राज्य कृषि समाचार (State News)

लोकमाता अहिल्याबाई: समाज, संस्कृति, स्वाभिमान और राष्ट्र को समर्पित जीवन

लेखक: रमेश शर्मा, लेखक एवं वरिष्ठ पत्रकार

24 जनवरी 2025, नई दिल्ली: लोकमाता अहिल्याबाई: समाज, संस्कृति, स्वाभिमान और राष्ट्र को समर्पित जीवन – संसार में जन्में अधिकांश लोगों का जीवन केवल अपने लिये या अपने परिवार के हितों तक सीमित रहता है। किंतु कुछ ऐसी विभूतियाँ संसार में आतीं हैं जो पूरे समाज, संसार और संस्कृति के लिये जीते हैं। पुण्यश्लोका देवी अहिल्याबाई ऐसी ही विलक्षण विभूति थीं। जो पूरे भारत राष्ट्र, समाज और संस्कृति के लिये समर्पित रहीं। वे एक छोटे से राज्य इंदौर की शासक थीं पर उनके हृदय में पूरा भारत राष्ट्र समाया था। उनका व्यक्तिगत जीवन साध्वी की भाँति शांत और सरल था। किन्तु प्रशासनिक निर्णयों में वह बहुत दृढ़ और संकल्पवान शासक थीं। उन्होने पहले अराजकता और अपराध से मुक्त करके अपने राज्य को समृद्ध, सुदृढ़ और सुरक्षित बनाया फिर पूरे भारत राष्ट्र में सांस्कृतिक पुनर्जागरण अभियान चलाया।

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पुण्यश्लोका देवी अहिल्याबाई का जन्म अहमदनगर जिला अंतर्गत कस्बा जामखेड़ के ग्राम चाँडी में 31 मई 1725 को हुआ था। उनके पिता मनकोजीराव शिन्दे मराठा सेना में थे। मनकोजी राव के भाई भी मराठा सेना में थे। माता सुशीलाबाई की जीवनशैली भारतीय परंपरा और संस्कारों में रची बसी थी। सुशीला बाई अपने परिवार के समन्वय के साथ गाँव की आत्मरक्षा का भी समन्वय करती थीं। परिवार व्यवस्था के साथ नियमित मंदिर जाना और प्रवचन सुनना उनकी नियमित दिनचर्या थी। उनकी स्मरण शक्ति अद्भुत थी। एक बार सुनकर कभी न भूलतीं थीं। उन्हें अनेक पुराण, कथाएँ और भजन कंठस्थ हो गये थे। गाँव में आचार्य शिवले से उन्होंने मराठी की शिक्षा ली।
अहिल्याबाई जब आठ वर्ष की थीं तभी मालवा क्षेत्र के सूबेदार और सेनानायक मल्हारराव होल्कर ने उन्हे अपनी पुत्रवधु के रूप में पसंद कर लिया था। मल्हारराव जी युद्ध अभियान के लिये दक्षिण भारत जा रहे थे। मार्ग में विश्राम के लिये चाँडी गाँव के मंदिर में रुके। उन्होंने मंदिर में एक बालिका को अन्य समवयस्क बालिकाओं से समन्वय बनाकर गरीबों को भोजन वितरित करते देखा। फिर बालिका ने मधुर कंठ से भजन गाया। मल्हारराव जी ने बालिका का परिचय जाना और पिता मनकोजी राव को बुलाकर अपने बेटे खाँडेराव होल्कर से विवाह का प्रस्ताव रखा। वर्ष 1733 में विवाह हो गया। आयु छोटी होने के कारण चार वर्ष तक मायके में रहीं। 1737 में गौना हुआ और राजवधु बनकर इंदौर आईं। उन्हें अपनी ससुराल इंदौर में विशाल कुटुम्ब मिला। कुटुम्ब परंपरा मायके में भी थी। पर यह परिवार कई गुना विशाल था। मल्हारराव जी होल्कर की चार पत्नियाँ थीं सब साथ रहते थे। परिवार में अन्य कुटुम्ब जन भी थे। अहिल्याबाई के मधुर कंठ की विशेषता से सब परिचित हो गये थे । इसलिए उन्हें महल में प्रतिदिन भजन और आरती के समन्वय करने का दायित्व मिला। उनके मधुर कंठ, पूजन में तन्मयता ने सबका मन मोह लिया। वे पूरे परिवार में आकर्षण और स्नेह का केन्द्र बनीं। उनकी विशेषताओं को देखकर ही मल्हारराव जी ने परिवार की आंतरिक व्यवस्था के समन्वय का काम उन्हें सौंपा। 1745 में पुत्र को जन्म दिया। पुत्र का नाम मालेराव रखा गया। 1748 में पुत्री मुक्ता बाई को जन्म दिया। उनका जीवन बहुत आनंदमय वातावरण में आगे बढ़ रहा कि बज्रपात हो गया। 24 मार्च 1754 में कुंभेर युद्ध में खाँडेराव जी की मृत्यु हो गई। तब अहिल्याबाई की आयु केवल 29 वर्ष थी। वे पति की चिता के साथ सती होना चाहती थीं। पर मल्हारराव जी ने बच्चों का वास्ता देकर रोक लिया। मल्हारराव जी अधिकांश समय युद्धों में ही बीता। उन्होंने अहिल्याबाई को राज काज में सहभागी बनाया। समय के साथ अहिल्याबाई का दर्द भरने लगा वे राजकाज में श्वसुर मल्हारराव का हाथ बँटाने लगी। 23 मार्च 1766 को मल्हारराव जी का निधन हो गया। तब देवी अहिल्याबाई के पुत्र मालेराव सिंहासन पर बैठे। लेकिन मालेराव कुछ माह ही शासन कर सके और 5 अप्रैल 1767 को उनका भी निधन हो गया। अतंतः दिसम्बर 1767 में अहिल्याबाई ने सिंहासन संभाला। उन्होंने अपनी बेटी मुक्ताबाई के विवाह के लिए कोई कुल कुटुम्ब नहीं योग्यता की तलाश की। उन्होंने घोषणा की कि जो भी राज्य की सुरक्षा व्यवस्था सुधार देगा उससे बेटी की शादी कर देगी। दरअसल उन दिनों पूरे भारत में अराजकता का वातावरण था। मुगल सल्तनत कमजोर हो गई थी। रुहेले, पिण्डारी, पठान आदि दल यहाँ वहाँ घूमकर लूट और उत्पात मचाने लगे। अहिल्याबाई ने सबसे पहले घुमन्तु समाज और वनवासी योद्धाओं को कृषि भूमि देकर सीमावर्ती गाँवों में बसाया। इस काम का समन्वय नायक फणसे ने किया । इससे दो लाभ हुये । एक तो बाहरी लुटेरों पर अंकुश लगा और रोटी रोजगार के लिये भटकते लोगों को कृषि का काम मिला । इससे उत्पादन बढ़ा और राज्य की समृद्धि बढ़ी। इस सफलता के बाद अहिल्याबाई ने अपनी बेटी मुक्ताबाई का विवाह फणसे जी से कर दिया ।

