फसल की खेती (Crop Cultivation)

कोदों एवं कुटकी की उन्नत उत्पादन तकनीक

प्रेषकः- डॉ. आर. पी. अहिरवार (वैज्ञानिक), डॉ. के. व्ही. सहारे (वरिष्ठ वैज्ञानिक एवं प्रमुख), डॉ. प्रणय भारती (वैज्ञानिक), केतकी धूमकेती (कार्यक्रम सहायक) कृषि विज्ञान केन्द्र मण्डला

20 जुलाई 2023, भोपाल: कोदों एवं कुटकी की उन्नत उत्पादन तकनीक – कोदो का वानस्पतिक नाम पास्पलम स्कोर्बीकुलातम है कोदो की खेती अनाज फसल के लिए की जाती है। कोदो भारत का एक प्राचीन अन्न है जिसे ऋषि अन्न माना जाता था। इसे कम बारिश वाले क्षेत्रों में मुख्य रूप से उगाया जाता है । भारत के कई हिस्सों में कोदो का उत्पादन किया जाता है । इसकी फसल को शुगर फ्री चावल के तौर पर पहचानते है। कोदो की खेती कम मेहनत वाली खेती है, जिसकी बुवाई बारिश के मौसम के बाद की जाती है । इसका उपयोग उबालकर चावल की तरह खाने में किया जाता है। प्रयोग करने से पूर्व इसके दाने के ऊपर उपस्थित छिलके को कूटकर हटाना आवश्यक रहता है । कोदो के दानों से चावल निकलता है जिसे खाने के लिए इस्तेमाल में लाते है और स्थानीय बोली में ‘भगर के चावल‘ के नाम पर इसे उपवास में भी खाया जाता है। इसके दाने में 8.3 प्रतिशत प्रोटीन, 1.4 प्रतिशत वसा तथा 65.9 प्रतिशत कार्बोहाइड्रेट पाई जाती है। कोदो-कुटकी मधुमेह नियन्त्रण,यकृत (गुर्दों) और मूत्राशय के लिए लाभकारी है। यह रासायनिक उर्वरक और कीटनाशक के प्रभावों से भी मुक्त है। कोदो-कुटकी हाई ब्लड प्रेशर के रोगियों के लिए रामबाण है। इसमें चावल के मुकाबले कैल्शियम भी 12 गुना अधिक होता है। शरीर में आयरन की कमी को भी यह पूरा करता है। इसके उपयोग से कई पौष्टिक तत्वों की पूर्ति होती है। आपने अक्सर बुजुर्गो को कहते सुना होगा “नहाए के बाल और खाए के गाल अलग नजर आ जाते हैं। कहने को ये बहुत साधारण सी बात है, लेकिन इसके मायने बहुत गहरे हैं”। जैसा आपका खान-पान होता है चेहरे पर चमक भी वैसी ही होती है। विशेषज्ञ बताते हैं, “मिलेट स्वास्थ्य और समृद्धि के लिए वरदान हैं, जिनके माध्यम से आधुनिक जीवन शैली की बीमारियों (मधुमेह, रक्तचाप, थायराइड, मोटापा, गठिया, एनीमिया और 14 प्रकार के कैंसर) को ठीक किये जा सकते हैं”। लघु धान्य फसलों की खेती खरीफ के मौसम में की जाती है। सांचा, काकुन एवं रागी को मक्का के साथ मिश्रित फसल के रूप में लगाते हैं। रागी को कोदों के साथ भी मिश्रित फसल के रूप में लेते हैं। ये फसलें गरीब एवं आदिवासी क्षेत्रों में उस समय लगाई जाने वाली खाद्यान्न फसलें हैं जिस समय पर उनके पास किसी प्रकार अनाज खाने को उपलब्ध नहीं हो पाता है। ये फसलें अगस्त के अंतिम सप्ताह या सितंबर के प्रारंभ में पककर तैयार हो जाती है जबकि अन्य खाद्यान्न का मूल्य बढ जाने से गरीब किसान उन्हें नहीं खरीद पाते हैं। अतः उस समय 60-80 दिनों में पकने वाली कोदो-कुटकी, सावां, एवं कंगनी जैसी फसलें महत्वपूर्ण खाद्यान्नों के रूप में प्राप्त होती है। जबलपुर संभाग में ये फसलें अधिकतर डिण्डौरी, मण्डला, सिवनी एवं जबलपुर जिलों में ली जाती है।

