फसल की खेती (Crop Cultivation)

जिमीकंद (सूरन) की खेती प्रति इकाई भूमि से अधिक आमदनी

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प्रेषक – भगवत शरण असाटी, इंदिरा गांधी कृषि विश्वविद्यालय कृषि महाविद्यालय एवं अनुसंधान केंद्र, छुईखदान (छग); मनोज चन्द्राकर, कृषि महाविद्यालय एवं अनुसंधान केंद्र, राजनांदगांव (छग)

30 अप्रैल 2024, भोपाल: जिमीकंद (सूरन) की खेती प्रति इकाई भूमि से अधिक आमदनी – जिमीकंद (सूरन) की पैदावार अन्य फसलों की तुलना में कई गुना अधिक है तथा प्रति इकाई भूमि से अन्य फसलों की तुलना में अधिक आमदनी प्राप्त होती हैं। जिमीकंद के धनकन्द जमीन के भीतर बढ़ते हैं, अत: सूरन की फसल में पहले बरबटी फिर मक्का की फसल उगाकर एक ही खेत में तीन फसलें ले सकते हैं। इसकी फसल उगाना अत्यंत सरल है एवं सिंचाई की आवश्यकता भी बहुत कम पड़ती है। इसकी खेती धान खेत की मेड़ों पर या घर के आस पास की भूमि पर की जाती है। जिमीकंद कार्बोहाइड्रेट का एक अच्छा स्रोत है एवं विटामिन-ए, विटामिन-बी तथा लवणों से भरपूर होता है। जिमीकन्द के भूमिगत धनकन्दों का उपयोग भोज्य पदार्थ बनाने तथा आयुर्वेदिक औषधीय उपचार के लिये किया जाता है। इसके कन्दों से सूखी/रस वाली मसालेदार सब्जी, भर्ता, पापड़, नूडल्स, चिप्स तथा अचार आदि स्वादिष्ट व्यंजन बनाये जाते हैं। यह रक्त शोधक है तथा कब्ज, बवासीर, दमा, दस्त एवं पेट के विकार आदि अनेक रोगों में लाभदायक है। जिमीकन्द की जंगली जातियों के कन्दों में कैल्शियम आक्सीलेट पाया जाता है जिसके कारण ये कन्द खाते समय मुंह, जीभ तथा गले में तीक्ष्ण खुजली एवं चरपराहट पैदा करते है।   

भूमि और जलवायु

पानी के अच्छे निकास वाली उपजाऊ बलुई दोमट मिट्टी जिमीकंद की खेती के लिए उपयुक्त होती है। फसल-वृद्धि के समय खेत में पानी का जमाव नहीं हो। मिट्टी का पी. एच. 6-8 तक हो। जिमीकंद की फसल गर्म जलवायु में 25-35 डिग्री सेंटीग्रेड तापमान के मध्य उगायी जाती है। आद्र्र जलवायु प्रारंभ में पत्तियों की वृद्धि में सहायक होती है तथा कंद बनने की अवस्था में सूखी जलवायु उपयुक्त रहती है। जिमीकंद की वर्षा आधारित खेती ऐसे स्थानों पर की जा सकती है, जहां 1000 से 1500 मि.मि. वर्षा होती है।

बीज की बुवाई का समय

जिमीकंद आमतौर पर 6-8 माह में तैयार होने वाली फसल है तथा सिंचाई की सुविधा रहने पर इसे मध्य मार्च में लगा दें। मार्च से अप्रैल में लगाई फसल मध्य नवंबर तक तैयार हो जाती है। बाजार की मांग को देखते हुए 5-6 माह बाद से खुदाई शुरू की जा सकती है। पानी की सुविधा न होने पर इसे जून के अंतिम सप्ताह में मानसून शुरू होने पर लगाया जाता है। मार्च में लगाई जाने वाली फसल की पैदावार स्वाभाविक रूप से जून में लगाई फसल से अधिक होता है।  

