राज्य कृषि समाचार (State News)

दियारा खेती भारत की नदियों के किनारे कृषि प्रणाली

लेखक: हरीश बाथम (एम.एस.सी. (कृषि) एग्रोनॉमी स्कॉलर), कृषि विद्यालय, विक्रांत विश्वविद्यालय, ग्वालियर, डॉ.सचिन कुमार सिंह (सहायक प्रोफेसर), अरुण साहू (सहायक प्रोफेसर), डॉ. हिरदेश कुमार (सहायक प्रोफेसर)

31 जनवरी 2025, भोपाल: दियारा खेती भारत की नदियों के किनारे कृषि प्रणाली – दियारा खेती एक विशिष्ट प्रकार की कृषि प्रणाली है जो मुख्य रूप से भारत के गंगा, यमुना, और अन्य बड़ी नदियों के आसपास के बाढ़ प्रभावित क्षेत्रों में की जाती है। ‘दियारा’ शब्द उन क्षेत्रों के लिए प्रयोग किया जाता है जो नदी के किनारों पर स्थित होते हैं और बाढ़ के दौरान जलमग्न हो जाते हैं। ये क्षेत्र नदियों की धारा बदलने और वर्ष भर पानी की आवाजाही के कारण बनते हैं, जो कृषि के लिए महत्वपूर्ण अवसर प्रदान करते हैं। डायरा खेती स्थानीय किसानों के लिए महत्वपूर्ण आजीविका का स्रोत है, विशेषकर उत्तर प्रदेश, बिहार, पश्चिम बंगाल और असम जैसे राज्यों में I

दियारा खेती की विशेषताएं

बाढ़ प्रभावित क्षेत्र: दियारा क्षेत्र अक्सर नदियों के किनारे होते हैं जो मानसून के दौरान बाढ़ से प्रभावित होते हैं। बाढ़ का पानी मिट्टी में उपजाऊ गाद छोड़ जाता है, जिससे फसल की उर्वरता बढ़ती है।
उपजाऊ मिट्टी: बाढ़ के कारण गाद जमा होने से दियारा क्षेत्रों की मिट्टी अत्यंत उपजाऊ हो जाती है, जिससे यहां फसलों की पैदावार बेहतर होती है। ये मिट्टी अधिक पोषक तत्वों से भरपूर होती है, जो फसल उत्पादन के लिए लाभकारी है।
मौसमी खेती: दियारा क्षेत्रों में खेती आमतौर पर वर्ष में एक बार की जाती है, क्योंकि यह क्षेत्र मानसून के बाद बाढ़ के जल के कम होने पर उपजाऊ होता है। फसल कटाई का समय विशेष रूप से बाढ़ के बाद होता है।
मुख्य फसलें: इन क्षेत्रों में मुख्य रूप से धान, गेहूं, मक्का, दलहन (जैसे मसूर, मूंग), और तिलहन (जैसे सरसों) की खेती की जाती है। इसके अलावा, सब्जियाँ और मौसमी फसलें भी उगाई जाती हैं।
जल प्रबंधन: दियारा खेती में जल प्रबंधन महत्वपूर्ण होता है, क्योंकि पानी की अधिकता या कमी से फसल प्रभावित हो सकती है। बाढ़ का पानी कृषि योग्य भूमि को उपजाऊ बनाता है, लेकिन जल निकासी और सही समय पर बुवाई भी जरूरी होती है।

दियारा खेती में उगाई जाने वाली प्रमुख फसलें

दियारा खेती में कई प्रकार की फसलें उगाई जाती हैं, जो क्षेत्र की मिट्टी और मौसम के अनुसार होती हैं। कुछ प्रमुख फसलें निम्नलिखित हैं-

खरीफ की फसलें: बाढ़ के उतरने के बाद खरीफ सीजन की फसलें उगाई जाती हैं, जिनमें मुख्यत: धान, मक्का, और बाजरा शामिल हैं। बाढ़ की वजह से मिट्टी में नमी रहती है, जो खरीफ फसलों के लिए उपयुक्त होती है।
रबी की फसलें: रबी सीजन में गेहूँ, जौ, सरसों, और दलहन जैसी फसलें उगाई जाती हैं। रबी की फसलें आमतौर पर ठंड के मौसम में होती हैं और बाढ़ के उतरने के बाद जब मिट्टी कुछ हद तक सूख जाती है, तब ये फसलें बोई जाती हैं।
सब्जियाँ: दियारा क्षेत्र में सब्जियाँ भी प्रमुखता से उगाई जाती हैं। इनमें टमाटर, बैंगन, मिर्च, प्याज, और आलू जैसी सब्जियाँ शामिल हैं। नदी किनारे की मिट्टी सब्जियों के लिए अत्यंत उपजाऊ होती है

