पशुपालन (Animal Husbandry)

मुँहपका एवं खुरपका के लक्षण, बचाव उपचार एवं टीकाकरण

पशुओं में होने वाला एक प्रमुख रोग
  • डॉ. अनिल कुमार गिरि, सहायक प्राध्यापक
    कृषि महाविद्यालय , रीवा
  • डॉ. प्रमोद शर्मा
    फार्म मैनेजर एवं सहायक प्राध्यापक पशु चिकित्सा विज्ञान एवं पशुपालन                 
    महाविद्यालय, रीवा
  •  संदीप शर्मा, एसएमएस (एग्रोमेट)
    कृषि विज्ञान केंद्र, रीवा 
  • डॉ. क्षेमंकर श्रमण
    पशु चिकित्सा विज्ञान एवं पशुपालन                 
    महाविद्यालय, जबलपुर
  • Email: drpramodvet@yahoo.co.in

30  मार्च 2023, मुँहपका एवं खुरपका के लक्षण, बचाव उपचार एवं टीकाकरण  – मुँहपका-खुरपका रोग (एफ एम डी) एक बहुत ही घातक तथा शीघ्रता से फैलने वाली छूतदार विषाणु जनित बीमारी है। इस बीमारी से विभक्त खुर वाले पशुओं जैसे गाय, भैंस, भेंड़, बकरी, हिरन, सूअर तथा अन्य जंगली पशु प्रभावित होते हैं। गायों और भैंसों में कई बार यह बीमारी देखने को मिलती है। इससे प्रभावित होने वाले पशुओं में अत्याधिक तेज बुखार (104-106०F) के साथ-साथ मुँह और खुरों पर छाले और घाव बन जाते हैं। रोग के असर के कारण कुछ जानवर स्थायी रूप से लंगड़े भी हो सकते हैं, जिस कारण वे खेती के कार्य में इस्तेमाल के लायक नहीं रह जाते। इसका संक्रमण होने के कारण गायों का गर्भपात भी हो सकता है और समय पर इलाज नहीं होने के कारण पशु मर भी सकते हैं। इस रोग से संक्रमित पशुओं के दूध उत्पादन में बहुत अधिक गिरावट आ जाती है। हालांकि ऐसे पशुओं का दूध उपयोग में नहीं लेना चाहिए । इस रोग से पशुधन उत्पादन में भारी कमी आती है साथ ही देश से पशु उत्पादों के निर्यात पर भी प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है। इस बीमारी से अपने देश में प्रतिवर्ष लगभग 20 हजार करोड़ रूपये का प्रत्यक्ष नुकसान होता है। अत: इस बीमारी के रोकथाम के लिए गायों और भैंसों को वर्ष में दो बार मुंहपका खुरपका रोग का टीका अवश्य लगवाना चाहिए।

रोग के कारण

मुँहपका-खुरपका रोग एक बहुत ही छोटे आकार के वायरस द्वारा होता है, इस वायरस का नाम Aptho Virus है जो Picornaviridae फेमिली का है। विश्व में इस वायरस के 7 किस्में पायी जाती हैं (A, O, C, SAT1, SAT2, SAT3 and Asia1) तथा इनकी 14 उप किस्में शामिल हैं। हमारे देश में यह रोग मुख्यत: ओ.ए.सी. तथा एशिया-1 प्रकार के विषाणुओं द्वारा होता है। प्रत्येक वायरस की किस्म के लिए एक स्पेसिफिक टीका की आवश्यकता होती है जिससे पशु को इस बीमारी से सुरक्षा मिल सके।

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रोग के फैलने के कारण

muhpaka

ये रोग मुख्यत: बीमार पशु के विभिन्न स्त्राव और उत्सर्जित द्रव जैसे लार, गोबर, दूध के साथ सीधे संपर्क मे आने, दाना, पानी, घास, बर्तन, दूध निकालने वाले व्यक्ति के हाथों से और हवा से फैलता है। इस स्त्राव में विषाणु बहुत अधिक संख्या में होते हैं और स्वस्थ जानवर के शरीर में मुँह और नाक के माध्यम से प्रवेश कर जाते हैं। ये रोग संक्रमित जानवरों को स्वस्थ जानवरों के एक साथ बाड़े में रखने से, एक ही बर्तन से खाना खाने और पानी पीने से, एक दूसरे का झूठा चारा खाने से फैलता हैं। ये विषाणु खुले में घास, चारा, तथा फर्श पर कई महीनों तक जीवित रह सकते हैं लेकिन गर्मी के मौसम में यह बहुत जल्दी नष्ट हो जाते हैं। विषाणु जीभ, मुंह, आंत, खुरों के बीच की जगह, थनों तथा घाव आदि के द्वारा स्वस्थ पशु के रक्त में पहुंचते हैं तथा लगभग 4-5 दिनों के अंदर उसमें बीमारी के लक्षण पैदा करते हैं। नम-वातावरण, पशु की आंतरिक कमजोरी, पशुओं तथा लोगों का एक स्थान से दूसरे स्थान पर आवागमन तथा नजदीकी क्षेत्र में रोग का प्रकोप इस बीमारी को फैलाने में सहायक कारक हैं। यह रोग किसी भी उम्र की गायों एवं उनके बच्चों में हो सकता है। यह बीमारी किसी भी मौसम में हो सकती है।

