राष्ट्रीय कृषि समाचार (National Agriculture News)

भारत में बीटी कपास के दो दशक: प्रगति और चुनौतियों की कहानी

बीटी कपास क्रांति

16 मई 2025, नई दिल्ली: भारत में बीटी कपास के दो दशक: प्रगति और चुनौतियों की कहानी – जब 2002 में बीटी कपास भारतीय किसानों के लिए पेश किया गया, तो इसने कपास की खेती के नियमों को ही बदल देने का वादा किया। कीटों, खासकर बॉलवर्म से बचाव के लिए तैयार की गई इस जैव-संशोधित फसल ने जल्दी ही खेती का चेहरा बदल दिया। बीते बीस वर्षों में बीटी कपास भारत के कृषि परिदृश्य पर छा गया है और अब यह देश के 95% से अधिक कपास क्षेत्र में उगाया जाता है।

आईसीएआर-केन्द्रीय कपास अनुसंधान संस्थान (CICR), नागपुर के शोधकर्ताओं द्वारा हाल ही में किए गए एक व्यापक अध्ययन ने इस परिवर्तनकारी यात्रा की पूरी तस्वीर पेश की है। डॉ. ए. अमरेंद्र रेड्डी (प्रमुख कृषि अर्थशास्त्री) और डॉ. वाई.जी. प्रसाद (निदेशक, CICR) द्वारा लिखे गए नीति पत्र “भारत में बीटी कपास के दो दशक: प्रभाव और नीतिगत आवश्यकताएं” इस तकनीक के प्रभाव और भविष्य की राह के लिए जरूरी सबक पेश करता है।

शुरुआती उछाल के वर्ष

बीटी कपास के आगमन के बाद का पहला दशक (2002-2013) एक कृषि क्रांति के रूप में सामने आया। बीटी से पहले जहां कपास की औसत उपज लगभग 6 क्विंटल प्रति हेक्टेयर थी, वह 2013 तक 16 क्विंटल प्रति हेक्टेयर तक पहुंच गई। इसके साथ ही कीटनाशकों का प्रयोग भी काफी घट गया — जिससे न केवल किसानों का खर्च कम हुआ, बल्कि उनके स्वास्थ्य पर भी सकारात्मक असर पड़ा। अध्ययन में बताया गया कि जहां पहले कीटनाशकों पर कुल खेती लागत का 14-16% खर्च होता था, वहीं बीटी कपास के चरम वर्षों में यह घटकर 6-8% रह गया।

सबसे बड़ी बात, किसानों की आय में जबरदस्त बढ़ोतरी हुई। भारत के सबसे बड़े कपास उत्पादक राज्य गुजरात के आंकड़े इसे अच्छी तरह दिखाते हैं। बीटी से पहले जहां उपज 10 क्विंटल प्रति हेक्टेयर थी, वह 2013 तक बढ़कर 19 क्विंटल प्रति हेक्टेयर हो गई। 2011 में प्रति हेक्टेयर शुद्ध लाभ ₹76,333 (2011-12 की स्थिर कीमतों में) तक पहुंच गया, जो बीटी से पहले के समय में किसानों के लिए केवल सपना ही था।

लघु और सीमांत किसानों के लिए मिली-जुली तस्वीर

बीटी कपास के लाभ स्पष्ट हैं, लेकिन यह अध्ययन एक जटिल वास्तविकता को उजागर करता है – खासकर विभिन्न आकार की जोतों पर इसके प्रभाव के संदर्भ में। प्रारंभिक आशंकाएं थीं कि यह तकनीक केवल बड़े किसानों को लाभ पहुंचाएगी, लेकिन आंकड़े बताते हैं कि छोटे और सीमांत किसानों को शुरुआती वर्षों में बराबर या उससे अधिक उपज लाभ प्राप्त हुआ।

2001 से 2013 के बीच, एक एकड़ से छोटे खेतों में प्रति हेक्टेयर उपज बड़ी जोतों से बेहतर रही, संभवतः छोटे खेतों में श्रम और इनपुट का अधिक गहन उपयोग होने के कारण। लेकिन यह बढ़त 2013 के बाद के वर्षों में धीरे-धीरे कम होती गई क्योंकि बड़े किसानों को सिंचाई, संसाधनों और जलवायु संकट झेलने की बेहतर क्षमता का लाभ मिलने लगा।

इससे एक महत्वपूर्ण नीति संदेश निकलता है – बीटी कपास की तकनीक तो पैमाना-तटस्थ है, लेकिन इसके दीर्घकालिक लाभों को समर्थन अवसंरचना और संसाधन तय करते हैं। बारिश पर निर्भर छोटे किसान, जिनके पास पूंजी सीमित होती है, बाद में जलवायु परिवर्तन और द्वितीयक कीटों के उभरने से अधिक प्रभावित हुए।

उभरती चुनौतियाँ: कीट प्रतिरोध और जलवायु दबाव

अध्ययन 2013 को भारत में बीटी कपास की कहानी में एक महत्वपूर्ण मोड़ के रूप में चिन्हित करता है। एक दशक की सफलता के बाद किसानों को नई समस्याओं का सामना करना पड़ा। सबसे प्रमुख चुनौती थी – गुलाबी बॉलवर्म में प्रतिरोधक क्षमता का विकास, जिससे बीटी तकनीक का प्रभाव कम हो गया।

