिलेट ले सके लेकिन यह दूर की कौड़ी है। बावजूद इसके जी 20 के माध्यम से मिलेट क्रांति का बीजारोपण होगा ऐसी उम्मीद की जा सकती हैं।            

  •   (सप्रेस)

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