Editorial (संपादकीय)

गेंदा की उन्नत कृषि कार्यमाला

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जलवायु:  गेंदा की अच्छी बढ़वार व अधिक फूल देने के लिये नम जलवायु की आवश्यकता होती है। अधिक तापमान पर पौधे की वृद्धि कम हो जाती है। जिसके कारण पुष्प की गुणवत्ता तथा उपज पर बुरा प्रभाव पड़ता है। इसी तरह अधिक ठंड व पाले से भी पौधे व पुष्प मरते हैं तथा पुष्प पर कालापन सा भी दिखाई देता है। अत: अधिक तापमान या बहुत कम तापमान उपयुक्त नहीं है। गेंंदा से अच्छी पैदावार लेने के लिये ख्ेात में धूप का होना जरूरी होता है । गेंदे के पौधे को कभी भी छायादार जगहों पर नहीं लगाना चाहिये।

भूमि चयन व तैयारी: गेंदा को विभिन्न प्रकार की भूमि में लगाया जा सकता है परंतु गहरी, उपजाऊ व भुरभुरी भूमि जिसमें जल धारण के साथ ही जल निकास की क्षमता हो अच्छी मानी जाती है। भूमि का पीएच मान 7 से 7.5 के मध्य हो। भूमि की अच्छी तरह जुताई करके पाटे की मदद से समतल कर तैयार करें तथा मिट्टी को भुरभुरा रखें।

प्रजातियाँ: गेंदा मुख्यत: दो प्रकार के होते हैं उसी आधार पर इसकी अलग-अलग प्रजातियाँ होती हैं ।

अफ्रीकन गेंदा या हज़ारिया गेंदा: इसके पौधे अधिक ऊँचे (औसतन 75 से.मी.) व विभिन्न रंगों जैसे पीले, नारंगी, पीले रंगों में बहुत ही आकर्षक व व्यावसायिक महत्व वाले होते हैं, लेकिन हाईब्रिड किस्मों की ऊंचाई 30 से.मी. से लेकर 3 मीटर तक होती है ।

कीट: 

रेड स्पाडर माइट (लाल मकड़ी): इनका आक्रमण फूलों के खिलने के समय के आसपास होता है। यह पत्तियों पर जालीदार पावडर छोड़ता है एवं मुलायम भागों का रस चूसता है।

रोकथाम: रोगोर या ओमाइट दवा की 1 मि.ली. मात्रा को प्रति लीटर पानी में घोलकर छिड़काव करें। आवश्यकतानुसार छिड़काव को 10-15 दिन में दोहरायें।

हेयरी केटरपिलर (रोयेंदार इल्ली): यह इल्ली पत्ती को खा कर क्षति पहुँचाती है ।

रोकथाम: क्विनालफॉस दवा की 2 मि.ली. मात्रा को प्रति लीटर पानी में घोलकर छिड़काव करें।

थ्रिप्स: यह बहुत ही छोटे आकार के पीले या काले रंग के कीट पौधों के कोमल अंगो जैसे – पत्ती, कल्ली एवं फूल का रस चूसते हैं।

रोकथाम: इमीडाक्लोप्रिड नामक दवा का 1 मि.ली. प्रति 3 लीटर की दर से पानी का घोल बनाकर 10 दिन के अन्तर पर छिड़काव करें ।

प्रमुख जातियाँ: जाइंट डबल अफ्रीकन नारंगी, जाइंट डबल अफ्र्रीकन पीली, क्रेकर जैक, गोल्डन एज, क्राउन ऑफ गोल्ड, क्राइसें थियम चार्म, गोल्डन एज, गोल्डन येलो, स्पून गोल्ड, पूसा नारंगी, पूसा बसंती, आरेन्ज जुबली आदि ।

फ्रेंच गेंदा या गेंदी (जाफरी गेंदा): इसके पौधे अधिकतम बौने व छोटे पुष्प पीले, नारंगी सुनहरी लाल एवं मिले-जुले रंग के होते हैं । इसकी पत्तियाँ गहरी हरी एवं तना लाल होती हंै।