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बीमारी के लक्षण

khurpaka

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इस बीमारी में पशु को जाड़ा देकर तेज बुखार (104-106०F) होता है। पशु चारा कम खता है, दूध कम देता है, मुँह से लार बहने लगती है। बीमार पशु के मुँह में मुख्यत जीभ के उपर, होठों के अंदर, मसूड़ों पर साथ ही खुरों के बीच की जगह पर छोटे-छोटे छाले बन जाते हैं। फिर धीरे-धीरे ये छाले आपस में मिलकर बड़ा छाला बनाते हैं। समय पाकर यह छाले फूट जाते हैं और उनमें जख्म हो जाते हैं। मुँह मे छाले हो जाने की वजह से पशु जुगाली बंद कर देता है और खाना पीना छोड़ देता है, मुँह से निरंतर लार गिरती रहती है साथ ही मुँह चलाने पर चप-चप की आवाज़ भी सुनाई देती है। खुर में जख्म होने की वजह से पशु लंगड़ाकर चलता है। दुधारू पशुओं में दूध का उत्पादन 80 प्रतिशत तक कम हो जाता है। पशु कमजोर होने लगते हैं। प्रभावित पशु स्वस्थ होने के उपरांत भी महीनों तक और कई बार जीवन पर्यन्त कमजोर ही रहते हैं, कई बार गर्भवती पशुओं में गर्भपात भी हो जाता है। बड़े पशुओं में मृत्यु संख्या 2-3 प्रतिशत होती है, बछड़े/बछियों में मृत्यु संख्या अधिक होती है।

रोग का उपचार

बीमारी होने पर पशु चिकित्सक से सलाह लेना चाहिए एवं आवश्यकतानुसार एंटीबायोटिक इंजेक्शन भी लगाए जा सकते हैं। बीमार पशु को स्वस्थ पशुओं से तुरंत अलग कर दें। बीमार पशु को पूर्ण आराम दें। रोगग्रस्त घाव को कीटाणुनाशक दवाओं के घोल से धोयें। रोगग्रस्त पशु के पैर को नीम एवं पीपल के छाल को उबालकर ठंडा करके दिन में दो से तीन बार धोयें। प्रभावित पैरों को फिनाइल-युक्त पानी से दिन में दो-तीन बार धोकर मक्खी को दूर रखने वाली मलहम का प्रयोग करें। मुँह के छाले को 1 प्रतिशत फिटकरी के पानी में घोल बना कर दिन में तीन बार धोयें। मुँह में बोरो ग्लिसरीन (850 मिली ग्लिसरीन एवं 120 ग्राम बोरेक्स) लगाएं। शहद एवं मडूआ या रागी के आटा को मिलाकर लेप बनाएँ एवं मुँह में लगाया जा सकता है। इस दौरान पशुओं को मुलायम एवं सुपाच्य भोजन दिया जाना चाहिए।

रोग से बचाव का उपाय 

मुँहपका एवं खुरपका बीमारी से पशुओं को बचाने के लिए सर्वोत्तम उपाय टीकाकरण ही है। पशुओं को इस रोग से बचाने के लिए पोलीवेलेंट वेक्सीन वर्ष में दो बार अवश्य लगवायें। बछड़े एवं बछियों को पहला टीका 4 माह की आयु में, दूसरा बूस्टर टीका 1 माह बाद एवं उसके उपरांत हर 6 माह में एफ एमडी बीमारी का टीका लगवाना चाहिए। बीमारी हो जाने पर रोग ग्रस्त पशु को स्वस्थ पशुओं से अलग कर दें। बीमार पशुओं की देखभाल करने वाले व्यक्ति को भी स्वस्थ पशुओं के बाड़े से दूर रहना चाहिए। बीमार पशुओं के आवागमन पर रोक लगा दें। रोग से प्रभावित क्षेत्र से पशु नहीं खरीदें। पशुशाला को साफ-सुथरा रखना चाहिए। चूना एवं संक्रमण नाशी दवा का छिडक़ाव करवायें। संक्रमित पशुओं को मुलायम एवं सुपाच्य आहार खाने के लिए देना चाहिए। इस बीमारी से मरे पशु के शव को खुले में नहीं फेकना चाहिए, गहरा गड्ढा खोदकर जमीन में गाड़ देना चाहिए।

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