बीज की मात्रा

रोपण के लिए भूमिगत कंदों का प्रयोग किया जाता है। रोपण के लिए 250 ग्राम से 500 ग्राम के कंदों के टुकड़े का उपयोग करने से अच्छी फसल प्राप्त होती है। कटे हुए टुकड़े की अपेक्षा समूचे कंद का रोपण करना श्रेयस्कर होता है। बीज की मात्रा लगाने के अन्तर तथा बीज के वजन पर निर्भर करती है। एक हेक्टेयर जिमीकंद की फसल लगाने हेतु कंदों का वजन 500 ग्राम तथा लगाने का अन्तर 90390 सें.मी. रखा जाए तो लगभग 62 क्विंटल कन्दों (12346 नग) की आवश्यकता पड़ती है।

बीज की बुवाई एवं दूरी

जिमीकंद की खेती करने के लिए 500 ग्रा. से 1 कि.ग्रा. तक के पूर्ण या कटे हुए कंदों के टुकड़े उपयुक्त होते हैं। जहां तक संभव हो, व्यावसायिक स्तर पर खेती के लिए छोटे आकार के पूर्ण कंदों को ही प्रयोग करें। गाय के गोबर के गाढ़े घोल में मैंकोजेब (0.2 प्रतिशत) तथा रोगर (0.02 प्रतिशत) मिलाकर कटे हुए कंदों के टुकड़ों का उसमें डुबाकर उपचारित कर लें। गोबर के घोल से निकालने के बाद कंदों को उलट पुलट कर 4-6 घंटे सुखाने के बाद ही रोपण क्रिया प्रारंभ करें। रोपते समय कंदों को मिट्टी सतह से 4-6 इंच की गहराई में लगाते हैं। रोपण के बाद धान के पुवाल या पत्तों आदि से गड्ढों का ढक दें। पत्तियां खुलते समय खरपतवार साफ कर रासायनिक खाद देकर मिट्टी चढ़ाना बहुत आवश्यक है। जिमीकन्द के रोपण के लिये कन्द से कन्द की दूरी एवं लाइन से लाइन की दूरी कन्द बीज के आकार/वजन पर निर्भर करती है।

कन्द का वजन रोपण अन्तर

200-400 ग्राम 50X50 सें.मी.
500-600 ग्राम 90X60 सें.मी.
800-1000 ग्राम 90X90 सें.मी.

खाद और उर्वरक

जिमीकंद अत्यधिक उर्वरकग्राही फसल है। गोबर की खूब सड़ी हुई खाद 20-25 टन/हे. की दर से अंतिम जुताई के समय खेत में मिला दें। यदि गड्ढों में रोपाई की जानी है, तो गोबर की खाद को मिट्टी में मिलाकर गड्ढों में भर दें। रासायनिक खादों में नत्रजन, फास्फोरस तथा पोटाश की मात्रा 150:100:150 कि.ग्रा./हे. की दर से दें। रोपाई करने के समय फास्फोरस की पूरी मात्रा तथा नत्रजन और पोटाश की आधी मात्रा दें। नत्रजन तथा पोटाष की बची हुई मात्रा दो बार में रोपाई के 30 तथा 60 दिन बाद खरपतवार निकाल कर पौधों पर मिट्टी चढ़ाते समय दें। अधिक वर्षा वाले क्षेत्रों में नत्रजन तथा पोटाश की मात्रा 3-5 बार में देना ठीक रहता है।

सिंचाई

यदि मार्च में जिमीकंद की फसल की रोपाई के तुरंत बाद हल्की सिंचाई कर दें तथा उसके बाद समय-समय पर आवश्यकतानुसार हल्की सिंचाई करते रहें। इस बात का ध्यान रखें, कि फसल वृद्धि की किसी भी अवस्था में खेत में पानी का जमाव नहीं रहे। कंदों की खुदाई से पूर्व भी हल्की सिंचाई कर देने से सुविधा रहती है।