राज्य को शांत और सुरक्षित बनाकर अहिल्याबाई ने महेश्वर की नींव रखी। उन्होंने पर्यावरण सुरक्षा का भी ध्यान रखा। उन्होंने पत्थर पहाड से नहीं काटे, नर्मदा अँचल से पत्थर एकत्र किये और नर्मदा अँचल का ऐसा क्षेत्र चुना जहाँ नगर बसाने के लिये जंगल न काटना पड़े। इसके साथ उन्होंने महेश्वर साड़ी उद्योग की नींव रखी। महेश्वर निर्माण के लिये उन्होंने श्रमिकों को परिवार सहित बुलाया। सबको उनकी रुचि का काम दिया। उनके द्वारा कुटीर उद्योग की नींव के कारण ही आज इंदौर मध्यप्रदेश का प्रमुख औद्योगिक नगर है। उन्होंने कपास की खेती को प्रोत्साहित किया। संसार में जो ढाका की मलमल प्रसिद्ध थी उसके निर्माण के लिये कपास इंदौर क्षेत्र से ही जाता था।

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अहिल्याबाई के शासन के दो ही लक्ष्य थे । पहला लक्ष्य अपने इंदौर राज्य को समृद्ध और सुरक्षित बनाना। कृषि, कुटीर हस्त कला उद्योग आदि के विकास के साथ उन्होंने शिक्षा व्यवस्था पर भी जोर दिया। काशी से संस्कृत विद्वान और पुणे से मराठी के विद्वान बुलाये। वे अपने राज्य में महिलाओं को आत्मनिर्भर और स्वाभिमान संपन्न जीवन का वातावरण देना चाहतीं थीं। उन्होने महिला अधिकार संरक्षण के लिये कानून में परिवर्तन किये। इसकी चर्चा पूरे भारत में हुई।

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उनका दूसरा उद्देश्य पूरे राष्ट्र में सांस्कृतिक पुनर्जागरण करना था। उन्होंने पूरे भारत के भग्न मंदिरों का जीर्णोद्धार कराया, अनेक नये मंदिर भी बनवाये। मंदिरों में प्रवचन कक्ष और संत निवास बनवाये। वे मानतीं थीं कि भारत में व्यक्तित्व निर्माण अपनी सांस्कृतिक जड़ों से जुड़कर ही हो सकता है इसलिये मंदिरों में प्रवचन, कला विकास और विद्यालय स्थापना पर जोर देतीं थीं। वे भेदभाव रहित समरस समाज की पक्षधर थीं। वे योग्यता को महत्व देती थीं। अपनी बेटी के वर के लिये उन्होने कोई जाति या वर्ग नहीं देखा बल्कि योग्यता को महत्व दिया। इसी प्रकार वे राष्ट्र और संस्कृति को वे क्षेत्र की सीमाओं से ऊपर मानती थीं। वे कहतीं थीं कि “समस्त भारतीय जन एक हैं, यह विचार कि हमारा राज्य बड़ा है और उनका छोटा, हम महान हैं, और वे जंगली, इस प्रकार भेदभाव एक विष के समान हैं जो एक दिन हम सबको नरक में धकेलेगा”।

