State News (राज्य कृषि समाचार)

अरहर उत्पादन में आत्मनिर्भर बनने की चुनौती

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  • मधुकर पवार, मो. : 8770218785

31 मई 2023, भोपाल । अरहर उत्पादन में आत्मनिर्भर बनने की चुनौती – एक आम भारतीय परिवार में अरहर, मूंग, चना, उड़द आदि दालें रसोई में रहती हैं लेकिन सबसे ज्यादा पसंद की जाने वाली दाल अरहर है। सम्पूर्ण भारत में अरहर की दाल की ही सबसे ज्यादा खपत होती है। स्वाद और स्वास्थ्य की दृष्टि से बेहद फायदेमंद अरहर के उत्पादन और खपत के मामले में भारत दुनिया के सभी देशों में अव्वल है। विश्व के कुल क्षेत्रफल में भारत की भागीदारी करीब 80 प्रतिशत और उत्पादन में करीब 67 प्रतिशत है।

देश में दलहन की खपत लगभग 270 लाख मीट्रिक टन

पिछले वर्ष 2021-22 में देश में अरहर का उत्पादन करीब 42.20 लाख मीट्रिक टन हुआ था जबकि 2020-21 में 43.20 लाख मीट्रिक टन उत्पादन हुआ था। राष्ट्रीय दलहन अनुसंधान संस्थान के खरीफ दलहन के परियोजना समन्वयक डॉ. आदित्य प्रताप गर्ग ने बताया कि इस वर्ष अनियमित बारिश के कारण अरहर के उत्पादन में कमी आने की सम्भावना है। वर्ष 2022-23 में करीब 45 लाख हेक्टेयर क्षेत्र में अरहर की फसल बोवनी की गई थी तथा करीब 36.60 लाख मीट्रिक टन उत्पादन होने का अनुमान है। अरहर की दाल के उत्पादन प्रति हेक्टेयर 820 किलोग्राम होने का अनुमान है जबकि वर्ष 2021-22 में यह 880 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर था। डॉ. गर्ग ने बताया कि भारत में प्रतिवर्ष करीब 50 लाख मीट्रिक टन अरहर की दाल की खपत होती है। उत्पादन और मांग में करीब दस लाख मीट्रिक टन दाल का आयात करना पड़ता है। हालांकि उन्होने स्पष्ट किया कि अरहर, मूंग, चना सहित दलहन के उत्पादन में भारत लगभग आत्मनिर्भर की स्थिति में आ गया है। देश में दलहन की कुल खपत लगभग 270 लाख मीट्रिक टन है जबकि उत्पादन 260 लाख टन के आसपास हो गया है। डॉ. गर्ग ने उम्मीद जताई है कि वर्तमान परिस्थितियों के मद्देनजर आगामी खरीफ के मौसम में अरहर का रकबा जरूर बढ़ेगा। मौसन विभाग का अनुमान है कि इस वर्ष मानसून सामान्य रहेगा। इससे अरहर और अन्य दलहन का उत्पादन भी आशानुरूप होने की सम्भावना है।

अरहर का समर्थन मूल्य बढ़े

उत्पादन में कमी के चलते विदेशों से अरहर की दाल के आयात में भी वृद्धि हुई है। पिछले वर्ष 2022 में करीब 4.5 लाख टन दाल का आयात किया गया था जबकि इस वर्ष 10 लाख टन अरहर की दाल का आयात करने की सम्भावना है। चूंकि पिछले डेढ़-दो माह में अरहर की दाल की कीमत में काफी उछाल आया है और इसकी कीमत सवा सौ रूपये प्रति किलोग्राम से अधिक हो गई है। इस वर्ष अनेक राज्यों में विधानसभा और अगले वर्ष 2024 के अप्रैल-मई में लोकसभा के चुनाव के मद्देनजर सरकार के सामने अरहर की दाल की कीमत को कम करने का दबाव तो अवश्य रहेगा। इसी के कारण विदेशों से दाल का आयात किया जा रहा है ताकि देशवासियों को कम दाम में दाल की उपलब्धता सुनिश्चित हो सके। हालांकि न्यूनतम समर्थन मूल्य की सूची में अरहर भी शामिल है और केंद्र सरकार ने अरहर का समर्थन मूल्य 6600 रूपये प्रति क्विंटल घोषित किया है। बाजार में अरहर के मूल्य को दृष्टिगत रखते हुये न्यूनतम समर्थन मूल्य काफी कम है। यदि सरकार न्यूनतम समर्थन मूल्य को बाजार मूल्य के समकक्ष रखे तो निश्चित ही किसान अरहर की खेती करने के लिये प्रोत्साहित होंगे।

