Crop Cultivation (फसल की खेती)

जैविक विधि से कीट प्रबंधन

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18 अक्टूबर 2022, भोपाल: जैविक विधि से कीट प्रबंधन – विगत कई वर्षों से किसान कीट नियंत्रण के लिये रसायनिक कीटनाशियों का उपयोग करते आ रहे हैं। लेकिन आज इनके उपयोग की कई सीमाएं समझ में आ रही हैं। इसलिये कीट प्रबंधन की अपारम्परिक विधियों का उपयोग काफी कारगर सिद्ध हो रहा है। इस दिशा में प्रकृति में पाए जाने वाले वायरस (विषाणु), वैक्टीरिया (जीवाणु) फफूंद एवं नेमाटोड्स का उपयोग जैविक कीटनाशियों की तरह कीट नियंत्रण में सफलतापूर्वक किया जा रहा है।

सूक्ष्म जीवियों के साथ कीटों का नियंत्रण हम वानस्पतिक कीटनाशियों द्वारा भी कर सकते हैं। इन कीटनाशियों का कृषि में महत्व इस बात से और बढ़ जाता है कि इनका कोई विपरीत प्रभाव न तो वातावरण (पर्यावरण) पर पड़ता है और न ही लाभदायी कीटों पर होता है।

विषाणु (वायरस) का जैविक विधि से कीट प्रबंधन

कीट वायरस एक ऐसे परिवार का सदस्य है जो पौधे और जानवर में लगने वाले वायरस से अलग है तथा कीट विशेष में बीमारी उत्पन्न कर मारने की क्षमता रखता है। ऐसा ही एक विषाणु एन.पी.वी. (न्यूक्लियर पॉली हायड्रिसिस वायरस) के नाम से जाना जाता है। खरीफ व रबी की विभिन्न फसलों में एक बहुभक्षीय कीट की इल्ली, जिसे चने की इल्ली, जिसे चने की हरी इल्ली के नाम से जानते हैं जो हमारे क्षेत्र की प्रमुख फसलों कपास, चना, अरहर, मटर, टमाटर तथा कई अन्य फसलों को प्रकोपित कर उपज में कमी लाती है। अकेले कपास में इस कीट के नियंत्रण के लिये कई प्रकार के कीटनाशियों का उपयोग किया जाता है। ऐसे प्रबल कीट को नियंत्रित करने में एन.पी.वी. काफी कारगर पाया गया है। यह विषाणु तम्बाकू की इल्ली को भी सीमित करने में सफल पाया गया है।

यह विषाणु एक उदर विष की तरह कार्य करता है जो हरी इल्लियों के शरीर में भोजन के माध्यम से प्रवेश करता है। वायरस से ग्रसित इल्लियां, स्वस्थ इल्लियों की तुलना में कम खाना शुरू कर देती है। इल्लियों में वायरस से उत्पन्न बीमारी के लक्षण 2 से 3 दिन में दिखाई देते हैं। प्रथम अवस्था में इल्ली में त्वचा, दूधिया सफेद हो जाती है जो इल्ली की बाद वाली अवस्थाओं में गुलाबी रंग में बदल जाती है। वायरस से ग्रसित इल्ली कभी-कभी पीला भूरा रस अपने मुंह से निकालती है तथा जीवन की अंतिम बेला में जो सामान्य तौर पर 3 और 7 दिन के बीच होता है। इल्ली की त्वचा लिबलिबी (जाइल) तथा फट जाती है और शरीर से तरल पदार्थ निकालती है। खेतों में इस वायरस से ग्रसित एवं मृत प्राय: इल्लियां पौधों की टहनियों पर उल्टी लटकी हुई देखी जा सकती हैं और ऐसी इल्लियों का रंग स्वस्थ इल्ली की तुलना में पीला-सफेद हो जाता है। बड़ी अवस्था में वायरस से ग्रसित इल्लियां शंकु अवस्था में खत्म हो जाती हैं। कुछ इल्लियां शंकु (प्यूपा) में बदलती हैं, लेकिन वयस्क (पतंगा) पूर्ण स्वस्थ नहीं निकलते हैं।

यह वायरस हरी इल्ली की सभी 6 प्रजातियों की संख्या को कम करने में कारगर पाया गया है। प्रक्षेत्र परीक्षण में इल्ली की सभी अवस्थाएं संवेदनशील पाई गईं। परंतु प्रथम अवस्था की इल्लियों के लिये एन.पी.वी. वायरस की मारक क्षमता 100 तक आंकी गई। जबकि पांचवी अवस्था की इल्लियों में एन.पी.वी. की मारक क्षमता 10 पाई गई। तीन से आठ दिन वायरस के असर के लिये आवश्यक समय पाया गया।