उनका व्यक्तित्व वास्तव में उस भारतीय चिंतन दर्शन का प्रमाणीकरण है जो परिवार में संस्कार, परिवार के सामूहिक स्वरूप, भोजन, वस्त्र, भवन और सत्संग की महत्ता पर जोर देता है। अहिल्याबाई के परिवार की प्राथमिकता में भारतीय चिंतन की यही धाराएँ रहीं हैं। और यही देवी अहिल्याबाई के व्यक्तित्व का आधार है जो मानों बिन्दु से विराट बना।

वे कभी विषमता में भी विचलित नहीं होती थीं। अपितु विषमता को शक्ति बनाकर आगे बढ़ती रहीं है। कोई कल्पना कर सकता है उस नारी के दुख की। जिसने पहले पति की मौत देखी, फिर पुत्र की, फिर दौहित्र की और फिर बेटी दामाद की। उनके सभी स्वजन एक एक करके विदा हुये पर मानो वे अपनी भावनाओं को पत्थर बनाकर समाज संस्कृति और राष्ट्र की सेवा में समर्पित रहीं।
कुटुम्ब समन्वय, पर्यावरण संरक्षण, आत्मनिर्भरता, भारत के मानविन्दुओं और सांस्कृतिक स्थलों की पुनर्प्रतिष्ठा के साथ नारी शिक्षा और नारी सम्मान के भी कदम उठाये। उनकी निजी सुरक्षा में नारी टुकड़ी ही तैनात रहती थी। अहिल्याबाई ने महिलाओं की एक सैन्य ब्रिगेड भी बनाई जिसमें पाँच सौ महिलाएँ थीं। सल्तनतकाल में महिलाओं को संपत्ति के अधिकार नहीं थे। अहिल्याबाई ने पति या पुत्र की मृत्यू के बाद महिलाओं को भी संपत्ति के अधिकार दिये।

1791 में दामाद यशवंत राव फड़से का निधन हुआ और बेटी मुक्ताबाई पति की चिता पर सती हो गईं। इस घटना ने उन्हे बहुत मानसिक आघात दिया। वे अस्वस्थ्य रहने लगीं। अस्वस्थता के दिनों में भी वे हर काम समय पर करतीं थीं। अंततः महान कर्मयोगी लोकमाता देवि अहिल्याबाई ने 13 अगस्त 1795 को संसार से विदा ली। अंतिम क्षण में भी उनके हाथ में शिव स्मरण की माला थी। उनके निधन के बाद महाराजा तुकोजी राव ने राज्य की शासन व्यवस्था को संभाला।

आज भारत राष्ट्र एक वैचारिक संक्रमण काल से गुजर रहा है। यह ठीक वैसी ही परिस्थिति है जैसी देवि अहिल्याबाई के समय थी। आज के भारत को भी उस समय के संक्रमण काल से अलग नहीं समझा जा सकता। अंतर इतना है कि तब सामाजिक और राजनीतिक उथल-पुथल थी। तब सशस्त्र लुटेरे घूम रहे थे और शांति प्रिय नागरिक प्रताड़ित हो रहे थे। और इस समय वैचारिक उथल-पुथल चल रही है। कुछ शक्तियाँ हैं जो भारत के आंतरिक वातावरण में वैचारिक, सामाजिक और राष्ट्रीय स्वरूप को संक्रमित करने का कुचक्र कर रहे हैं। ऐसे में शक्ति, संगठन और युक्ति के साथ सामना करना होगा।

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अहिल्याबाई युद्ध की पक्षधर नहीं थीं। उन्होंने किसी पर आक्रमण नहीं किया। फिर भी अपनी सेना का पुनर्गठन किया और विस्तार किया। वे कहतीं थीं कि सेना और शक्ति शांति के लिये भी आवश्यक है। तब के वातावरण के लिये मानसिक शक्ति के साथ सैन्य शक्ति की भी आवश्यकता थी। इस समय भारतीय मन मानस पर चारों ओर से वैचारिक दबाब बढ़ रहा है । ऐसे में मानसिक और वैचारिक रूप से सुदृढ होने की आवश्यकता है इसी का संदेश देवी अहिल्याबाई के जीवन से मिलता है।

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