दियारा खेती के लाभ

उपजाऊ मिट्टी: बाढ़ के बाद की मिट्टी बेहद उपजाऊ होती है, जिससे कम खर्च में बेहतर फसल उत्पादन संभव होता है।
प्राकृतिक खाद: नदी की गाद एक प्रकार की प्राकृतिक खाद का काम करती है, जिससे अतिरिक्त उर्वरक की जरूरत कम हो जाती है।
जल संसाधन की उपलब्धता: दियारा क्षेत्रों में जल संसाधनों की कमी नहीं होती, क्योंकि बाढ़ का पानी पर्याप्त नमी प्रदान करता है।
फसल विविधता: दियारा क्षेत्रों में विभिन्न प्रकार की फसलें उगाई जा सकती हैं, जिससे किसानों को एकल फसल पर निर्भर नहीं रहना पड़ता।

दियारा खेती का भारतीय कृषि में महत्व

स्थानीय खाद्य उत्पादन: दियारा खेती स्थानीय स्तर पर खाद्य उत्पादन का एक महत्वपूर्ण स्रोत है, विशेषकर धान और गेहूं जैसी प्रमुख खाद्य फसलों का उत्पादन यहां होता है।
आर्थिक स्रोत: बाढ़ प्रभावित क्षेत्रों में रहने वाले किसानों के लिए डायरा खेती एक महत्वपूर्ण आर्थिक गतिविधि है, जो उनके जीवन-यापन का मुख्य साधन है।
पर्यावरणीय लाभ: दियारा क्षेत्रों में खेती से नदियों के प्राकृतिक चक्र का हिस्सा बनी रहती है, जो जलवायु संतुलन बनाए रखने में मदद करती है।
सामाजिक महत्व: दियारा खेती गांवों और छोटे कस्बों में रहने वाले लोगों की जीवनशैली और सामाजिक ढांचे का हिस्सा है, जिससे सामाजिक और सांस्कृतिक स्थिरता बनी रहती है।

दियारा खेती से पर्यावरण को लाभ

मिट्टी की उर्वरता में सुधार: बाढ़ के दौरान नदी द्वारा लाई गई गाद (सिल्ट) मिट्टी में जमा होती है, जो मिट्टी की उर्वरता को बढ़ाती है। यह प्राकृतिक प्रक्रिया बिना किसी रासायनिक उर्वरक के मिट्टी को पोषक तत्वों से समृद्ध करती है, जिससे भूमि की गुणवत्ता बनी रहती है।
जल संसाधनों का प्राकृतिक पुनर्भरण: दियारा क्षेत्रों में नदियों से आने वाला पानी जल स्तर को बनाए रखने में मदद करता है। यह भूजल का स्तर बढ़ाता है, जिससे लंबे समय तक जल संसाधनों का उपयोग किया जा सकता है।
जैव विविधता का संरक्षण: दियारा खेती के क्षेत्र में बाढ़ के पानी से आने वाले पोषक तत्व और नमी वनस्पतियों और जीव-जंतुओं के लिए अनुकूल वातावरण प्रदान करते हैं। यह जैव विविधता को संरक्षित रखने में सहायक होता है।
कम रासायनिक उपयोग: दियारा क्षेत्रों की उपजाऊ मिट्टी के कारण किसानों को रासायनिक उर्वरकों और कीटनाशकों का उपयोग कम करना पड़ता है। इससे मिट्टी और जल प्रदूषण को रोकने में मदद मिलती है, जो पर्यावरण के लिए फायदेमंद है।
कार्बन संतुलन: दियारा खेती में फसलों की विविधता होती है, जो कार्बन संतुलन बनाए रखने में मदद करती है। कम रासायनिक उपयोग और प्राकृतिक तरीकों से कार्बन फुटप्रिंट कम होता है।

दियारा खेती में नई तकनीकें

जल संरक्षण तकनीक:

माइक्रो-इरिगेशन: सूक्ष्म सिंचाई (ड्रिप इरिगेशन) जैसी तकनीकों का प्रयोग किया जा सकता है ताकि पानी की बर्बादी कम हो और फसलों को आवश्यकता के अनुसार पानी मिले।
रेनवाटर हार्वेस्टिंग: वर्षा के पानी को संचित करके बाढ़ के बाद सूखे के समय इसका उपयोग किया जा सकता है।