चने की इल्ली को मारने के लिये एन.पी.वी. 250 एल.ई. प्रति हेक्टेयर (250 इल्ली समतुल्य) एफ.एल.ई. 6109 (इन्क्लूजन वोडिंग) के मान से 3 छिड़काव एक सप्ताह के अंतराल पर करना चाहिए। घोल मीठे पानी में बनाना चाहिए। वायरस घोल का छिड़काव शाम के समय जब कीट का अंडा एवं इल्ली की प्रथम अवस्था फसल पर दिखाई देने लगे तब करना चाहिए। उपरोक्त मात्रा टमाटर फसल पर लगने वाले फल बेधक इल्ली को नियंत्रित करने में कारगर पाई गई। एन.पी.वी. द्वारा हरी इल्ली का नियंत्रण अरहर फसल में भी प्रभावी रूप से देखा गया। साथ में उपज में भी बढ़ोत्तरी आंकी गई।

जीवाणु (बैक्टीरिया) का जैविक विधि से कीट प्रबंधन

गुजरात में मूंगफली की फसल में व्हाइट ग्रब (सफेद लट) का प्रकोप काफी देखा गया एवं यह कीट, रसायनिक दवाओं से भी आसानी से नियंत्रित नहीं हो पाया। ऐसी स्थिति में यह देखा गया कि एक बैक्टीरिया जिसे बेसीलस पैपिली नाम से जाना जाता है। इस बैक्टीरिया से सफेद लट कीट 20 से 25 तक ग्रसित पाए गए। इसी प्रकार किसान भाईयों ने बेसीलस थूरिजिएंसिस नामक बैक्टीरिया का नाम सुना होगा जो कीटों की लगभग 190 जातियों के लिए असरदायी पाया गया यह बाजार में अनेकों नामों से प्रचलित है। यह बैक्टीरिया तम्बाकू की इल्ली, रेशम का कीड़ा तथा चने की हरी इल्ली के लिये कारगर साबित हुआ। भारत वर्ष में इस बैक्टीरिया के कीट को 30 जातियों पर परीक्षण हुआ। यह चने की इल्ली के लिये भी काफी प्रभावशाली पाया गया।

फफूंद: फफूंद लगभग सभी जातियों के कीटों को नियंत्रित करने में सहायक है। व्यूवेरिया वेसियाना नामक फफूंद जो मक्का का तना छेदक आदि कीटों को कारगर ढंग से नियंत्रित करता है। यह फफूंद कीट के शरीर के अंदर प्रवेश कर उसे मार देती है और कीट के शरीर में प्रवेश कर ये एक प्रकार का जहर (रोक्सिन) छोड़ते हैं जो कीट को मारने में सक्षम होता है। फफूंद से ग्रसित इल्लियां कठोर हो जाती हैं।

वानस्पतिक कीटनाशी

प्रकृति में पाए जाने वाले कई ऐसे पेड़ हैं जिनमें कीट को मारने के लिये कीटनाशियों के समान गुण पाए जाते हैं और ऐसे पौधों से प्राप्त रस या पौधे भाग का उपयोग कीट की संख्या को सीमित करने में करते हैं। कृषि में ऐसे पौध जनित कीटनाशियों का महत्व इसलिए और भी बढ़ जाता है कि इनका पर्यावरण पर कोई विपरीत असर नहीं पड़ता। नीम एक ऐसी ही प्रकृति का वरदान है। जिसके हर भाग पत्ती, निम्बोली, तेल आदि सभी का उपयोग कीट नियंत्रण में किया जाता है। इनका प्रभाव कीटों पर धीरे-धीरे होता है तथा फसलों पर कोई जहरीला प्रभाव नहीं छोड़ते हैं साथ ही लाभदायी कीटों के लिए पूर्णत: सुरक्षित भी हैं। अजाडिरिक्टिन नामक तत्व जो नीम में पाया जाता है वह कीट को अंडे देने से रोकता है तथा इल्लियों एवं अन्य कीट प्रमुख फसल जिस पर नीम का छिड़काव हुआ है, दूर भागते हैं। 5-8 दिन तक फसल पर असर होता है। यह एक संपर्क कीटनाशी की तरह कार्य करता है। नीम के प्रभाव से कीट फसल का खाना बंद कर देता है, उसका जीवन चक्र अंडे से वयस्क बनने की प्रक्रिया में व्यवधान उत्पादन होता है। नीम रेड कॉटन बग में शिशु के विकास एवं प्रजनन व्यवहार में परिवर्तन करता है। सफेद मक्खी का नियंत्रण नीम तेल 2 के छिड़काव से कारगर पाया गया। कीट की वृद्धि एवं विकास प्रभावित होता है। माहू का नियंत्रण 84 प्रतिशत तक देखा गया। कपास में गुलाबी इल्ली के नियंत्रण में नीम का तेल कारगर पाया गया।

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