दाल उत्पादन को बढ़ावा देने की जरूरत

देश में अरहर का उत्पादन विश्व में सबसे अधिक होने के बावजूद आयात से मांग को पूरी करने का एकमात्र विकल्प है। एक यक्ष प्रश्न यह भी है कि जब सभी क्षेत्रों में आत्मनिर्भर भारत का नारा जोर शोर से गूंज रहा है तब भारतीयों की थाली का एक जरूरी व्यंजन अरहर की दाल को आयात करने के बजाय देश में ही पर्याप्त मात्रा में उत्पादन करने की कार्ययोजना क्यों नहीं बनाई जा रही है ताकि किसानों को उपज का उचित मूल्य मिल सके और उपभोक्ताओं की जेब पर भी आर्थिक बोझ न पड़े। इसके लिये दो ही विकल्प हैं…. पहला विकल्प देश में ही मांग के अनुरूप अरहर की दाल का उत्पादन हो और दूसरा विकल्प है… मांग की पूर्ति के लिये आयात किया जाये। आयातित दाल से कीमतें स्थिर तो रखी जा सकती हैं लेकिन दाल उत्पादक किसानों को इसका फायदा शायद ही मिल सकेगा। इसलिये देश में ही दाल के उत्पादन को बढ़ावा देने की जरूरत है जिससे दाल आयात नहीं करना पड़े।

भारत में अरहर के प्रमुख उत्पादक राज्यों में महाराष्ट्र, कर्नाटक, मध्यप्रदेश, गुजरात, उत्तरप्रदेश, बिहार, तमिलनाडु और आंध्रप्रदेश शामिल हैं। अरहर की फसल अलग – किस्म के अनुसार 130 से 280 दिनों में पककर तैयार होती है। अन्य फसलों की तुलना में पकने में अधिक समय लेने के कारण भी सम्भवत: किसान अरहर की पैदावार करने में कम रूचि लेने लगे हों। देश में सोयाबीन का बढ़ता रकबा भी अरहर सहित अन्य दलहन फसलों का रकबा को कम होने का एक प्रमुख कारण है। भारतीय सोयाबीन अनुसंधान संस्थान के मुताबिक, 1970-71 में भारत में सोयाबीन का रकबा 32 हजार हेक्टेयर था जो 2020-21 में बढक़र 1.29 करोड़ हेक्टेयर हो गया है। इसी तरह सोयाबीन का उत्पादन भी 1960 में 14 हजार टन व उपज 426 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर थी जो 2020-21 में बढक़र 1.37 करोड़ मीट्रिक टन और उपज 1,056 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर हो चुकी है।

मध्यप्रदेश में अरहर का रकबा कम

मध्यप्रदेश में भी अरहर की फसल का रकबा कम हो गया है और सोयाबीन का बढ़ गया है। इस कारण अरहर का उत्पादन काफी कम हो गया है। हालांकि मध्यप्रदेश अरहर के उत्पादन में महाराष्ट्र और कर्नाटक के बाद देश में तीसरे स्थान पर है। जो किसान पहले अरहर की खेती करते थे, वे अब अरहर के स्थान पर सोयाबीन की फसल लेने लगे हैं। मध्यप्रदेश के कृषि विभाग का मानना है कि अरहर की फसल का क्षेत्र उपजाऊ समतल जमीन से हल्की ढालू, कम उपजाऊ जमीन पर स्थानांतरित हो रहा है जिससे उत्पादन में भारी कमी हो रही है। लेकिन अरहर की दाल के बढ़ते दाम के कारण फिर से मध्यप्रदेश के किसानों का रूझान अरहर की खेती की ओर बढ़ रहा है। यह एक शुभ संकेत है। प्रदेश में इस समय लगभग 5.3 लाख हेक्टर क्षेत्रफल में अरहर की खेती की जाती है तथा औसत उत्पादन करीब 530 किलो प्रति हेक्टर है जबकि राष्ट्रीय औसत उत्पादन 800 किलोग्राम से अधिक है।

अरहर सहित अन्य दालों (चना को छोडक़र) के उत्पादन में आत्मनिर्भरता के लिये प्रयास किये जा रहे हैं। हालांकि कई वर्षो के बाद 2015 से दालों के उत्पादन, क्षेत्र और उपज में वृद्धि दर्ज की गई है लेकिन मांग और उत्पादन में करीब 7-8 लाख मीट्रिक टन का अंतर बना हुआ है। किसान खरीफ में अरहर के साथ सोयाबीन की फसल लेने लगे हैं। पहले अरहर के साथ उड़द की फसल भी लेते रहे हैं। सोयाबीन के कारण अरहर के साथ उड़द की दाल के उत्पादन पर भी असर पड़ा है।

एमएसपी और बाजार मूल्य में अंतर

अरहर का उत्पादन बढ़ाने के लिये किसानों को प्रेरित करने की जरूरत है। अरहर का उत्पादन काफी कम है और फसल की समयावधि अन्य दलहनी फसलों से काफी अधिक। इसलिये कम अवधि और अधिक उत्पादन देने वाली अरहर की उन्नत किस्में विकसित करने के लिये प्रयास करने होंगे। साथ ही अरहर का न्यूनतम समर्थन मूल्य और बाजार मूल्य में भी काफी अंतर है। जिस तरह गेहूं का बाजार मूल्य और समर्थन मूल्य में अरहर जैसा अंतर दिखाई नहीं देता है जिसके कारण किसान गेहूं को समर्थन मूल्य पर भी बेचते हैं। इसी तरह अरहर और अन्य अन्य दलहनी फसलों के न्यूनतम समर्थन मूल्य में भी समुचित वृद्धि की जानी चाहिये। आयात की जाने वाली और घरेलू बाजार में अरहर के मूल्य का अंतर देश के किसानों को दिया जाये तो किसान अरहर का उत्पादन करने के लिये प्रेरित हो सकेंगे।

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