State News (राज्य कृषि समाचार)Editorial (संपादकीय)

आमदनी दुगनी के बजाए, आधी रह गई

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मुश्किल में है काश्तकार…

  • विनोद के. शाह
    मो. : 9425640778
    Shahvinod69@gmail.com

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1 नवम्बर 2022, भोपालआमदनी दुगनी के बजाए, आधी रह गई – केन्द्र सरकार ने वर्ष 2022 तक किसानों की आय को दुगना करने का लक्ष्य रखा है। वर्ष 2022 को गुजरने में अब मात्र दो माह का समय शेष है। हालांकि सरकार ने इस लक्ष्य की प्राप्ति हेतु 2015-16 को आधार वर्ष माना है, जहां किसान की औसत वार्षिक आय रुपये 93216 आंकलित की गई थी। बेशक गत छ: वर्षों में फसलों के न्यूनतम समर्थन मूल्य में पूर्व की अपेक्षा भारी वृद्धि हुई है। कृषि बजट में वृद्धि की गई जो अब 1.23 लाख करोड़ रुपये का है। कृषि में निवेश को भी बढ़ाया गया है। लेकिन इन सब के बावजूद खेती में काम आने वाले आदान बीज-उर्वरक, कीटनााशक, डीजल सहित खेती में काम करने वाले मजदूरों की मजदूरी भी इन छ: वर्षों में दुगने का आंकड़ा पार कर चुकी है। लागत के इस परिश्रम में किसान ने सरकार से मिलने वाली सम्मान निधि को भी खपा दिया है। लेकिन उसके हाथ पहले से ज्यादा खाली हैं।

चालू एवं आगामी माह देश के किसानों के लिये रबी फसलों की बुवाई का समय है। लेकिन किसानों के पास अच्छी गुणवत्ता के बीज नहीं है। अधिकांश राज्य सरकारों के पास अभी तक पर्याप्त मात्रा में उर्वरक उपलब्ध नहीं है। यूरिया की उपयोगिता को कम करने के लिये इसके उत्पादन एवं आयात को कम किया जा रहा है लेकिन इसके बेहतर विकल्प एवं किसानों को इसके उपयोग के प्रति सचेत करने में सरकारी प्रयास अधूरे हैं। जिससे खुले बाजार में यूरिया की न केवल कालाबजारी बड़ी है अपितु नकली उत्पादों की बिक्री भी बढ़ रही है। खरीफ फसलों में देश के किसानों का रुझान धान की फसल की तरफ तेजी से बढ़ा है। इसकी वजह सोयाबीन जैसी तिलहनी एवं अरहर, मूंग, उड़द जैसी दलहनी फसलों में लागत की अधिकता एवं अनिश्चिता से लगातार नुकसान हो रहा है। इसके विपरीत धान पर मौसमी एवं कीट प्रकोप की न्यूनतम संभावनाओं एवं निर्यात मांग से किसानों को अच्छे मूल्य मिलने के कारण धान के रकबे में विगत तीन वर्षों में न केवल वृद्धि हुई बल्कि किसान निश्चिंतता एवं लाभ की तरफ बढ़ रहा है।

सरकार की उलट नीतियां

लेकिन एक बार फिर सरकार की नीतियां अब धान उत्पादक किसानों को विचलित कर रही है। वर्ष 2019-20 के मुकाबले वर्ष 2021-22 में भारत के गैर बासमती चावल के निर्यात में 11.17 फीसदी एवं बासमती चावल के निर्यात में 19.69 फीसदी की गिरावट दर्ज हुई है। निर्यात में कमी की वजह सरकार की नीतियां एवं प्रशासनिक लापरवाही रही है। मार्च-अप्रैल 2022 में वाणिज्य मंत्रालय सिर्फ गेहूं के निर्यात पर एक तरफा ध्यान लगाये हुआ था। बंदरगाहों पर चावल उतारने का स्थान उपलब्ध नहीं था। कंटेनर नहीं थे। बाद में सरकार द्वारा गेहूं के निर्यात को प्रतिबंधित किया गया लेकिन तब तक व्यापारियों के चावल निर्यात के करार की समय सीमा खत्म हो गई थी। गत वर्ष की तुलना में तिलहन की बोनी एक लाख हेक्टेयर क्षेत्र में कम हुई है। दलहन की बुवाई में सात लाख हेक्टेयर क्षेत्रफल की कमी आयी है। दूसरी तरफ कटाई समय दौरान बंगाल की खाड़ी में कम दबाव के क्षेत्र के कारण दलहन एवं तिलहन की फसलें बर्बाद हो चुकी हैं।