अन्त: सस्य क्रियाएं

गुड़ाई पौधों की वृद्वि तथा कंदों के विकास के लिए लाभदायक होती है। गुड़ाई के द्वारा खरपतवार भी नियंत्रित होते हैं। बारहमासी फसल होने के कारण इसमें खरपतवार समस्या पैदा कर सकता है। इसलिए शस्य क्रियाएं करें। रोपाई के 30-35 दिनों बाद पत्ता निकल आने पर खरपतवार निकालकर नत्रजन तथा पोटाश देकर पौधों पर मिट्टी चढ़ा दें। रोपाई के 60-65 दिनों बाद इस क्रिया को पुन: दोहरायें।

कीट एवं रोग नियंत्रण

याम बीटल: ग्रब्स पत्तियों के द्वारा नाजुक डंठलों को खाते हैं। इन कीड़ों के नियंत्रण के लिए फसलों पर  कार्बोरिल 50 ड्ब्ल्यू.पी. दवा की 2 ग्राम मात्रा प्रति लीटर पानी की दर से छिड़कें।
पत्ती खाने वाली सुण्डी:  इसकी सुण्डी पौधों की नई पत्तियों को खाती है, जो कि मनुष्य के उपयोग के लायक नहीं रह जाते। इस सुण्डियों को हाथ में पकड़कर खत्म कर दें। कार्बोरिल 50 ड्ब्ल्यू.पी. दवा की 2 ग्राम मात्रा या  मैलाथियान 50 ई.सी. दवा की 1 मि.ली. मात्रा प्रति लीटर पानी की दर से फसलों पर छिड़काव करें।

कालररॉट: पौधे के भूमि के ठीक ऊपरी भाग पर रोगजनक आक्रमण करता है और तने पर जल अवशोषित घाव उत्पन्न करते हैं। जल्द ही पूरा पौधा पीले रंग में परिवर्तित हो जाता है। ऊपरी भाग सडऩे के कारण तने सिकुड़ जाते हैं। संक्रमित ऊतकों पर गोल स्क्लेरोसिया के साथ माइसीलिया की मोटी सफेद फैली हुई जाल देखी जा सकती है। शस्य क्रियाएं जैसे कि फसल-चक्र, पौध-अवशेष निवारण एवं जल निस्कासन में सुधार बीमारी के प्रकोप को कम करेगा। जैसे ही बीमारी का पहला लक्षण दिखाई पड़े पौधे के चारों ओर भूमि पर कैप्टान फफूंदीनाशक दवा की 2 ग्राम मात्रा प्रति लीटर पानी की दर से महीने में दो बार अंतराल पर डालना प्रभावकारी होता है।

मोजेक: पत्तियों पर धब्बे बनना (वाहक-माहू) इसका मुख्य लक्षण है। बीमारी की वृद्धि सबसे ज्यादा पाश्र्व कलिका पर होती है। मातृकंदों से कलिका अलग होने लगती है और जड़ों की वृद्धि भी कम हो जाती हैं। ऐसे पौधे छोटे कंदों का उत्पादन करते है। संक्रमित पौधों को उखाड़कर फेकने से आगे बीमारियों के फैलाव को रोका जा सकता है। मोजेक (वायरस) मुक्त कंद रोपाई के लिए प्रयोग करने, रोपाई के बाद धान के पुवाल से ढंकने तथा रोपाई के 60 और 90 दिनों बाद डाइमेथोएट 30 ई.सी. दवा की 2 मि.ली. मात्रा प्रति लीटर पानी की दर दो छिड़काव करने से इस रोग पर प्रभावकारी ढंग से नियंत्रित किया जा सकता है।