मिट्टी संरक्षण तकनीक :

कंटूर प्लानिंग: बाढ़ के पानी को नियंत्रित करने और मिट्टी के कटाव को रोकने के लिए कंटूर प्लानिंग की जा सकती है।
ग्रीन मैन्योर: जैविक खेती को बढ़ावा देने के लिए ग्रीन मैन्योर का उपयोग करके मिट्टी की संरचना और उर्वरता को बेहतर किया जा सकता है।
फसल विविधता: दियारा क्षेत्रों में फसल विविधता को बढ़ावा देने के लिए मल्टी-क्रॉपिंग और इंटर-क्रॉपिंग जैसी तकनीकें अपनाई जा सकती हैं। इससे किसानों की आय बढ़ती है और मिट्टी की उर्वरता बनी रहती है।
फसल चक्र: फसल चक्र तकनीक का उपयोग करके मिट्टी में पोषक तत्वों की कमी को रोका जा सकता है। जैसे, दालों और तिलहन जैसी फसलों का चक्रानुक्रमिक उपयोग नाइट्रोजन की उपलब्धता को बनाए रखने में मदद करता है।
प्राकृतिक संसाधनों का पुनरुत्पादन: बायोफर्टिलाइजर्स और वर्मीकम्पोस्टिंग जैसी तकनीकों का प्रयोग करके मिट्टी की उर्वरता को लंबे समय तक बनाए रखा जा सकता है। इससे कृषि स्थायित्व बढ़ता है और पर्यावरण पर रासायनिक उर्वरकों का नकारात्मक प्रभाव नहीं पड़ता।
क्लाइमेट स्मार्ट एग्रीकल्चर: दियारा खेती को क्लाइमेट स्मार्ट एग्रीकल्चर की ओर मोड़ा जा सकता है, जिसमें जलवायु परिवर्तन के प्रभावों को कम करने के लिए आधुनिक तकनीकों का उपयोग किया जाता है। इसमें सूखा सहनशील फसलों का चयन और जलवायु अनुकूल खेती पद्धतियों का प्रयोग शामिल है।
सेंसर और ड्रोन तकनीक: फसल की निगरानी और पानी के प्रबंधन के लिए ड्रोन और सेंसर तकनीक का उपयोग किया जा सकता है। इससे किसानों को फसल की स्थिति और पानी की जरूरत को समझने में आसानी होती है, और उन्हें सही समय पर आवश्यक कार्यवाही करने का मौका मिलता है।

दियारा खेती की चुनौतियाँ

दियारा खेती की कई विशेषताएँ इसे लाभदायक बनाती हैं, लेकिन इसके साथ कुछ चुनौतियाँ भी जुड़ी होती हैं, जो इस प्रकार हैं:

बाढ़ का खतरा: दियारा क्षेत्रों में सबसे बड़ी चुनौती बाढ़ का बार-बार आना है। बाढ़ से खेतों में लगी फसलें बर्बाद हो जाती हैं और मिट्टी का कटाव भी हो सकता है। किसानों को बार-बार फसल नष्ट होने की समस्या का सामना करना पड़ता है।
बाढ़ के बाद की खेती: बाढ़ उतरने के बाद कई बार मिट्टी बहुत गीली हो जाती है, जिससे समय पर फसल लगाना मुश्किल हो जाता है। इस स्थिति में किसान देरी से खेती शुरू करते हैं, जिससे फसल की समय पर कटाई नहीं हो पाती और उत्पादन में कमी आती है।
सिंचाई की कमी: कई दियारा क्षेत्रों में सिंचाई की सुविधा पर्याप्त नहीं होती है। किसानों को बारिश पर निर्भर रहना पड़ता है, जिससे सूखे के समय फसल प्रभावित होती है।
आवागमन और बाजार तक पहुँच: दियारा क्षेत्र अक्सर मुख्य सड़कों और शहरों से दूर होते हैं। इस कारण किसानों को अपनी फसलों को बाजार तक पहुँचाने में कठिनाई होती है, जिससे उनकी आय में कमी आती है।
जलवायु परिवर्तन का प्रभाव: जलवायु परिवर्तन के कारण बाढ़ और सूखे की आवृत्ति और तीव्रता में वृद्धि हो रही है। इससे दियारा क्षेत्रों की कृषि प्रणाली पर नकारात्मक प्रभाव पड़ रहा है।

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