घटता सोयाबीन उत्पादन

सर्वाधिक सोयाबीन उत्पादक राज्य मध्यप्रदेश एवं राजस्थान में सोयाबीन की खेती बहुत अधिक लागत पर पर्याप्त उत्पादन न देने वाली फसल बन चुकी है। मप्र में सोयाबीन प्लॉटों पर अन्य राज्यों की तुलना में टैक्स अधिक है। धीरे-धीरे राज्य से सोयाबीन प्लॉट खत्म होते जा रहे हैं। राज्य के व्यापारी वर्षों से टैक्स कम करने की मांग करते आ रहे हैं। लेकिन राज्य सरकार ने इसे गंभीरता से लेने की कोशिश ही नहीं की, परिणामस्वरुप मंडियों से सोयाबीन व्यापारियों के कम होने से किसानों के भावों पर विपरीत प्रभाव पडऩे लगा है। राज्य के किसानों को गुणवत्तापूर्ण बीज न मिलने से,किसान अधिकतम उत्पादन लेने में हमेशा पिछड़ता रहा है। दूसरे देशों में जहां प्रतिवर्ष औसत उत्पादन बढ़ रहा है तो हमारा किसान सोयाबीन की बिगड़ी फसलें देखकर आत्मघात जैसे कदम भी उठा रहा है। इन्ही कारणों से गत वर्ष की तुलना में चालू वर्ष देश में सोयाबीन की बुवाई 1.5 लाख हेक्टेयर क्षेत्र में कम हुई है।

दलहन- तिलहन आयात

गुजरात में भी मंूगफली का रकबा घटा है। देश की पंूजी का बड़ा हिस्सा दलहन एवं तिलहन के आयात पर खर्च हो रहा है। सरकार का अब पूरा ध्यान आगामी समय की महंगाई रोकने, तिलहन एवं दलहन के आयात पर टिक गया है। लेकिन परंपरागत फसलों के विकल्प देने, मौसम की मार सहन करने वाले बीजों को विकसित करने हमारे अनुसंधान केन्द्र बहुत अधिक पिछड़े हैं। धान में अधिक पानी की रोपण वाली धान के बजाय मशीन से बुवाई की जानी वाली कम पानी की फसलें अच्छे परिणाम दे रही है। लेकिन उन पर अधिकाधिक अनुसंधान, किसानों के मध्य प्रचारित करने एवं किसानों को फसल लेने की आधुनिक तकनीक किसानों तक नहीं पहुंच पा रही है। देश का किसान अंधानुकरण के कारण मात्र विक्रेता एवं निर्माता कम्पनी के कहने पर अनावश्यक मात्रा के महंगे एवं गुणवत्ताहीन खरपतवारनाशक एवं कीटनाशकों का अंधाधुंध प्रयोग का रहा है। बीज एवं उर्वरकों की उचित मात्रा का सटीक ज्ञान देश के 14 करोड़ किसानों के पास अब भी नहीं है। लेकिन केन्द्र सहित राज्य सरकारें इन व्यवस्थाओं पर अपने संसाधन खर्च नहीं कर पा रही है।

