फसल की खेती (Crop Cultivation)

ग्वार की खेती करें

ग्वार की खेती करें

ग्वार शुष्क और अर्ध-शुष्क क्षेत्रों में उगाई जाने वाली दलहनी फसल है जो कि एक अत्यन्त सूखा एवं लवण सहनशील है। अत: इसकी खेती असिंचित व बहुत कम वर्षा वाले क्षेत्रों में सफलतापूर्वक की जा सकती है। ग्वार शब्द की उत्पत्ति संस्कृत के गऊ आहार से हुई है जिसका तात्पर्य गाय का भोजन है। विश्व के कुल ग्वार उत्पादन का 80 प्रतिशत भाग अकेले भारत में पैदा होता है। जोकि 65 देशों में निर्यात किया जाता है। ग्वार की खेती प्रमुख रूप से भारत के उत्तर-पश्चिमी राज्यों (राजस्थान, हरियाणा, गुजरात, उत्तरप्रदेश एवं पंजाब) में की जाती है। है। हमारे देश के कुल ग्वार उत्पादक क्षेत्र का लगभग 87 प्रतिशत क्षेत्र राजस्थान के अंतर्गत आता है। राजस्थान में ग्वार की खेती मुख्यत: चुरू, नागौर, बाड़मेर, सीकर, जोधपुर, गंगानगर, सिरोही, दौसा, बीकानेर, हनुमानगढ एवं झुन्झुनू में की जाती है।

उत्पादन तकनीक

ग्वार की खेती के लिए उचित जल निकास वाली बलुई दोमट एवं दोमट मिट्टी सर्वोत्तम रहती है। यह फसल सिंचित, असिंचित एवं बहुत कम वर्षा वाले क्षेत्रों में सफलतापूर्वक उगायी जा सकती है। हल्की क्षारीय व लवणीय भूमि जिसका पीएच मान 7.5 से 8.5 तक हो, वहां पर ग्वार की खेती आसानी से की जा सकती है।

खेत की तैयारी

ग्वार के अच्छे उत्पादन के लिए रबी फसल की कटाई के बाद खाली पड़े खेतों में बुआई से पहले 15-20 टन प्रति हेक्टर सड़ी हुई गोबर की खाद मिलायें। दलहनी फसल होने के कारण सामान्यत: ग्वार की फसल में उर्वरकों की कम आवश्यकता पड़ती है। ग्वार का बेहतर उत्पादन लेने के लिए 20-25 किग्रा नाइट्रोजन, 40-50 किग्रा फास्फोरस, 20 किग्रा सल्फर की सिफारिश वैज्ञानिकों द्वारा की गई है। सभी उर्वरक बुवाई के समय या अंतिम जुताई के समय देने चाहिए। फास्फोरस के प्रयोग से न केवल चारे की उपज में वृद्धि होती है बल्कि उसकी पौष्टिकता भी बढ़ती है। पहली जुताई मिट्टी पलटने वाले हल से और दो जुताइयां ट्रैक्टर चालित कल्टीवेटर से करें। अंतिम जुताई के बाद पाटा अवश्य लगाएं जिससे मृदा नमी संरक्षित रहे। इस प्रकार तैयार खेत में खरपतवार कम पनपते हैं। साथ ही वर्षा जल का अधिक संचय होता है।

बुआई का समय एवं बीज मात्रा

ग्वार की बुआई दो समय पर की जा सकती है।

सब्जी के लिए ग्वार को फरवरी-मार्च में सरसों, गन्ना आदि के खाली पड़े खेतों में बोया जाता है।

जून-जुलाई में ग्वार मुख्य रूप से चारे और दाने के लिए पैदा की जाती है। इस फसल की बुआई प्रथम मानसून के बाद जून या जुलाई में की जानी चाहिए। ग्वार की फसल के लिए 12-15 कि.ग्रा. प्रति हेक्टर बीज की आवश्यकता पड़ती है।

अच्छी पैदावार के लिए बुवाई हमेशा पंक्तियों में हल के कुंड़ों में अथवा सीडड्रिल की सहायता से करें। पंक्ति से पंक्ति की दूरी 30 सेंमी तथा पौधे से पौधे की दूरी 15 सेंमी आदर्श मानी जाती है। बुवाई के समय भूमि में पर्याप्त नमी होनी चाहिए जिससे बीज का जमाव शीघ्र व पर्याप्त मात्रा में हो सके। किसान भाइयों को सलाह दी जाती है कि बुवाई कभी भी छिटकवां विधि से न करें। इसमें समय तो कम लगता है परंतु उपज काफी कम मिलती है व शस्य क्रियाओं को करने में भी परेशानी होती है।

बीजोपचार

बीजों के अच्छे जमाव व फसल को रोगमुक्त रखने के लिए बीज को सबसे पहले बाविस्टिन या कैप्टान नामक फफूंदीनाशक दवा से 2 ग्राम/किलो बीज की दर से उपचारित करें। पौधों की जड़ों में गांठों का अधिक निर्माण हो व वायुमंडलीय नाइट्रोजन का भूमि में अधिक यौगिकीकरण हो इसके लिए बीज को राईजोबियम व फॉस्फोरस सोलूबलाइजिंग बैक्टीरिया (पीएसबी) कल्चर से उपचारित करें।

