भारत में जापानीज इन्सेफेलाईटिस के पशुओं और मनुष्यों में प्रभाव एवं रोकथाम
भारत में जापानी मस्तिष्क रोग का प्रकोप सबसे ज्यादा उत्तर प्रदेश में पाया गया है। 1978 से अब तक इस राज्य में 6000 नवजात शिशुओं की मृत्यु हो चुकी है। इस प्रदेश में सबसे बड़ा महामारी का प्रकोप जुलाई 2005 में हुआ था जिसमें करीब 1000 नवजात शिशुओं की मृत्यु हुई थी।
इस साल भी उत्तर प्रदेश के गोरखपुर जिले के बीआरडी मेडिकल अस्पताल में अब तक कुल 325 जाने गई है। इसके अलावा इस साल असम राज्य में कुल 392 मामले इस रोग के पाये गये जिनमें अब तक 53 बच्चों की मृत्यु हुई है। दिबरूगढ़ जिले में अकेले 20 मौते हुई हैं। बिहार राज्य में पटना मेडिकल कॉलेज के अनुसार पिछले तीन महिनों में 151 लोग इस रोग से पीडि़त पाये गये।
बिहार में यह स्थानिक रोग पिछले 20 सालों में प्रदेश के 1000 से अधिक शिशुओं के मौत का कारण सिद्ध हुआ है। माह नवम्बर और दिसम्बर 2016 में पश्चिम बंगाल तथा उड़ीसा के मालकानगिरी में इस बीमारी का प्रकोप पाया गया।
आदिवासी बहुल उड़ीसा के मालकानगिरी जिले में 60 दिनों के अन्दर 295 में से 83 नवजात शिशुओं की मृत्यु हो गई। इस कारण पश्चिम बंगाल सरकार ने जापानी मस्तिष्क रोग आपातकालीन सूचनीय रोगों की श्रेणी में रखा है। वर्ष 2011 में दिल्ली के सरकारी अस्पतालों के बच्चों में इस रोग के लक्षण पाये गये थे। जिसके बाद दिल्ली की राज्य सरकार ने सुअर पालन केन्द्रों को शहरी आबादी से दूर रखने का आदेश दिया।
साल 1999 और 2003 में आन्ध्र्रप्रदेश के 15 जिलों और 2000-2002 में असम के लोग इस महामारी रोग से ग्रसित हुए। भारत में सालाना 35000 से 50000 नवजात शिशु इस बीमारी से ग्रसित होते आ रहे हैं। जिनमें से 30-50 प्रतिशत बच्चे मानसिक बीमारी से ग्रसित हो जाते है। केवल 12.3 प्रतिशत मरीज ही पूरी तरह स्वस्थ हो पाते है। शहरी आबादी की तुलना में ग्रामीण आबादी इस बिमारी से ज्यादा प्रभावित पायी गयी है जिनमें गरीब और वंचित तबका है।
जापानीज इन्सेफेलार्ईटिस या जापानी मस्तिष्क सूजन पशुओं और मनुष्यों में होने वाली बहुत ही घातक बीमारी है। इस बीमारी को मस्तिष्क ज्वर भी कहा जाता है। आज के समय में इस बीमारी का प्रादुर्भाव 14 एशियाई देशों में हो चुका है। यह बीमारी उष्ण कटिबंधीय और शीत कटिबंधीय क्षेत्रों मुख्यत: में पाया गया है। जिनमें भारत भी एक है। भारत के कई राज्य इस बीमारी की चपेट में आ गये है जिनमें उत्तर प्रदेश, बिहार, पश्चिम बंगाल, असम, आन्ध्र प्रदेश, दिल्ली, गोवा, हरियाणा, कर्नाटक, केरल, महाराष्ट्र मणिपुर, नागालैण्ड, पंजाब, तमिलनाडु, उत्तराखण्ड और अरूणाचल प्रदेश हैं। यह विषाणु जनित जूनोटिक विषय से संबंधित रोग है जो कि पशुओं से मनुष्यों में फैल जाता है और मनुष्यों में यह खास कर नवजात शिशुओं के लिए चिन्ता का विषय है। यह बीमारी पशुओं जैसे कि सुअर, घोड़ा और चौपाया एवं नवजात शिशुओं की मृत्यु के मुख्य कारणों में एक है। |
बीमारी का कारण
यह बीमारी मुख्यत: क्युलेक्स मच्छर एवं दुर्लभत: ऐनोफिलीज अनियल और मानसोनिटा मच्छरों द्वारा फैलता है। जापानी मस्तिष्क ज्वर का कारक फ्लेभी वायरस वंश का विषाणु है। जिसमें एकल आर.एन.ए. स्टैण्ड होता है। इस विषाणु का जी.पी. 78 प्रकार भारत में मुख्य रुप पाया जाता है। इस विषाणु को फैलाने वाले मच्छर धान के खेतों में और सूअर फार्मों में पायी जाती है। सूअर और अरडाइड पक्षी विषाणु के मुख्य स्रोत है।