गेंदा एक खास व लोकप्रिय फूल है जो सालभर आसानी से मिल सकता है। यदि इसके फूल दशहरा व दीपावली के अवसर पर उपलब्ध हों तो अच्छा मुनाफा कमाया जा सकता है। इसकी लोकप्रियता की खास वजहों में हर तरह की आबो हवा, मिट्टी व हालातों में आसानी से इसका उगना, फूलों का ज़्यादा देर तक फूलना, कई तरह से काम में आना और आसानी से बीज बनाना वगैरह खास हैं, गेंदा का पौधा काफी प्रतिरोधक होता है। इस पर बीमारी और कीड़ों का असर भी काफी कम होता है जिसके चलते इसे आसानी से उगाया जाता है। पौधा लगाने के इन्हीं सभी गुणों के चलते गेंदे को कई कामों में लाया जाता है। किसी भी सामाजिक, धार्मिक त्यौहारों एवं विवाहोत्सवों के कार्यक्रमों में गेंदा का उपयोग विभिन्न रूपों जैसे- माला बनाने, झालर, वेदी, गृह सज्जा, पूजा व गुलदस्ते आदि कार्यों में किया जाता है। इसके अलावा लटकन, टोकनी, गृहवाटिका व अंलकृत उद्यान के लिये भी उपयुक्त है। फूलों को पंखुडियों में कैरोटीन की मात्रा ज्यादा होने के चलते उसका पौष्टिक पशु चारे और मुर्गीदाने में इस्तेमाल किया जाता है। फूलों से जैविक रंगों का भी उत्पादन किया जाता है जो खाने और कपड़ों की रंगाई में इस्तेमाल में लाए जाते हैं । पौधों की पत्तियों से खुशबूदार तेल भी निकाला जाता है, जो सौंदर्य सामग्री बनाने और दवाओं में उपयोग होता है।

प्रमुख प्रजातियाँ: रेड ब्रोकार्ड, रस्टीरेड, बटर स्काच, बेलेन्सिया, सुसाना, जिप्सी, लेमनड्राप, फ्लेमिंग फायर डबल, फायल ग्लो, स्टार ऑफ इंडिया, पिटाइस, सनराइज, सूसाना, रायल बंगाल, लेमनड्राप, पीटी गोल्ड, स्पून गोल्ड, पीटी स्प्रे और पिगमी आदि ।

प्रजनन विधियाँ: गेंदा की दो सामान्य प्रजनन विधियां हैं प्रथम बीज द्वारा तथा दूसरी कटिंग द्वारा, बीज द्वारा सामान्यत: गेंदा की खेती की जाती है। पहले इसके बीजों से नर्सरी तैयार करें और 30-35 दिनों बाद पौध को खेतों में लगायें । बीज द्वारा उगाई जाने वाली फसल में पौधे अधिक ऊँंचे होने के साथ ही अधिक पुष्प देते हैं जबकि कटिंग को प्रजाति की शुद्धता बनाये रखने हेतु ही अधिकांशत: उपयोग में लाते हैं ।

बीज बोने का समय, तरीका व बीज की मात्रा: बरसात की फसल के लिये बीज को मध्य जून से जुलाई आंरभ तक, सर्दियों की फसल के लिये बोआई का काम अगस्त अंत से मध्य सितम्बर एवं गर्मी के लिये दिसम्बर के अंतिम सप्ताह से जनवरी के पहले हफ्ते में बोना चाहिये। नर्सरी की क्यारियों की अच्छी गुड़ाई कर करीब 10 किलो पकी गोबर की खाद अच्छी तरह मिलायें । क्यारियों का आकार 331 मीटर रखें ताकि, पानी व अन्य कार्य आसानीपूर्वक सम्पन्न किये जा सकें । बीज को लाइन में 5 से.मी. गहराई पर बोयें साथ ही कतार से कतार की दूरी 5 से.मी. रखें । बीज बोने के बाद इसे मिट्टी से ढंक कर सूखी घास से ढंके, उसके बाद सिंचाई करें। लगभग 1 किलो बीज प्रति हेक्टेयर एवं संकर किस्मों में 200-250 ग्राम बीज प्रति हेक्टेयर पर्याप्त होगा ।

खाद एवं उर्वरक की मात्रा व देने की विधि: गोबर की खाद 250 क्ंिव./हेक्टेयर, नत्रजन 60 किलो, स्फुर 75 किलो, पोटाश 50 किलो ग्राम/हेक्टेयर भूमि की अंतिम जुताई के समय गोबर की पकी खाद, स्फुर तथा पोटाश की संपूर्ण मात्रा आधार रूप में मिट्टी में अच्छी तरह मिलायें। नत्रजन को दो भागों में बांट कर प्रथम मात्रा पौध रोपाई के 20-25 दिन बाद तथा शेष बची नत्रजन की आधी मात्रा 45 दिन बाद पौधों के आसपास कतारों के बीच में डालें। यूरिया (0.2 प्रतिशत) के घोल का छिड़काव, रोपण के 15 दिन के अन्तर पर किया जावे तो पौधों की वृद्धि एवं पुष्पन अच्छा होता है ।

