कैनाइन डिस्टेम्पर वायरस से कुत्तों में संक्रामक बीमारी
- डॉ. स. दि. औदार्य (सहा. प्राध्यापक)
- डॉ. नी. श्रीवास्तव (सह. प्राध्यापक)
- डॉ. अं. कि. निरंजन (सहा. प्राध्यापक), पशुचिकित्सा सूक्ष्मजीव-विज्ञान विभाग,
पशुचिकित्सा विज्ञान एवं पशुपालन महाविद्यालय, नानाजी देशमुख पशुचिकित्सा विज्ञान विश्वविद्यालय, कुठुलिया, रीवा
18 जून 2022, कैनाइन डिस्टेम्पर वायरस से कुत्तों में संक्रामक बीमारी – कुत्तों और अन्य मांसाहारी जानवरों की यह अत्यधिक संक्रामक बीमारी है। इसका वितरण विश्वव्यापी है और यह बीमारी भारत में भी पायी जाती है। श्वानीय पीड़ा विषाणु (कैनाइन डिस्टेम्पर वायरस) एक मोरबिली विषाणु है। श्वानीय पीड़ा विषाणु रोग ग्रसित जानवरों में कई अंग प्रणालियों से जुड़े सामान्यीकृत संक्रमण पाए जाते हैं।
महामारी विज्ञान
श्वानीय पीड़ा विषाणु की विस्तृत मेजबान श्रेणी में कैनिडी, ऐलुरीडी, हयेनिडी, मुस्तलिडी, प्रोसीओनिडी, उर्सिडी, विवरिडी और फेलिडी परिवार के सदस्य शामिल है। कई वन्यजीवों में रोग के प्रकोप का दस्तावेजीकरण किया गया है (लोमडिय़ों, झालरों, रैकूनों, काले पैरों वाली फेरेट्स प्रजातियों सहित सिंह में)। श्वानीय पीड़ा विषाणु अपेक्षाकृत अस्थिर है। संचरण के लिए सीधे संपर्क या वायु विलयन (एयरोसौल्ज़) की आवश्यकता होती है। शहरी कुत्तों की आबादी में, अतिसंवेदनशील कुत्तों में संक्रमण से विषाणु बना रहता है। संक्रमण युवा कुत्तों में तेजी से फैलता है, आमतौर पर 3 से 6 महीने की उम्र के बीच, जब मातृ-व्युत्पन्न प्रतिरक्षा कम हो जाती है। ग्रामीण क्षेत्रों में कुत्तों की आबादी की कम संख्या के परिणाम स्वरूप निरंतर संक्रमण बनाये रखना मुश्किल है, उम्र की परवाह किए बिना, बिना टीकाकरण वाले कुत्ते श्वानीय पीड़ा विषाणु रोग के प्रति अतिसंवेदनशील होते हैं और रोग का बड़ा प्रकोप यहाँ हो सकता है।
रोगजनन
श्वानीय पीड़ा विषाणु ऊपरी श्वसन पथ में संख्या वृद्धि करता है और गलतुण्डिका (टॉन्सिल) और श्वसनी लसीका पर्व (ब्रोन्कियल लिम्फ नोड्स) में फैलता है। कोशिका-संबद्ध विषाणु के रक्त संचरण (विरेमिया) से विषाणु दूसरे लसिका सम्बन्धी (लिम्फोरेटिकुलर) ऊतकों में फैलता है। विषाणु की संख्या वृद्धि लसीका-कोशिका अपघटन/लसीका-कोशिकालयन (लिम्फोसाइटोलिसिस) और श्वेताणुन्यूनता (ल्यूकोपेनिया) पैदा करती है, जिसके परिणामस्वरूप होने वाली प्रतिरक्षा-रोक (इम्यूनोसप्रेशन), अमुख्य/द्वितीयक (सेकेंडरी) विषाणु के रक्त संचरण (विरेमिया) विकसित करने के लिए सुविधा देता है। विषाणु के, रोग ग्रसित जानवरों की ऊतकों और अंगों में फैलने की सीमा का, रोगग्रसित जानवरों में रोग प्रतिरोधक क्षमता की गति और प्रभावशीलता द्वारा निर्धारित किया जाता है। पर्याप्त जोरदार प्रतिक्रिया के अभाव में श्वानीय पीड़ा विषाणु का प्रसार और प्रतिकृति, श्वसन, जठरांत्र, मूत्र और केंद्रीय तंत्रिका तंत्र में होता है। त्वचा में भी श्वानीय पीड़ा विषाणु का फैलाव हो सकता है। विषाणु, केंद्रीय तंत्रिका तंत्र के भीतर तंत्रिकोशिका या तंत्रिका कोशिका (न्यूरॉन्स) और ग्लियाल कोशिकाओं, दोनों को संक्रमित करता