राज्य कृषि समाचार (State News)

डीबीडब्ल्यू-377 का मिला 73 क्विंटल प्रति हेक्टेयर उत्पादन

27 मार्च 2025, जबलपुर: डीबीडब्ल्यू-377 का मिला 73 क्विंटल प्रति हेक्टेयर उत्पादन – जिले के विकासखण्ड पाटन के ग्राम कुकरभुका में गेहूँ के फसल कटाई प्रयोग में मिले नतीजों ने कृषि अधिकारियों सहित मौके पर मौजूद रहे सभी किसानों को आश्चर्य चकित कर दिया। फसल कटाई का यह प्रयोग गत दिनों  कृषक श्री अर्जुन पटेल के खेत में किया गया था और इसमें गेहूँ का 73 क्विंटल प्रति हेक्टेयर उत्पादन प्राप्त हुआ, जो सामान्य से काफी अधिक है ।

फसल कटाई प्रयोग के दौरान मौजूद रहे उप संचालक कृषि डॉ एस के निगम ने बताया कि कृषक श्री अर्जुन पटेल द्वारा अपने खेत में गेहूँ के डीबीडब्ल्यू-377 ब्रीडर बीज की रेज्ड बेड पद्धति से बोनी की गई थी। डॉ निगम के मुताबिक अर्जुन पटेल के खेत में फसल कटाई प्रयोग पाँच मीटर लम्बे और पाँच मीटर चौड़े हिस्से में किया गया था और इसमें 18 किलो 424 ग्राम गेहूँ के उत्पादन प्राप्त हुआ। उन्होंने बताया कि फसल कटाई प्रयोग में प्राप्त इन आंकड़ों का विश्लेषण करने पर गेहूँ का प्रति हेक्टेयर उत्पादन 73 क्विंटल आता है, जबकि परंपरागत पद्धति से फसल लेने पर प्रति हेक्टेयर 40 से 45 क्विंटल गेहूँ का उत्पादन ही प्राप्त होता है।

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उप संचालक कृषि के मुताबिक कृषक श्री पटेल द्वारा गेहूँ का ब्रीडर बीज भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद करनाल से लाया गया और 30 किलो प्रति एकड़ बीज रेज्ड बेड पद्धति से बोया गया। रेज्ड बेड पद्धति में 30 किलो प्रति एकड़ बीज की आवश्यकता होती है, जबकि परंपरागत विधि से 80 से बोनी में 100 किलो बीज लगता है। उप संचालक कृषि ने बताया कि रेज्ड बेड पद्धति में एक पौधे में 15 से 16 कल्ले आते हैं और फसल गिरती भी नहीं है, जबकि परंपरागत विधि से गेहूँ में तीन से चार कल्ले ही आते हैं तथा फसल गिर जाने की संभावना होती है।

अनुविभागीय कृषि अधिकारी पाटन डॉ इंदिरा त्रिपाठी के अनुसार फसल बुवाई की रेज्ड बेड पद्धति यथास्थिति नमी संरक्षण के लिए अपनाई जाती है। इसमें बुवाई संरचना, फरो इरीगेटेड रेज्ड बेड प्लान्टर से बनाई जाती है, जिसमें सामान्यत: प्रत्येक दो कतारों के बाद लगभग 25 से 30 सेंटीमीटर चौड़ी और 15 से 20 सेंटीमीटर गहरी नाली (कूड़) बनती है। रबी के मौसम में यही नालियां सिंचाई के काम में ली जा सकती हैं, जिससे बेड में अधिक समय तक नमी बनी रहती है। साथ ही मेढ़ से मेढ़ की दूरी पर्याप्त होने से पौधों की केनोपी को सूर्य की किरणें भी ज्यादा मिलती है और इन सबके फलस्वरूप उत्पादन भी बढ़ता है।

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