कुटकी का वैज्ञानिक नाम पनिकम अन्तीदोटेल है। कुटकी वर्षा ऋतु की फसलो में सबसे पहले तैयार होने वाली धान्य प्रजाति की फसल है । इसे पिछड़े और आदिवासी क्षेत्रो में अधिक पसंद किया जाता है। छत्तीसगढ़ के आदिवासी क्षेत्रो में इसे चिकमा नाम से भी जाना जाता है । इसे गरीबों की फसल की संज्ञा दी गई है। कुटकी जल्दी पकने वाली सूखा और जल भराव जैसी विषम परिस्थितियों को सहन करने वाली फसल है। यह एक पौष्टिक लघु धान्य हैं। इसके 100 ग्राम दाने में 8.7 ग्राम प्रोटीन, 75.7 ग्राम कार्बोहाइड्रेट, 5.3 ग्राम वसा, 8.6 ग्राम रेशा के अलावा खनिज तत्व, कैल्शियम एंव फास्फोरस प्रचुर मात्रा में पाया जाता है।

भूमि का चयन एवं भूमि की तैयारी-

कोदो-कुटकी को प्रायः हर एक प्रकार की भूमि में पैदा की जा सकती है। जिस भूमि में अन्य कोई धान्य फसल उगाना संभव नहीं होता वहां भी ये फसलें सफलता पूर्वक उगाई जा सकती हैं। उतार-चढाव वाली, कम जल धारण क्षमता वाली, उथली सतह वाली आदि कमजोर किस्म में ये फसलें अधिकतर उगाई जा रही हैं। हल्की भूमि में जिसमें पानी का निकास अच्छा हो इनकी खेती के लिये उपयुक्त होती है। बहुत अच्छा जल निकास होने पर लघु धान्य फसलें प्रायः सभी प्रकार की भूमि में उगाई जा सकती है। भूमि की तैयारी के लिये गर्मी की जुताई करें एवं वर्षा होने पर पुनः खेत की जुताई करें या बखर चलायें जिससे मिट्टी अच्छी तरह से भुरभुरी हो जावे।

बीज का चुनाव एवं बीज की मात्रा-

भूमि के प्रकार के अनुसार उन्नत किस्म के बीज का चुनाव करें। हल्की पथरीली व कम उपजाऊ भूमि में जल्दी पकने वाली जातियों की बोनी करें। लघु मान्य फसलों की कतारों में बुवाई के लिये 8-10 किलोग्राम बीज तथा छिटकवां बोनी के लिये 12-15 किलोग्राम बीज प्रति हेक्टेयर पर्याप्त होता है। लघु धान्य फसलों को अधिकतर छिटकवां विधि से बोया जाता है। किन्तु कतारों में बोनी करने से निंदाई-गुडाई में सुविधा होती है और उत्पादन में वृद्धि होती है।

उन्नत जातियाँ

कोदों उन्नत किस्मे जवाहर कोदों 13, जवाहर कोदों 137, जवाहर कोदों 155, आर. के. 390-25, इनके अतिरिक्त किस्मे निम्नलिखित तालुका में दी गई है |

उन्नत जातियॉं कोदोंअवधि (दिनों में)विशेषतायेंऔसत उपज (क्विंटल/हेक्ट)
कोदों की उन्नत किस्मे
जवाहर कोदों 48 (डिण्डौरी-48)95-100इसके पौधों की ऊंचाई 55-60 सें.मी. होती है।23-24
जवाहर कोदों – 439100-105इसके पौधों की ऊंचाई 55-60 सें.मी. होती है। यह जाति विशेषकर पहाडी क्षेत्रों के लिये उपयुक्त है। इस जाति में सूखा सहन करने की क्षमता ज्यादा होती है।20-22
जवाहर कोदों – 41105-108इसके दानों का रंग हल्का भूरा होता है। पौधों की ऊंचाई 60-65 सें.मी. होती है।20-20
जवाहर कोदों – 6250-55इसके पौधों की ऊंचाई 90-95 सें.मी. होती है। यह किस्म पत्ती के धारीदार रोग के लिये प्रतिरोधी है यह किस्म सामान्य वर्षा वाली तथा कम उपजाऊ भूमि में आसानी से ली जा सकती है।20-22
जवाहर कोदों – 7685-87यह किस्मत ने की मक्खी के प्रकोप से मुक्त है।16-18
जी.पी.यू.के. – 3100-105पौधों की ऊंचाई 55-60 सें.मी. होती है। इसका दाना गहरे भूरे रंग का बडा होता है। यह जाति संपूर्ण भारत के लिये अनुशंषित की गई है।22-25
कुटकी की उन्नत किस्मे
जवाहर कुटकी 475-80सोल फसल साथ ही इंटर/मिश्रित फसल के रूप में उपयुक्त, एनपीके के लिए उत्तरदायी, सूखा प्रतिरोधी, और मुख्य कीट शूट फ्लाई और मध्यम रूप से हैड स्मट के लिए प्रतिरोधी13-15
जवाहर कुटकी – 1 (डिण्डौरी – 1)75-80इसका बीज हल्का काला व बाली की लंबाई 22 सें.मी. होती है।8-10
जवाहर कुटकी – 2 (डिण्डौरी – 2)75-80इसका बीज हल्का भूरा व अण्डाकार होता है।8-10
जवाहर कुटकी – 880-82इसका दाना हल्के भूरे रंग का होता है। पौधों की लंबाई 80 सें.मी. होती है तथा प्रति पौधा 8-9 कल्ले निकलते हैं8-10
सी.ओ. – 280-85इसके पौधा की लंबाई 110-120 सें.मी. होती है। यह संपूर्ण भारत के लिये अनुशंसित है।9-10
पी.आर.सी. – 375-80इसका पौधा की लंबाई 100-110 सें.मी. होती है।22-24
कोदों एवं कुटकी की उन्नत उत्पादन तकनीक
बोनी का समय, बीजोपचार एवं बोने का तरीका-