खाली पड़े कृषि विभाग

अधिकांश राज्यों में कृषि विभाग में 20 से लेकर 60 फीसदी तक कृषि कर्मचारियों के पद खाली हैं। कृषि सेवाएं अनुबंधित कर्मचारियों के मदद से दी जा रही है। राज्यों के कृषि महाविद्यालयों एवं विश्वविद्यालयों में अस्थायी प्राध्यापकों एवं वैज्ञानिकों की नियुक्तियां की जा रही हैं। इन हालातों में कृषि की चिंता, नवीन कृषि खोजें मात्र कभी पूरी न होने वाली कल्पनाएं साबित होने लगी हंै। कृषि मंत्रालय के अनुमानित आंकड़ें धान के उत्पादन में पचास लाख टन की अनुमानित कमी मान रहे हंै। जबकि सोयाबीन का उत्पादन गत वर्ष की तुलना में 5 फीसदी की कमी मानी जा रही है। धान उत्पादन अनुमानित पूर्व अनुमान के आधार पर केन्द्र सरकार ने चावल के निर्यात पर रोक लगाने के साथ चावल की चूरी पर 20 फीसदी का शुल्क लागू किया है। इस नये नवेले कर की घोषणा से देश के चावल चूरी के भावों में भारी कमी दिखाई दे रही है। देश में चावल चूरी की खपत बहुत कम होती है। चीन, बांग्लादेश इस चूरी चावल का उपयोग पशु आहार, नूडल्स एवं शराब बनाने में करते हंै। सस्ता होने के कारण गरीब देश में निरंतर टुकड़ी चावल की मांग बनी रहती है। जिससे देश के किसानों को न केवल अच्छे भाव ही मिलते हंै बल्कि उनका अनउपयोगी दाना-दाना ठिकाने लग जाता है। वर्ष 2021-22 में देश चावल चूरी का निर्यात 213 लााख टन रहा था। लेकिन सरकार द्वारा जारी नये टैक्स से चालू वर्ष में देश के चूरी चावल के निर्यात में 40 से 50 लाख टन कमी आना माना जा रहा है। देश में जब चूरी चावल की खपत न के बराबर है सरकार की निर्यात नीतियां किसानों में मूल्य घाटा एवं उत्पादन के प्रति भय पैदा करने वाली है। जलवायु परिवर्तन के प्रभाव से रबी फसलें अब फरवरी एवं मार्च माह की तेज गर्मी से पूर्णता पकने से पूर्व ही सूखने लगी है। गत वर्ष मौसम में हुए इस परिवर्तन से देश में गेहूं का उत्पादन लगभग 23 लाख टन कम हुआ था। आने वाले समय में मौसम के सटीक पूर्वानुमान के लिये भारत के पास अमेरिका, ऑस्ट्रेलिया, इजराइल जैसा विकसित तंत्र नहीं है। आगामी रबी फसल को लेकर किसानों के सामने फसल चयन की चुनौती है। अगर वह गेहंू की बुआई करता है तो गत वर्ष की तरह अत्यधिक गर्मी से समय पूर्व फसल पकने का खतरा है। चना-मसूर का चयन करता है तो इस वर्ष की अत्यधिक वर्षा मिट्टी के अनेक रोगों को जन्म दे सकती वहीं इस वर्ष अत्यधिक ठंड के पूर्व आसार दलहनी फसलों में तुषार एवं पाले का संभावित खतरों से किसानों को असमंजस में डाले हुए हैं। लेकिन देश के कृषि वैज्ञानिकों की सलाह किसान हित में जारी करने का दायित्व राज्य सरकारों से अब भी परे है। उत्पादकता बढ़ाने देश के कृषि अनुसंधान केन्द्र जो गेहंू की फसल विकसित कर वह चार से पांच सिंचाई वाली है। ठंड में लगने वाली सिंचाई पर किसान यूरिया एवं अन्य उर्वरकों का छिडक़ाव आवश्यक मानता है। जिससे किसानों की सिर्फ लागत ही नहीं बढ़ती बल्कि भूमि की उर्वराशक्ति भी कमजोर होती है। देश के चालीस फीसदी हिस्से की खेती बगैर सिंचाई वाली है। जहां कम पानी की फसलों के बीज की आवश्यकता रहती है। लेकिन सरकारी प्रयास देश के किसानों की जमीनी आवश्यकताओं से मीलों दूर है।

महंगी होती मजदूरी

सोयाबीन,उड़द एवं मूंग की सत्तर फीसदी कटाई मजदूरों पर निर्भर है। पूर्व की तुलना में अब मजदूर दो से तीन गुना अधिक मजदूरी की मांग करने लगे हैं। इसकी मुख्य वजह मजदूरों को मनरेगा में मजदूरी मिलने के अतिरिक्त मुफ्त का अनाज मिलना है। राज्यों के माध्यम से संचालित योजनाओं में मजदूर परिवारों को एक रुपया किलो अनाज एवं राशन की अन्य साम्रग्री उपलब्ध हो रही है तो वहीं कोविड अवधि में 80 करोड़ आबादी में बांटे जाने वाले मुफ्त अनाज की समय सीमा को अगले छ: माह के लिये केन्द्र सरकार ने विस्तारित किया है। ऐसा करने के पीछे राजनैतिक कारण भले हो लेकिन इसका दुष्प्रभाव यह है कि देश का मजदूर अब मेहनत के बजाय मुफ्त की रोटी तोडऩे की मानसिकता पालने लगा है।

प्रमुख कारण 
  • खेती की लागत बढ़ी
  • अच्छी गुणवत्ता के बीज नहीं
  • समय पर उर्वरक उवलब्ध नहीं
  • सरकार की उलट नीतियां
  • प्रभार पर चल रहे कृषि विभाग

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