पशुपालन (Animal Husbandry)

पशुओं के लिए चारा और चरनोई भूमि का संकट !

28 नवंबर 2024, भोपाल: पशुओं के लिए चारा और चरनोई भूमि का संकट ! – कृषि लागत में निरंतर हो रही वृद्धि से लघु और सीमांत किसानों को काफी दिक्कतों का सामना करना पड़ रहा है। ग्रामीण क्षेत्रों में मजदूरों की कमी की समस्या तो कृषि क्षेत्र में भी निरंतर बढ़ रही है लेकिन इस समस्या से सबसे ज्यादा लघु और सीमांत किसान ही प्रभावित हो रहे हैं। कृषि में मशीनीकरण की बढ़ती प्रवृत्ति के कारण अब किसानों ने बैल पालना तो लगभग बंद ही कर दिया है। दुधारू पशुओं की संख्या भी कम हो रही है। हालांकि देश में दूध का उत्पादन बढ़ रहा है लेकिन उत्पादन और खपत के बीच का अंतर यही दर्शाता है कि इस अंतर की पूर्ति मिलावट और नकली दूध से हो रही है।

बैलों और दुधारू पशुओं की संख्या कम होने का मुख्य कारण पशुओं को दी जाने वाली खुराक यानी भूसा, चारा, खली आदि की कीमतों में वृद्धि होना तो है ही, इससे भी बड़ा कारण यह है कि किसान भी अपने स्तर पर इनकी व्यवस्था करने में असमर्थता महसूस कर रहे हैं। ग्रामीण क्षेत्रों में कृषि भूमि की लगातार हो रही कमी के कारण अब पशुओं को चराने के लिये उपयोग में लाई जाने वाली जमीन / बंजर भूमि / चरनोई भूमि को अब कृषि भूमि में बदल दिया गया है। इस कारण किसान यदि पशुओं को पाल भी ले तो पशुओं को चराने के लिए चारा आदि की व्यवस्था करना काफी महंगा हो गया है। चरनोई भूमि की कमी होने से किसानों के सामने केवल यही विकल्प बचता है कि वह केवल अपनी जरूरत के हिसाब से ही केवल दो-तीन दुधारू पशु पाल लें।

जब खेती में मशीनों का उपयोग नहीं अथवा कम होता था, तब किसान एक-दो जोड़ी बैल और कुछ गाय – भैंस जरूर पालते थे। फसलों की कटाई के बाद गहाई / थ्रेसिंग के बाद काफी मात्रा में भूसा बच जाता था। लेकिन जब से हार्वेस्टिंग मशीनों का उपयोग होने लगा है, बड़े किसान भी भूसा की कमी से जूझ रहे हैं। चरनोई भूमि का उपयोग कृषि में होने से पशुओं के लिये चारा की समस्या उत्पन्न हो गई है। बदलती जीवन शैली के साथ किसानों की जरूरतें भी बढ़ गई हैं। ऐसी स्थिति में आय में वृद्धि के लिये प्राय: अधिकांश किसानों ने चरनोई भूमि को कृषि भूमि में बदल दिया है। पीढ़ी – दर पीढ़ी बंटवारे से भी कृषि भूमि का रकबा कम होने से चरनोई भूमि लगातार कम हो रही है। अब किसानों के सामने कृषि भूमि को बचाए रख पाना एक बड़ी चुनौती और समस्या है। यदि यही हाल रहा तो कुछ वर्षों में स्थिति और भयावह हो सकती है।

पशुओं के लिये चारा और चरनोई भूमि की व्यवस्था तो किसानों को ही करनी होगी। चरनोई भूमि की व्यवस्था कर पाने में असमर्थ हैं तो गेहूं, चना, सोयाबीन, उड़द आदि फसलों से निकलने वाले भूसे को नष्ट होने से बचाने के अलावा और कोई विकल्प नहीं बचता है। हार्वेस्टर मशीन से गहाई करते समय भूसा को खेतों में व्यर्थ फैलाने से बचाने का कार्य प्राथमिकता से करना होगा। हार्वेस्टिंग मशीनों में भूसा इक_ा करने की व्यवस्था तो है लेकिन इस पर सख्ती से अमल नहीं किया जा रहा है। मजदूरों की कमी भी किसानों की एक बड़ी समस्या है और इसी कारण खेती में मशीनों का उपयोग बढ़ रहा है। ऐसी स्थिति में कृषि से सम्बद्ध सभी विभागों को किसानों के साथ मिलकर कोई ऐसा सर्वमान्य हल खोजना होगा जिससे किसानों पर आर्थिक बोझ भी न पड़े और उनके पशुओं के लिये चारा की पर्याप्त व्यवस्था हो जाए। गांवों में जहां सरकारी जमीन है, उसे चरनोई के रूप में चिन्हित किया जा सकता है। ऐसी अनेक वनस्पतियां हैं जिनका उपयोग पशुओं के चारे के रूप में किया जा सकता है। ऐसे पेड़ मेड़ों पर लगाये जा सकते हैं। इसी तरह अनेक विकल्प हैं लेकिन जानकारी के अभाव में किसान इनका उपयोग नहीं कर पा रहे हैं। अब सरकार की जिम्मेदारी है कि वह पशुओं के लिए चारा प्रबंधन के क्षेत्र में भी अनुसंधान को बढ़ावा दे ताकि चारा की समस्या को गम्भीर होने से पहले ही हल कर लिया जाए वरना पशुओं की संख्या निरंतर कम होते जायेगी जिससे कृषि और पशुओं का संतुलन बिगडऩे से उत्पन्न समस्या का कोई समाधान नहीं होगा।

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