कंदों की खुदाई एवं उपज

रोपण के 7-10 महीने के बाद फसल कटाई के लिए तैयार हो जाती है। पत्तियों के पीले होकर झुकना फसल के परिपक्व होने का सूचक है। ज्यादा मूल्य और पहले बाजार में लाने के लिए फसल को पूरी तरह से परिपक्व होने के पहले काटा जा सकता है। खुदाई करते समय ध्यान रखें कि कंद कटने न पायें। खुदाई के बाद कंदों को मिट्टी हटा कर साफ कर लें तथा जड़ों को तोड़ दें। अच्छे कंदों को आकार के अनुसार छांट लें तथा 4-5 दिन तक छायादार स्थान पर फैलाकर सुखा लें। कंदों को एक स्थान से दूसरे स्थान पर भेजते समय हवादार पात्र व्यवहार में लायें। ताड़ के पत्तों से बनी डालियां में कंदों को धान के पुआल अथवा केले के सूखे पत्तों के बीच रखकर परिवहन हेतु भेजा जा सकता हैं। जिमीकंद की पैदावार रोपाई के समय प्रयुक्त कंदों की मात्रा पर निर्भर करती हैं अच्छी फसल होने पर कंदों की मात्रा तथा पैदावार का अनुपात 1:10 का होता है। यदि 90×90 सेमी. की दूरी पर लगभग 500 ग्रा. वजन के कंद रोपाई के लिए प्रयोग किया जाते हैं तो 6 टन प्रति हेक्टेयर रोपण सामग्री लगेगी तथा 40-60 टन प्रति हेक्टेयर पैदावार प्राप्त की जा सकती है। बीज उत्पादन हेतु 60×60 सेमी. की दूरी पर 100 ग्राम वजन के कटे हुए कंदों के टुकड़ों को लगाने पर 2-4 टन प्रति हेक्टेयर रोपण सामग्री लगती है तथा 15-20 टन प्रति हेक्टेयर कंद पैदावार के रूप में प्राप्त किया जा सकता है। अच्छे धनकंदों को आकार के अनुसार छांट लें तथा छोटे घनकंदों को अगली बुवाई के लिए छाया में सुखाकर, हवादार कमरों में सुरक्षित रखें। अधिक समय तक भंडारित करने के लिए ओल के घनकंदों को 10-12 डिग्री सेन्टीग्रेड तापमान पर ही रखें।

उन्नतशील किस्में

गजेन्द्रा: इस प्रजाति में सिर्फ  एक ही मुख्य कंद बनता है, देशी किस्मों की तरह इसमे मुख्य कंद से जुड़े छोटे-छोटे कई कंद नहीं बनते हैं। इसके पौधे एवं कन्द सुडौल आकार के होते हैं तथा कंदों का गूदा हल्का नारंगी रंग का होता है। इस किस्म की उत्पादन क्षमता सर्वाधिक है तथा इसके कंद खाने पर गले व मुंह में तीक्षणता पैदा नहीं करते हैं। इसकी उत्पादन क्षमता 80-100 टन प्रति हेक्टेयर है।

श्री पद्मा: इस किस्म में भी एक ही सुडौल कंद बनता है तथा इसमें भी खुजलाहट/तीक्ष्णता नहीं पाई जाती है। हल्के रंग के डण्ठल इस किस्म की मुख्य विशिष्टता है। यह किस्म मोसेक रोग और कोलर मलन रोग के लिए सहनशील होती है। प्रजाति का औसत उत्पादन 40-60 टन/   हेक्टेयर है।

संतरागाछी: इसके पौधे बड़े एवं अच्छी बाढ़ लिए होते हैं। इसके मातृ कंद बाहर से खुरदुरे तथा कई धनकंद लिए हुए, कंदों के गूदे का रंग हल्का पीला होता है। इसके कंद खाते समय गले में हल्की तीक्ष्णता पैदा करते हैं। इस किस्म की उपज क्षमता 50 से 70 टन प्रति हेक्टेयर हैैं।

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