कीट और रोगों से फसल हानिः कृषि अर्थव्यवस्था पर अदृश्य आघात
14 अगस्त 2025, भोपाल: कीट और रोगों से फसल हानिः कृषि अर्थव्यवस्था पर अदृश्य आघात – भारतीय कृषि तंत्र विश्व के सबसे विशाल एवं विविधतापूर्ण कृषि व्यवस्थाओं में से एक है। लगभग 140 मिलियन हेक्टेयर कृषि क्षेत्र और लाखों किसानों की जीविका इससे जुड़ी है। परंतु इस विशाल प्रणाली को हर वर्ष जो सबसे बड़ा अदृश्य खतरा प्रभावित करता है, वह है फसलों पर कीट और रोगों का प्रकोप।
भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद (ICAR) और कृषि मंत्रालय की विभिन्न रिपोटों के अनुसार, भारत में हर वर्ष 15 से 25 प्रतिशत तक फसल क्षति केवल कीट और रोगों की वजह से होती है। इस हानि का मूल्यांकन करें तो यह आंकड़ा हर साल रु. 90,000 करोड़ से लेकर रु. 1.25 लाख करोड़ तक पहुँच जाता है। यह न केवल किसानों की आय को प्रभावित करता है, बल्कि पूरे कृषि आधारित ग्रामीण अर्थतंत्र को अस्थिर करता है।
क्यों बढ़ रही है हानि की मात्रा ?
आज कीटों और रोगों की विविधता और तीव्रता दोनों बढ़ती जा रही हैं। बदलता मौसम, जलवायु परिवर्तन, कीटनाशकों का अनियंत्रित उपयोग, और प्रतिरोधी कीट प्रजातियों का विकास ये सभी कारक फसलों के लिए खतरनाक होते जा रहे हैं। उदाहरण के लिए, कपास की फसल में गुलाबी सुंडी (पिंक बॉलवर्म) और सफेद मक्खी (व्हाइटफ्लाई) का प्रकोप वर्षों से विकराल रूप ले चुका है, जिससे केवल 2017-18 में ही रु. 8,000 करोड़ से अधिक का नुकसान हुआ। इसी तरह, बागवानी क्षेत्र विशेषकर आम, केला, टमाटर और आलू में फफूंद एवं बैक्टीरिया जनित रोग हर साल हजारों करोड़ रुपये की उपज को बर्बाद कर देते हैं। रिपोर्ट बताती है कि भारत में केवल फफूंद और बैक्टीरिया जनित रोगों से ही हर वर्ष रु. 25,000 से रु. 50,000 करोड़ तक की हानि होती है।
नुकसान का व्यापक आर्थिक प्रभाव
जब फसलें नष्ट होती हैं, तो केवल किसान ही प्रभावित नहीं होते-इसका प्रभाव मंडियों से लेकर उपभोक्ता तक की पूरी आपूर्ति श्रृंखला पर पड़ता है। महंगाई बढ़ती है, आय में असमानता आती है, और किसान कर्ज में डूबते जाते हैं। यह स्थिति आत्महत्याओं की घटनाओं और ग्रामीण पलायन जैसी सामाजिक समस्याओं को भी जन्म देती है। इसके अलावा, फसल हानि का प्रत्यक्ष असर कृषि निर्यात पर भी पड़ता है। रोग प्रभावित या कीटग्रस्त उत्पाद अंतरराष्ट्रीय गुणवत्ता मानकों पर खरे नहीं उतरते, जिससे देश के कृषि निर्यात को नुकसान होता है।
प्रबंधन और नीतिगत खामियाँ
जहाँ सरकार की ओर से जैविक कीट नियंत्रण, समेकित कीट प्रबंधन (IPM), और नैनो-उर्वरकों जैसी तकनीकों को बढ़ावा दिया जा रहा है, वहीं ज़मीनी स्तर पर इनका क्रियान्वयन अभी भी कमजोर है। किसानों तक जानकारी और संसाधन समय पर नहीं पहुँच पाते। कीटनाशकों का अंधाधुंध और गलत इस्तेमाल भी कीटों में प्रतिरोधक क्षमता विकसित करता है, जिससे समस्या और गहरी हो जाती है।
राष्ट्रीय स्तर पर कीट निगरानी प्रणाली (National Pest Surveillance System) जैसी पहलें सराहनीय हैं, परंतु इनकी पहुँच और विश्वसनीयता में सुधार की आवश्यकता है।
समाधान की दिशा में आवश्यक कदम
इस संकट से निपटने के लिए बहुस्तरीय रणनीति अपनाना समय की माँग है: रोग एवं कीट पूर्वानुमान प्रणाली को मजबूत किया जाए, ताकि समय रहते किसान सतर्क हो सकें। कृषि विस्तार सेवाओं के माध्यम से खेत स्तर पर किसानों को प्रशिक्षण और मार्गदर्शन मिले। जैविक कीट नियंत्रण और समेकित कीट प्रबंधन तकनीकों को प्राथमिकता दी जाए। कीटनाशकों और बीजों की गुणवत्ता नियंत्रण को सख्ती से लागू किया जाए। नुकसान के मूल्यांकन की पारदर्शी व्यवस्था विकसित की जाए, जिससे किसानों को बीमा या मुआवजा मिल सके। कीट और रोग भले ही खेतों में दिखाई देते हैं, लेकिन उनका प्रभाव पूरे समाज और अर्थव्यवस्था पर होता है। यह एक ऐसा ‘अदृश्य आघात’ है, जो हर वर्ष देश को लाखों करोड़ रुपये की चपत लगाता है और लाखों किसानों की मेहनत को बर्बाद करता है। इस चुनौती से निपटना केवल वैज्ञानिक या सरकारी प्रयासों का काम नहीं, बल्कि यह नीति, तकनीक, शिक्षा और जागरूकता
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