देशी काबुली गुलाबी चना लगाएं
देशी, काबुली और गुलाबी चना
चना मध्यप्रदेश की मुख्य दलहनी फसल है। मध्यप्रदेश में देशी, काबुली और गुलाबी चना की फसल सफलतापूर्वक ली जाती है। प्रदेश में इसका रकबा लगभग 25.72 लाख हेक्टेयर, उत्पादन लगभग 25.35 लाख टन है। पूरे देश में मध्यप्रदेश सबसे अधिक चना उत्पादन वाला प्रदेश है। औसत उपज लगभग 986 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर है। किसानों के खेतों पर डाले गये अग्रिम पंक्ति प्रदर्शनों में औसत 1450 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर उपज प्राप्त हुई। उपज के इस अंतर को दूर करने के लिए चना उत्पादन की उन्नत तकनीक को अपनाना आवश्यक है।
भूमि का चुनाव:-
चना का उत्पादन बलुई दोमट भूमि से लेकर दोमट भूमि में किया जा सकता है। चने के खेतों में जलभराव न हो इस बात का ध्यान रखना नितांत आवश्यक है। काबुली चने के लिये अपेक्षाकृत अच्छी भूमि की आवश्यकता़ होती है। भूमि में जल निकासी का उचित प्रबंध होना अति आवश्यक है जितना कि सिंचाई द्वारा जल देना। हल्के ढलान वाले खेतों में चना की फसल अच्छी होती है। ढेले वाली मृदा में भी चने की भरपूर उत्पादन हेतु उपयुक्त मानी गई है।
खेत की तैयारी :-
चना के लिये खेत की मृदा बहुत अधिक महीन अथवा भुरभुरी नहीं हो। अच्छी खेती के लिये भूमि की सतह भुरभुरी व ढेलेदार अच्छी मानी गई है। प्रत्येक तीन साल में खेत की गहरी जुताई अप्रैल मई माह में 10 से 12 इंच तक अवश्य करेें। ऐसा करने से कीड़ो के अंडे, घास -खरपतवारों के बीज व मृदा जनित रोगो के बीजाणु अधिक तापमान होने के कारण नष्ट हो जाते है। चना बुआई के लिये खेत को 2-3 क्रॉस जुताई कल्टीवेटर अथवा पंजे से पाटा के साथ लगाकर अच्छे ढ़ंग से तैयार कर लें।
बीजोपचार:-
चने की बीज को उकठा (विल्ट) व जडग़लन रोग से बचाव हेतु 2 ग्राम थायरम $ 1 ग्राम कार्बेन्डिजम या 3 ग्राम थायरम $ कार्बोक्जिन मिश्रण या जैविक दवा 5 ग्राम ट्राइकोडरमा विरिडी प्रति किलो बीज की दर से उपचारित कर बुआई करें। जिन क्षेत्रों में दीमक का प्रकोप अधिक होता हो उन खेतों में 20 ई.सी. क्लोरोपायरीफॉस 5 एम.एल. प्रति किलोग्राम बीज के मान से उपचारित करें। जीवाणु संवर्धन या टीकाकरण के अन्तर्गत फफूंदनाशी एवं कीटनाशी दवा के पश्चात् 5 से 8 ग्राम राइजोबियम कल्चर एवं 5 से 8 ग्राम स्फुर घोलक जीवाण खाद से बीज को गुड़ के घोल के साथ लेपित कर छाया मेें सुखाकर बोआई करने से समुचित पोषण प्रबंधन प्राप्त होता है।
बुआई का समय:-
सामान्यत: चने की बुआई का समय 15 अक्टूबर से 15 नवंबर के मध्य अच्छा पाया गया है। सिंचित अवस्था में चने की बुवाई नवम्बर माह के अंत तक कर सकते है। वर्षा आधारित चने की बुआई सितम्बर माह में की जा सकती है, जिससे अधिक से अधिक आय प्राप्त की जा सकती है। विलम्ब की स्थिति में यथोचित पौध संख्या प्राप्त करने हेतु जल्दी पकने वाली प्रजातियों का चयन करते हुए बीज दर की मात्रा 25 प्रतिशत बढ़ाकर उपयोग करना चाहिये।
बुआई की विधि:-
बुआई पूर्व खेत की नमी की जांच कर लें, थोड़ी सी मिट्टी लेकर मुठ्ठी में दबाने से यदि गोला बन जाये तो समझना चाहिये कि खेत में अच्छी नमी है। यदि खेत में कुछ नमी कम हो तो बीज को गहराई में बोकर ऊपर पाटा लगा देना चाहिये। ऐसे में अंकुरण पूरे खेत में समान होता है। सीडड्रिल अथवा फरो इरीगेटेड रेज्ड बैड पद्धति मशीन से भी बोनी की जाकर अधिक लाभ प्राप्त किया जा सकता है। चने की अच्छी उपज लेने के लिये खेतों में पर्याप्त पौध संख्या होनी चाहिये। समुचित वृद्धि प्राप्त करने के लिये कतार से कतार दूरी 30-40 से.मी. व पौधे से पौधे की दूरी 5-10 से.मी. होनी चाहिये।