इसकी एक बड़ी वजह थी “रिफ्यूज” नीति का पालन न करना – यानी बीटी कपास के पास गैर-बीटी कपास की खेती करना ताकि कीटों में प्रतिरोध की गति धीमी हो। जैसे-जैसे प्रतिरोध बढ़ा, पहले घटा हुआ कीटनाशकों का प्रयोग फिर से बढ़ने लगा। 2022 तक कीटनाशक खर्च बढ़कर ₹2,725 प्रति हेक्टेयर तक पहुंच गया – जो हालांकि बीटी से पहले के स्तर से कम था, लेकिन फिर भी चिंता का विषय बना।

इसके साथ ही जलवायु परिवर्तन की अनिश्चितता भी बढ़ गई। अध्ययन में कहा गया है कि 2013 के बाद से असमान वर्षा जैसे चरम मौसम की घटनाएं अधिक बार सामने आईं। चूंकि भारत का लगभग 72% कपास क्षेत्र वर्षा-आधारित है, इसलिए यह इलाका सबसे अधिक प्रभावित हुआ। कीट प्रतिरोध और जलवायु तनाव के इस संयुक्त प्रभाव से उपज घटने लगी – 2013 में 16 क्विंटल प्रति हेक्टेयर के शिखर के बाद 2020 तक यह घटकर 13 क्विंटल पर आ गई।

निर्यात की कहानी: आयातक से वैश्विक नेता तक

बीटी कपास का एक बड़ा असर भारत की वैश्विक कपास बाजार में स्थिति पर पड़ा। बीटी अपनाने से पहले भारत कपास का आयातक था। लेकिन 2007 तक, यानी केवल पांच वर्षों में, भारत एक प्रमुख निर्यातक बन गया और 15.3 लाख टन कपास का निर्यात किया। 2013 में यह आंकड़ा 23.7 लाख टन तक पहुंच गया, जिससे भारत दुनिया का सबसे बड़ा कपास निर्यातक बन गया।

हालांकि, अध्ययन बताता है कि यह निर्यात सफलता स्थायी नहीं रही। 2015 के बाद से निर्यात मात्रा 10-15 लाख टन के बीच झूलती रही। इसका कारण उत्पादकता में ठहराव और अन्य देशों से बढ़ती प्रतिस्पर्धा बताया गया है।

भविष्य के लिए नीति सुझाव

CICR के अध्ययन में कई अहम सिफारिशें दी गई हैं। सबसे पहली जरूरत है – बीटी कपास की अगली पीढ़ी के संस्करणों का विकास और मंजूरी, जिसमें एक से अधिक गुण शामिल हों ताकि नए कीट प्रतिरोध को मात दी जा सके। शोधकर्ताओं ने नोट किया है कि भारत अब भी 2006 में आई BG-II तकनीक पर निर्भर है, जबकि अन्य देशों ने इससे आगे की तकनीकों अपना ली हैं।

दूसरी प्रमुख बात है – कृषि पद्धतियों का सुधार। अध्ययन में हाई डेंसिटी प्लांटिंग सिस्टम (HDPS) की सफलता का उल्लेख है, जिससे प्रदर्शन भूखंडों में 30-40% तक उपज बढ़ी है। ऐसे उपायों को बड़े पैमाने पर लागू करना, सिंचाई और सटीक खेती तकनीकों का विस्तार करना, भारत को चीन और ब्राजील जैसे अग्रणी देशों की बराबरी पर ला सकता है।

लघु किसानों के लिए अध्ययन ने लक्षित सहायता कार्यक्रमों की जरूरत बताई है – जैसे ड्रिप सिंचाई पर सब्सिडी, मौसम-प्रतिरोधी बीजों की उपलब्धता, और कीट प्रबंधन के टिकाऊ उपायों पर जागरूकता अभियान।

भारतीय कपास का चौराहा

जैसे-जैसे भारत बीटी कपास की 20 वर्षों की यात्रा को देखता है, यह अध्ययन आशा और चिंता दोनों का संदेश देता है। इस तकनीक ने भारतीय कृषि को बदल डाला – उपज बढ़ाई, कीटनाशकों का प्रयोग घटाया, और लाखों किसानों को गरीबी से निकाला। लेकिन इसके साथ ही इसकी सीमाएं भी उजागर हुईं – जैसे कीट प्रतिरोध और जलवायु संवेदनशीलता।

शोधकर्ताओं का अंतिम संदेश स्पष्ट है: बीटी कपास एक महत्वपूर्ण उपकरण है, लेकिन यह अकेले भारतीय कृषि को भविष्य की ओर नहीं ले जा सकता। अगला दशक एक समग्र दृष्टिकोण की मांग करता है — जिसमें जैव प्रौद्योगिकी, टिकाऊ खेती, मजबूत नीति समर्थन और निरंतर अनुसंधान निवेश को साथ लेकर चलना होगा। तभी भारत वैश्विक कपास क्षेत्र में अपनी अग्रणी भूमिका को बनाए रख सकेगा और इस फसल पर निर्भर करोड़ों लोगों का भविष्य सुरक्षित कर सकेगा।

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