है और वहां बहुत लंबे समय तक बना रह सकता है। बूढ़ा कुत्ता मस्तिष्कशोथ/ मस्तिष्क की सूजन (एन्सेफलाइटिस) लंबे समय, मस्तिष्क में विषाणु के स्थायित्व से जुड़ा हुआ है। यह संभवत: कोशिका से कोशिका तक विषाणु का कोशिका-अपघटनी/गैर-कोशिकालयन से फैलना और प्रतिरक्षा प्रणाली से बचे रहना इसके कारण हुआ हो सकता है। दोषपूर्ण खसरा विषाणु (डिफेक्टिव मीसल्स वायरस) के लगातार संक्रमण में बच्चों का अनुतीव्र काठिन्यकर मस्तिष्कशोथ/मस्तिष्क की सूजन (सबअक्यूट स्क्लेरोजि़ंग पैनेंसेफलाइटिस) यह भी इसी प्रकार से होता है। इन स्थितियों में विषाणु के प्रतिजन की लंबे समय तक की उपस्थिति, निम्न-श्रेणी के सूजन और जलन प्रतिक्रिया के विकसन को उत्तेजित करती है।
चिकित्सकीय संकेत
ऊष्मायन अवधि (इन्क्यूबेशन पीरियड) आमतौर पर लगभग 1 सप्ताह की होती है, लेकिन पूर्व संक्रमण के सबूत के बिना तंत्रिका संबंधी लक्षण दिखाई देने पर यह 4 सप्ताह या उससे अधिक समय तक हो सकती है। बीमारी की गंभीरता और अवधि परिवर्तनशील होती है, और यह संक्रामक विषाणु की उग्रता, संक्रमित जानवर की आयु और प्रतिरक्षी स्थिति और उसकी संक्रमण के विरुद्ध प्रतिक्रिया हेतु प्रतिरक्षा की गति, इनसे प्रभावित होती है। संक्रमण के लिए, ज्वर, द्विध्रुवीय प्रतिक्रिया है, हालांकि प्रारंभिक तापमान की ऊंचाई पर ध्यान नहीं जा सकता है। ज्वर की दूसरी अवधि के दौरान, आंख और नाक से बहाव (ओकुलोनसाल डिस्चार्ज), ग्रसनीशोथ और गलतुंडिका (टॉन्सिलर) वृद्धि स्पष्ट हो जाती है। खाँसी, उल्टी और दस्त अक्सर अमुख्य/ द्वितीयक (सेकेंडरी) संक्रमण के परिणाम होते हैं। पेट की त्वचा पर लाल चकत्ते और फुंसी हो सकते हंै। कुछ प्रभावित कुत्तों में अतिकिरेटिनता (हाइपरकेराटोसिस) जो नाक और पाँव के तलवों (फुटपैड) – जिसे सख्त तलवे (हार्डपैड) कहा जाता है- को होती है। तीव्र रोग, जो कुछ हफ्तों तक रह सकता है, उसके बाद या तो ठीक हो जाता है या जीवन भर की प्रतिरक्षा दे जाता है अथवा तंत्रिका संबंधी संकेतों के विकास द्वारा अंत में, बाधित जानवर मृत्यु को प्राप्त होते है। सामान्य तंत्रिकीय (न्यूरोलॉजिकल) संकेतों में केवल पेशियों का पक्षाघात (पैरेसिस), असामान्य तंत्रिकीय गतिविधि जिसकी तेजी व बारी-बारी से मांसपेशी का संकुचन और विश्राम यह विशेषता है (मायोक्लोनस) और दौरे शामिल हैं। ऐंठन ‘चबाने’ के रूप में शुरू हो सकती है वहीं जानवर लार करता है और जबड़े के साथ बार-बार चबाता है। उसके बाद शरीर की अकड़ बढ़ती जाती है जिसके परिणामस्वरूप मिरगी के दौरे (इस दौरान घूरना, गिरना, हिलना आसपास हो रहे चीजों की जागरूकता को खो देना) आते हंै। तंत्रिका संबंधी गड़बड़ी प्रदर्शित करना यह जानवरों में एक गंभीर रोग का संकेत है। जीवित रहने वाले कुत्तों में अवशिष्ट तंत्रिकीय कमी आम है। बूढ़ा कुत्ता मस्तिष्कशोथ/मस्तिष्क की सूजन (एन्सेफलाइटिस) शरीर संचालक गतिविधि और व्यवहार का बिगडऩा हमेशा घातक होता है। संदर्भ: वेटरनरी माइक्रोबायोलॉजी एंड माइक्रोबियल डिजीज – पि. जे. क्वींन और अन्य, विले ब्लैकवेल प्रकाशन।
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