उन्नत किस्में

हरे चारे हेतु – एचएफजी-119, एचएफजी-156, ग्वार क्रांति, मक ग्वार, बुंदेल ग्वार-1 (आईजीएफआरआई-212-1), बुंदेल ग्वार-2, आरआई-2395-2, बुंदेल ग्वार-3, गोरा-80

हरी फलियों हेतु – आईसी-1388, पी-28-1-1, गोमा मंजरी, एम-83, पूसा सदाबहार, पूसा मौसमी, पूसा नवबहार, शरद बहार
दाने के लिए – मरू ग्वार, आरजीसी-986, दुर्गाजय, अगेती ग्वार-111, दुर्गापुरा सफेद, एफएस-277, आरजीसी-197, आरजीसी-417

खरपतवार एवं सिंचाई प्रबंधन

खरपतवारों की रोकथाम के लिए बुआई के एक माह बाद एक निराई-गुड़ाई करें तथा बुआई के तुरंत बाद बासालीन 2.0 लीटर या पेंडीमिथालिन 3.0 लीटर प्रति हैक्टेयर 600-700 लीटर पानी में घोलकर छिड़काव करें। सामान्यत: जुलाई में बोई गई फसलों में सिंचाई की आवश्यकता नहीं पड़ती है। परंतु वर्षा न होने की दशा में सिंचित क्षेत्रों में एक सिंचाई फलियाँ बनते समय अवश्य करें।
हरे चारे के रूप में ग्वार की कटाई का समय ग्वार के हरे चारे वाली फसल की कटाई बुआई के 50-60 दिन के बाद फूल आने की अवस्था में की जानी चाहिए। फली बनने की अवस्था में ग्वार के हरे चारे को खिलाना दुधारू पशुओं के लिए उपयोगी होता है।

ग्वार की कटाई और उपज

जब फसल पक जाये व पतियाँ पीली पड़ कर झड़ जायें और फलियों का रंग भूसे जैसा दिखने लगे तब ग्वार की कटाई कर लें। ग्वार फसल से हरे चारे की औसत उपज 175-250 क्विंटल प्रति हेक्टर एवं हरी फलियों की उपज 40-60 क्विंटल प्रति हेक्टर और दाने की उपज 15-20 क्विंटल प्रति हेक्टर प्राप्त होती है।

महत्व

  • ग्वार एक बहुउद्देशीय फसल है जिसका प्राचीनकाल से ही मनुष्य एवं पशु आहार के लिए महत्व रहा है।
  • इसमें प्रोटीन, घुलनशील फाइबर, विटामिन्स (के, सी, ए), कार्बोहाइड्रेट के साथ-साथ प्रचुर मात्रा में खनिज, फॉस्फोरस, कैल्शियम, आयरन एवं पौटेशियम आदि भी पाया जाता है।
  • इसकी ताजा व नरम हरी फलियों को सब्जी के रूप में खाया जाता है जो कि पौष्टिक होती है।
  • ग्वार फली विभिन्न रोगों जैसे – खून की कमी, मधुमेह, रक्तचाप, आंत की समस्याएं में लाभकारी है एवं हड्डियों को मजबूत करने, दिल को स्वस्थ रखने, रक्त परिसंचरण को बेहतर करने के साथ-साथ मस्तिष्क के लिए भी गुणकारी है।
  • इसका उपयोग पशुओं के चारे के रूप में होता है। तथा दुधारू पशुओं में दूध उत्पादन में बढ़ोतरी करता है।
  • इसका प्रयोग खेतों में हरी खाद के रूप में भी किया जाता है जिसके लिए फसल में फूल आने के बाद एवं फली पकने से पहले मिट्टी पलटने वाले हल से भूमि में दबा दिया जाता है।
  • यह वायुमण्डलीय नाइट्रोजन का भूमि में स्थिरीकरण करती है जिससे जमीन की उर्वरा शक्ति बढ़ती है।
  • इसके दानों में ग्लेक्टोमेनन नामक गोंद होता है जो संपूर्ण विश्व में ‘ग्वार गमÓ के नाम से प्रचलित है। जिसका इस्तेमाल खाद्य पदार्थों जैसे- आइसक्रीम, पनीर, सूप में किया जाता है।
  • ग्वार गम का प्रयोग कई प्रकार के उद्योग-धंधों व औषधि निर्माण में किया जाता है। पेट साफ करने, रोचक औषधि तैयार करने, कैप्सूल व गोलियां बनाने में भी इसका प्रयोग किया जाता है। इसके अलावा खनिज, कागज व कपड़ा उद्योग में भी ग्वार गम महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है।
  • कागज निर्माण के समय ग्वार गम को लुगदी में मिलाया जाता है जिससे कागज ठीक से फैल सके और अच्छी गुणवत्ता का कागज तैयार किया जा सके।
  • कपड़ा उद्योग में यह मांडी लगाने के उपयोग में लाया जाता है।
  • श्रृंगार वस्तुओं जैसे लिपिस्टिक, क्रीम, शेम्पू और हैण्ड लोशन में भी ग्वार गम का प्रयोग किया जाता है।
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