लघु धान्य फसलों की बोनी वर्षा आरंभ होने के तुरंत बाद कर देना चाहिये। शीघ्र बोनी करने से उपज अच्छी प्राप्त हाती है एवं रोग, कीट का प्रभाव कम होता है। कोदों में सूखी बोनी मानसून आने के दस दिन पूर्व करने पर उपज में अन्य विधियों से अधिक उपज प्राप्त होती है। जुलाई के अंत में बोनी करने से तना मक्खी कीट का प्रकोप बढता हे। बोनी से पूर्व बीज को मैन्कोजेब या थायरम दवा 3 ग्राम प्रति किलोग्राम बीज के हिसाब से बीजोपचार करें। ऐसा करने से बीज जनित रोगों एवं कुछ हद तक मिट्टी जनित रोगों से फसल की सुरक्षा होती है। कतारों में बोनी करने पर कतार से कतार की दूरी 20-25 से.मी. तथा पौधों से पौधों की दूरी 7 से.मी. उपयुक्त पाई गई है। इसकी बोनी 2-3 से.मी. गहराई पर की जानी चाहिये। कोदों में 6-8 लाख एवं कुटकी में 8-9 लाख पौधे प्रति हेक्टेयर होना चाहिये।

खाद एवं उर्वरक का उपयोग-

अधिकतर किसान इन लघु धान्य फसलों में उर्वरक का प्रयोग नहीं करते हैं। किंतु कुटकी के लिये 20 किलो नत्रजन 20 किलो स्फुर हेक्टे. तथा कोदों के लिये 40 किलो नत्रजन व 20 किलो स्फुर प्रति हेक्टेयर का उपयोग करने से उपज में वृद्धि होती है। उपरोक्त नत्रजन की आधी मात्रा व स्फुर की पूरी मात्रा व स्फुर की मात्रा बुवाई के समय एवं नत्रजन की शेष आधी मात्रा बुवाई के तीन सप्ताह के अंदर निंदाई के बाद होना चाहिये। बुवाई के समय पी.एस.बी. जैव उर्वरक 4 से 5 किग्रा. प्रति हेक्टेयर की दर से 100 किग्रा. मिट्टी अथवा कम्पोस्ट के साथ मिलाकर प्रयोग करें।

निंदाई गुडाई –

बुवाई के 20-30 दिन के अंदर एक बार हाथ से निंदाई करना चाहिये तथा जहां पौधे न उगे हों वहां पर अधिक घने उगे पौधों को उखाडकर रोपाई करके पौधों की संख्या उपयुक्त करना चाहिये। यह कार्य 20-25 दिनों के अंदर कर ही लेना चाहिये। यह कार्य पानी गिरते समय सर्वोत्तम होता है।

फसल की कटाई गहाई एवं भंडारण –

फसल पकने पर कोदों व कुटकी को जमीन की सतह के ऊपर कटाई करें। खलियान में रखकर सुखाकर बैलों से गहाई करें। उडावनी करके दाना अलग करें। दानों को धूप में सुखाकर (12 प्रतिशत) भण्डारण करें।

भण्डारण करते समय सावधानियॉं –

भण्डार गृह की फर्श सतह से कम से कम दो फीट ऊंची होनी चाहिये। भण्डार गृह के पास पानी जमा नहीं होनाा चाहिये। कोठी, बण्डा आदि में दरार हो तो उन्हें बंदकर देवें। इनकी दरार में कीडे हो तो चूना से पुताई कर नष्ट कर देवें। कोदों का भण्डारण कई वर्षों तक किया जा सकता है, क्योंकि इनके दानों में कीट का प्रकोप नहीं होता है। अन्य लघु धान्य फसल को तीन से पांच वर्ष तक भण्डारित किया जा सकता है।

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