सुअर, घोड़े और मनुष्य इस विषाणु के संक्रमण के प्रति अत्याधिक संवेदनशील है। इनके अलावा मेंढक, सांप, बगुला, चमगादड़ और चौपाया भी इस बीमारी से संक्रमित होते हैं। मनुष्यों से मनुष्यों यह बिमारी क्षणिक विषाणु रक्तता के कारण नहीं फैलता जबकि यह रोग पशुओं से मनुष्यों में एवं मनुष्यों से पशुओं में तेजी से फैलता है।
रोग के लक्षण
यह विषाणु केंद्रीय तंत्रिका तंत्र में जाकर बीमारी का संक्रमण करते है। सूअर के बच्चों में मस्तिष्क ज्वर उच्च मृत्युदर का कारक होता है जबकि वयस्क सुअरों में मृत्युदर न के बराबर होती है। उच्च मृत्युदर सुअरों के बाजार के आर्थिक दर पर बहुत प्रभाव डालती है। इस बीमारी के लक्षण उपनैदानिक होते है। मादा सुअरों में गर्भधान के उपरान्त मृत एवं अविकसित भ्रूण तथा नर सुअरों में शुक्राणु गिनती में कम पाये जाते है। ये विषाणु संक्रमित शुक्राणुओं द्वारा भी फैलते है। मृत भ्रूण सामान्यतया गहरे रंग का होता है साथ ही दिमाग व मेरुदण्डीय के पर्दों में सूजन, पानी आना, रक्त अधिकता और दिमाग की संकुचित विकृति इस बीमारी की प्रमुख व्याधियां है।
घोड़े भी इस बीमारी के लिए अतिसंवेदनशील होते है। मस्तिष्क ज्वर के कारण इनमें मृत्यु दर 2-5 प्रतिशत तक होती है। घोड़ों में बीमारी के लक्षण ज्वर, असामान्य चाल, जड़ता, दाँतों की पिसाई आदि है। अत्यंत गम्भीर परिस्थितियों में अंधापन, कोमा और मृत्यु भी हो सकती है।
मनुष्यों में इस बीमारी के संक्रमण के कारण सिर दर्द, बुखार, पेट की गड़बड़ी, दिमागी संतुलन का बिगड़ जाना जैसे लक्षण एक तिहाई मामलों में देखा गया है। गर्भवती महिलाओं में अकाल प्रसव भी इस बीमारी का एक लक्षण है। नवजात शिशुओं में इस बीमारी के कारण मस्तिष्क ज्वर और असमय मृत्यु हो जाती है। विषाणु इस बीमारी में गर्भ के दौरान अपरा को पार कर भ्रूण को भी संक्रमित करता है। 2-10 साल के मनुष्यों में ज्यादा संक्रमण देखा है। इनमें मृत्यु दर 25-30 प्रतिशत तक अनुमानित है। कम प्रतिरोधक क्षमता वाले शिशुओं के लिए यह रोग बहुत ही घातक है।
निदान एवं बचाव
इस बीमारी के निदान हेतु विभिन्न वैज्ञानिक संस्थाओं में विषाणु का पृथक्करण रक्त के नमूनों, सौपुम्निक द्रव के नमूनों के द्वारा किया जाता है तथा बीमारी अन्तरीय जाँच आधुनिक जांच विधि एच आई, सी.एफ.टी., एलाइसा जाँच विधियों द्वारा की जाती है।
मस्तिष्क ज्वर से बचाव हेतु रोगवाहक मच्छरों का नियंत्रण, प्रमुख बचाव का उपाय है। चौपाया और सूअरों का उचित उच्च अनुपात भी इस बीमारी के रोकथाम में सहायक है। वैज्ञानिकों के अनुसार बीमारी के रोकथाम हेतु सुअरों का पालन मनुष्यों की आबादी से कम से कम 5 किलोमीटर की दूरी पर किया जाना चाहिए। स्थानिक क्षेत्रों में समय- समय पर सूअरों और मनुष्यों को प्रतिरक्षक सुईयां देकर बीमारी की दर को कम किया जा सकता है।
वर्तमान समय में रोग के प्रसार का कारण ग्रामीण तथा आदिवासी बहुल इलाकों में यथोचित प्रतिरक्षक सुईयों का उचित वितरण नहीं होना अनुमानित है। ग्रामीण इलाकों में बेहतर रखरखाव तथा पक्के मकान इस बीमारी के रोकथाम के लिए अत्यंत आवश्यक है।
- डॉ. अर्चना भारती
- डॉ. यामिनी वर्मा
- डॉ मधु स्वामी
- डॉ. अमिता दुबे
- डॉ. मनीष जाटव
व्याधि विज्ञान विभाग, वेटरिनरी कालेज, जबलपुर
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