पौधे लगाने का समय व दूरी: नर्सरी में बीज बोने के बाद करीब 4 सप्ताह (25-30 दिन) में पौधे मुख्य खेत में रोपण हेतु तैयार हो जाते हैं। इन्हें सांयकाल रोपण करें व नर्सरी में पौधे उखाडऩे के पहले हल्की सिंचाई करें ताकि उखाड़ते समय पौधों की जड़ों को क्षति न पहुुंचे । अफ्रीकन गेंदें की रोपाई 45345 से.मी. (कतार से कतार एवं पौधे से पौधा) पर फ्रेंच गेंदे की रोपाई 30330 से.मी. की दूरी पर एवं हाईब्रिड किस्म के गेंदे की रोपाई 45345 से.मी. की दूरी पर करें।

सिंचाई: गेंदे की फसल को अपेक्षाकृत पानी की कम आवश्यकता होती है। सामान्यत: 10-15 दिन के अंतर पर सिंचाई करें। भूमि के प्रकार व मौसम के अनुसार सिंचाई के अंतर को कम या ज़्यादा किया जा सकता है। आवश्यकता से अधिक पानी देने से फसल को क्षति हो सकती है अत: जल निकास की उचित व्यवस्था व अधिक पानी की स्थिति से पौधों को बचायें।

निंदाई -गुड़ाई:  निंदाई-गुड़ाई का पौधों की आरंभिक अवस्था में विशेष महत्व है। कम से कम 2 बार निंदाई-गुड़ाई आवश्यक है। प्रथम गुड़ाई पौधों के रोपण के 20-25 दिन बाद तथा द्वितीय गुड़ाई 40-45 दिन बाद करें। समय-समय पर जब भी आवश्यक हो खरपतवार नियंत्रण करें।

बीमारियां: 

डैम्पिंग ऑफ : यह व्याधि पौधशाला में छोटे पौधों को अधिक नुकसान पहुँचाती है। इस बीमारी के कारण पौधों की जड़े सड़ जाती हैं तथा पौधा ज़मीन की ओर गिर जाता है।

रोकथाम: जल निकास की उचित व्यवस्था करें तथा अधिक पानी से पौधों को बचायें। बोर्डों मिश्रण से ड्रेन्चिंग करें।

लीफ स्पाट एवं ब्लाईट (झुलसा): पुरानी व नीचे की पत्तियों पर छोटे-छोटे गोल भूरे धब्बे दिखाई देते हैं। जिसके कारण पत्तियां गिर जाती हैं। अगर समय से इस रोग का नियंत्रण न किया जाये तो पूरा पौधा झुलसा हुआ भूरा-काला दिखने लगता है।

रोकथाम: डायथेन एम-45 दवा की 2.5 ग्राम मात्रा प्रकोप अनुसार, आवश्यक हो तो 15 दिन में पुन: छिड़काव करें ।

पाऊडरी मिल्ड्यू: पत्तियों पर सफेद पाऊडर दिखाई देता है तथा क्षति पहुँचती है।

रोकथाम: सल्फर पावडर का भुरकें ।

फ्लावर बड सडऩ (पुष्प कली सडऩ): यह बीमारी मुख्य रूप से पुष्प बड अवस्था में दिखाई पड़ती है। पुष्प बड सूख कर सडऩे लगती है ।

रोकथाम: डायथेन एम-45 दवा की 2.5 ग्राम मात्रा प्रति लीटर पानी में घोल कर छिड़काव करें । रोग के प्रकोप अनुसार आवश्यक हो तो 15 दिन में पुन: छिड़कें।

इन्फ्लोरीसेस ब्लाईट: ईलाइनेटेड ब्लाईट इन्फ्लोरीसेंस पर दिखाई देते हैं ।

रोकथाम: डायथेन एम-45 दवा की 2.5 ग्राम मात्रा प्रति लीटर पानी में घोलकर छिड़काव करें।

  • अवधेश कुमार पटेल, कार्यक्रम सहायक (उद्यानिकी)

जवाहरलाल नेहरु कृषि विश्वविद्यालय, जबलपुर (म.प्र.)

  • डॉ. शैलेन्द्र सिंह गौतम, वरिष्ठ वैज्ञानिक कृषि विज्ञान केंद्र, डिंडोरी,  

avdhesh.jnkvv@gmail.com

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