बीज दर:-
चना बीजोत्पादन हेतु बीज दर दानों के आकार, भार, बोनी का समय व भूमि की उर्वराशक्ति पर निर्भर करती है। बड़े दाने वाली देशी प्रजातियों की बीज मात्रा 80-85 किलोग्राम व छोटे दाने वाली प्रजातियों की मात्रा 70-75 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर बुआई के लिये पर्याप्त होती है। काबुली चने की बीज मात्रा 100 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर रखना लाभप्रद पाया गया है।
खाद एवं उर्वरक:-
पिछली फसल को दिये गये खाद, उर्वरक व भूमि की उर्वराशक्ति के हिसाब से मृदा परीक्षण के आधार पर संतुलित खाद व उर्वरकों का प्रयोग करना लाभप्रद होता है। चने पौधों की जड़ों में पाई जाने वाली ग्रंथियों में नत्रजन स्थिरीकरण जीवाणु पाये जाते हैं जो वायुमंडल से नत्रजन स्थिरीकरण कर पौधे को उपलब्ध कराते हंै। सामान्य परिस्थितियों में चना फसल के अच्छे बीजोत्पादन हेतु 5 से 10 टन/हे. देशी खादों का उपयोग करना चाहिये।
खाद व उर्वरक की मात्रा किग्रा/हेक्टेयर
बुआई स्थिति |
नत्रजन |
फास्फोरस |
पोटाश |
| असिंचित | 20 | 40 | 20 |
| सिंचित | 20 | 60 | 20 |
| देर से बोनी | 40 | 40 | 20 |
सिंचाई:-
प्राय: चने की खेती असिंचित अवस्था में की जाती है परन्तु अधिक सूखा होने पर फली बनने की अवस्था में एक सिंचाई अवश्य कर दें। सिंचित क्षेत्रों में पहली सिंचाई बुवाई के 45-60 दिनों बाद तथा दूसरी सिंचाई आवश्यकतानुसार फली में दाना बनते समय की जानी चाहिये।
यदि दो सिंचाई के लिये पर्याप्त जल उपलब्ध हो तो पहली सिंचाई शाखाएं बनतेे समय (फूल आने के पहले) तथा दूसरी सिंचाई 80 प्रतिशत फलियां बनने के बाद (दाना भरते समय) करने से 25-30 प्रतिशत तक अधिक उपज प्राप्त की जा सकती है। फूल आते समय सिंचाई कदापि नही करें इससे हानि होती है। अधिक व अनावश्यक रुप से सिंचाई करने से वानस्पतिक वृद्धि ज्यादा हो जाने के कारण उपज कम प्राप्त होती है।
खरपतवार नियंत्रण:-
प्रांरभिक अवस्था में खरपतवार निकाल देने से पौधों द्वारा खाद व उर्वरकों का समुचित उपयोग, पौधों में पर्याप्त मात्रा में प्रकाश व मृदा में वायु संचार होने पर भरपूर उत्पादन प्राप्त होता है। साधारणत: अवस्था में बुवाई के 25 से 30 दिन पर हेण्ड हो या डोरा चलाकर खरपतवार नियंत्रण करने से लाभ प्राप्त होता है। रसायनिक खरपतवार नियंत्रण के अंतर्गत सिंचित अवस्था में पेण्डीमेथिलीन 1 ली./हे. 500 लीटर पानी के साथ अंकुरण पूर्व फ्लेट फैन या कट नोजल से छिड़काव करने पर प्रभावी ढंग से नींदा नियंत्रण करने में आसानी होती है।
फसल की कटाई व गहाई:-
जब 90-95 प्रतिशत फलियां पक जायें तथा पत्तियां झड़ जायें तब फसल की कटाई प्रांरभ कर देनी चाहिये। फसल कटाई का अनुकूल समय वही होता है जब बीज पूरी तरह से परिपक्व हो जाता है। कटाई करते समय इस बात का ध्यान रखना चाहिये कि बीजों की गहाई के समय यांत्रिक क्षति न हो तथा अन्य प्रजाति के बीजों का मिश्रण न हो। कटाई करते समय छोटे-छोटे ढेर बनाकर खेत में फसल सूखने दें।
भंडारण –
भंडारण के समय चना बीज को भलीभांति सुखाकर स्वच्छ भंडार गृह में भंडारित करना चाहिये। भंडारण के पूर्व पूरे भंडार गृह में अनुसंशित दवाओं का धुम्रण कर कीट रहित करना अत्यंत आवश्यक होता है। भंडारण के दौरान सबसे अधिक घुन नामक कीट अधिक नुकसान पहुंचाता है। भण्डारण से पूर्व बीजों में नमी 10-12 प्रतिशत से अधिक नहीं हो।


